दिल्ली में जोखिम भरा नया दौर

दि ल्ली विधानसभा चुनाव के लिए मतदान से एकाध दिन पहले दिल्ली प्रदेश भाजपा के नेताओं ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया कि पार्टी के ६७ प्रत्याशी आश्वस्त हैं कि आम आदमी पार्टी (आआपा) से संघर्ष के बावजूद वे अपने निर्वाचन क्षेत्र में विजय प्राप्त कर लेंगे। लेकिन जब १० फरवरी को विधान सभा चुनाव के परिणाम आए तो कुल ७० सीटों में से ठीक ६७ सीटों पर आम आदमी पार्टी ने विजय प्राप्त कर नया चुनावी इतिहास बना दिया। भाजपा को मात्र तीन सीटों से संतोष करना पड़ा। वर्षों से दिल्ली में निवास कर रहे और यहां के चुनावों को कवर कर रहे पत्रकारों-विश्लेषकों को ४९ दिन की सरकार की भगोड़ा पार्टी की जबरदस्त वापसी के संकेत साफ दिख रहे थे। इसकी तपिश कांग्रेस-भाजपा को भी मतदान से हफ्ता-दस दिन पहले महसूस जरूर हुई होगी। लेकिन आम आदमी पार्टी कांग्रेस का सूपड़ा पूरी तरह साफ कर और विधान सभा में भाजपा के संख्याबल को एक अंक में समेटकर अपना परचम फहराएगी इसका अंदाज कांग्रेस-भाजपा ही नहीं, आम आदमी पार्टी को भी शायद नहीं था।

मोदी के प्रति देश भर में जनता के समर्थन और सहानुभूति के बावजूद दिल्ली में आआपा की जबरदस्त विजय से चार मुख्य प्रश्न उभरते हैं। पहला, आआपा की ऐसी कल्पनातीत विजय के कारण क्या हैं; भाजपा की दारूण पराजय क्यों हुई जबकि उसके वोट प्रतिशत में मात्र १ फीसदी की कमी आई; आआपा अपने ७० सूत्री घोषणापत्र के लोकलुभावन वादों को कैसे पूरा कर पाएगी; और चौथा देश की राजधानी की सत्ता में होने के कारण क्या आआपा मोदी के अश्वमेध से हतबल भाजपा-विरोधी दलों और ताकतों के लिए मोदी सरकार के विरूद्ध संघर्ष छेडऩे के लिए संजीवनी बनेगी?
पहले आआपा की न भूतो, न भविष्यति विजय की बात। कांग्रेस-विरोध से अस्तित्व में आई लेकिन २०१३ में उसी कांग्रेस के समर्थन से ४९ दिन की झगडालू अल्पमत सरकार चलाकर सत्ता से भाग खड़ी हुई अरविंद केजरीवाल की आआपा दिल्ली की जनता की नजरों से उतर चुकी थी। २०१४ के लोकसभा चुनाव में पंजाब में चार सीटों को छोडक़र देश भर में उसके प्रत्याशियों की जमानतें जब्त हो गई थीं। पार्टी २०१४ में दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर हार चुकी थी और २०१३ में जीती हुई दिल्ली विधान सभा की २८ सीटों में से २४ भाजपा की झोली में डाल चुकी। २०१४ के लोकसभा चुनाव में आआपा दिल्ली की कुल ७० में से मात्र १० विधान सभा सीटों पर बढ़त बना सकी थी जबकि भाजपा ने ६० विधान सभा सीटों पर बढ़त बनाई थी। लोकसभा चुनाव में दिल्ली की विधान सभा सीटों पर आआपा का वोट प्रतिशत भी २०१३ के २९.५ फीसदी से घटकर महज १० प्रतिशत रह गया था जबकि भाजपा ने ४६.४ प्रतिशत वोट हासिल किए थे। फिर आठ-नौ महीने में ऐसा क्या हुआ कि आआपा ने इतनी बड़ी जीत हासिल की? सत्ता से भाग खड़े होने के कारण लोग क्षुब्ध तो थे लेकिन क्रोधित नहीं थे। अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन में कमाई हुई उनकी साख छीज नहीं गई थी। ईमानदार नेता की उनकी छवि अविछिन्न थी। फिर केजरीवाल सर्वसुलभ भी थे। ४९ दिन की सरकार में गरीब बस्तियों में ७०० लीटर मुफ्त पानी और बिजली के बिल आधे करने (भले ही इसके लिए उनकी सरकार को बिजली खरीदकर वितरित करने वाली निजी कंपनियों को २० करोड़ रू. से अधिक की सब्सिडी क्यों न देनी पड़ी, यह जनता के पैसों से जनता को छूट देना ही था।) के अलावा भ्रष्टाचार की शिकायतों वाले कुछ छोटे पुलिसवालों को निलंबित करने (दिल्ली में पुलिस उप-राज्यपाल के मार्फत केंद्र सरकार के अधीन है), अपने एक मंत्री के कानून हाथ में लेने का विरोध करने वाले कुछ पुलिस कर्मियों को निलंबित करने की मांग पर ऐन गणतंत्र दिवस से कुछ दिन पहले नई दिल्ली क्षेत्र में उनका धरना (जिससे गणतंत्र दिवस के आयोजन पर संकट मंडराने लगा था) से केजरीवाल की रैंबो जैसी छवि बनी थी। फिर जब उनकी सरकार ने रिलायंस समूह के स्वामी और देश के सब से धनी उद्योगपति मुकेश अंबानी और पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के विरूद्ध एफआइआर दर्ज कर दी तो केजरीवाल गरीबों और निम्न मध्यमवर्गीय तबके में एक ऐसे नेता के बतौर स्थापित हो गए जो बड़े-बड़ों से दो हाथ कर सकता था। अपनी इन छवियों से केजरीवाल अवगत थे इसलिए लोकसभा चुनाव में हार से घर नहीं बैठ गए। लेकिन भगोड़ा की उनकी छवि रैंबो और रॉबिनहूड की मिली-जुली पर भारी थी। दिल्ली का मध्यम वर्ग ४९ दिनों की सरकार में उनके झ्गडालू स्वभाव से भी आजिज आ गया था। केजरीवाल ने उनको केंद्र सरकार से एक तरह से उपहारस्वरूप मिले आठ महीने के समय का उपयोग इसे बदलने में किया। वे और उनकी टीम के प्रमुख सदस्य समूचे महानगर में ११० मोहल्ला सभाओं में गए जहां केजरीवाल ने ४९ दिन में सरकार छोड़ देने के लिए लोगों से माफी मांगी और एक मौका और देने की प्रार्थना की (इंसान से गलती हो जाती है, मैं भी इंसान ही हूँ)। इनमें ८०,००० से लेकर १,००,००० लोग तक जुटे। दरअसल आआपा ने बड़ी सभाएं करने की बजाए छोटी सभाओं-बैठकों पर ज्यादा जोर दिया। जून २०१४ से ही आआपा का बूथ बंधन शुरू हो गया। उसके ३५,००० से ४०,००० बूथ कार्यकर्ता तभी से मतदाताओं की पहचान, नए वोट बनाने, पुराने मतदाताओं से संपर्क में जुट गए। आआपा ने खुद को सिर्फ दिल्ली की समस्याओं पानी, बिजली, निचले स्तर पर भ्रष्टाचार, महिलाओं की सुरक्षा, स्कूल-कॉलेजों में एडमिशन, यातायात आदि तक ही सीमित रखा। दिल्ली भर में आयोजित दिल्ली डॉयलाग, जिसमें आआपा नेताओं के साथ विशेषज्ञ भी थे, के जरिए दिल्ली में विभिन्न सुविधाओं के लिए आवंटित बजट के खर्च के लिए आम लोगों से सुझाव मांगे गए। केजरीवाल और उनकी टीम के प्रमुख सदस्यों ने न तो प्रधान मंत्री मोदी और न ही भाजपा की मुख्यमंत्री प्रत्याशी किरण बेदी पर व्यक्तिगत हमले किए। हालांकि आआपा की सोशल नेटवर्किंग टीम ने मोदी और बेदी पर अपमानजनक विशेषण और उपमाएं बरसाने में कसर नहीं छोड़ी। इसके अलावा आआपा ने उन क्षेत्रों पर अधिक ध्यान दिया जहां २०१३ और २०१४ के लोकसभा चुनाव में उसका खाता नहीं खुला था। मसलन, मध्यम वर्गीय बस्तियां और बाहरी दिल्ली का ग्रामीण क्षेत्र। देश भर के वामपंथी-समाजवादी रूझान वाले एनजीओ के ७०,००० से अधिक कार्यकर्ता आआपा का काम करने के लिए दो-तीन महीने दिल्ली आ गए। इनमें से निश्चित संख्या में कार्यकर्ताओं को विधान सभा क्षेत्र आवंटित कर दिए गए जहां वे किराए पर कमरे लेकर रहे, प्रचार भी किया और मतदाताओं से संपर्क भी। ये एनजीओ कार्यकर्ता अपने संगठन के खर्च पर आए लेकिन उन्होंने दिल्ली के लोगों को बताया कि वे भ्रष्टाचार विरोध के पुरोधा केजरीवाल को जितवाने अपने स्वयं के खर्च पर आए हैं! एनजीओ शैली के इस संपर्क अभियान के साथ ही आआपा ने चुनाव अभिमान में खर्च की कोई कमी नहीं की। इस मामने में आआपा का प्रचार परंपरागत दलों जैसा ही था। दिल्ली भर में जहां भाजपा का मोदी के बड़े होर्डिंग लगे थे, वहीं केजरीवाल के भी लगे। लगभग सभी बस स्टॉप मोदी या केजरीवाल के होर्डिंग से भरे थे। यह जानकारी आम थी कि विधान सभा क्षेत्रों में सबसे पहले पैसे-शराब बांटने का काम आआपा ने शुरू किया। उसके एक प्रत्याशी के गोदाम से पुलिस ने भारी मात्रा में शराब जब्त भी की। आआपा के पास फंड की कोई कमी नहीं थी। अनेक विधान सभा क्षेत्रों में तो आआपा के उम्मीदवारों को कांग्रेस और कहीं-कहीं तो भाजपा प्रत्याशियों से भी अधिक खर्च करते पाया गया। आआपा ने खुद पर हुए हमलों का फायदा उठाने में भी सफलता पाई। फर्जी कंपनियों से मिले आधी रात में २ करोड़ रुपए चंदे के आरोप हों या केजरीवाल का मजाक उड़ाने वाले भाजपा के कार्टून या उनसे भाजपा नेताओं द्वारा कुछ दिन पूछे गए पांच सवाल हों, हरेक को केजरीवाल ने मुझे गिरफ्तार कर लो जी या जाति का अपमान जैसे जवाबों से अपने पक्ष में मोडऩे में कामयाबी पाई। जिस तरह मोदी ने अपने ऊपर २००२ से लगातार हो रहे हमलों को अपने फायदे में मोड़ लिया, ठीक उसी तरह केजरीवाल ने भी खुद पर हुए हमलों से अपने गरीब-निम्न मध्यमवर्गीय और मुस्लिम समर्थक वर्ग में और ताकत ही पाई। मुस्लिम-ईसाई मतदाता केजरीवाल के दौड़ में आते ही और भाजपा को हरा सकने की उनकी क्षमता भांप कर उनके साथ हो गया था। इसलिए केजरीवाल ने जामा मस्जिद के इमाम का आआपा को समर्थन सार्वजनिक तौर पर ठुकराने में कोई संकोच नहीं किया जबकि २०१३ में केजरीवाल बरेली के विवादास्पद मुस्लिम धाकड़ नेता से समर्थन लेने पहुंच गए थे। इस बार आआपा अपनी सेक्युलर छवि बनाना चाहती थी वरना मध्यम वर्ग और उच्च मध्मय वर्ग को वह अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकती थी और न ही भाजपा-कांग्रेस के मतदाताओं के बड़े हिस्से को अपनी ओर खींच सकती थी। दिल्ली का लगभग १२ लाख संख्या वाले सरकारी कर्मचारियों में से अधिकतर इसलिए आआपा के साथ चले गए क्योंकि मोदी सरकार की सुबह समय पर आने की पाबंदी और परिणाम आधारित मूल्यांकन उन्हें रास नहीं आ रहा था। सुशासन के लिए अच्छे, कारगर उपाय वोट नहीं दिला सकते। उचित चुनाव अभियान और मुद्दों पर एकाग्रता, तैयारी के लिए मिला पर्याप्त समय, पर्याप्त खर्च, तथा स्वयं की दृढ़निश्चयी सामान्य व्यक्ति की छवि बनाए रखकर केजरीवाल ने जो वातावरण बनाया उससे मतदान के कुछ दिन पहले तक असमंजस में पड़े ३८ प्रतिशत मतदाता भी आआपा की तरफ चले गए जबकि केजरीवाल के चुनावों की घोषणा से काफी पहले ही संपर्क शुरू कर देने से ६२ फीसदी मतदाता तय कर चुके थे कि वोट किसे देना है। (लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे)। नतीजतन आआपा ने ५४ प्रतिशत (२०१३ की तुलना में ३९ फीसदी अधिक) वोटों के साथ ६७ सीटें जीत लीं। आआपा की जीती हुईं सीटों में ९६ प्रतिशत सीटें केजरीवाल के नाम पर उसकी झोली में आईं।
भाजपा की हार के कई कारण गिनाए गए हैं। दरअसल हार होने पर अच्छे के लिए किया काम भी खराब बन जाता है। लेकिन एक बात तय है कि पार्टी ने शायद ही केजरीवाल के छिपे करिश्मे पर कभी ध्यान दिया। और न ही उनका ध्यान इस ओर गया कि भाजपा-विरोधी ताकतें इस चुनाव में एकजुट हो गई हैं। केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार के लिए देश भर में अभी भी यथावत वातावरण और मोदी मैजिक से इतनी अधिक आश्वस्ति थी कि केजरीवाल और उनके एनजीओ कार्यकर्ता गली-मोहल्लों में क्या गुल खिला रहे हैं, इस ओर किसी का ध्यान शायद ही गया। मोदी की सभाओं ने बेशक भाजपा को सहारा दिया, पार्टी का प्रतिबद्ध मतदाता बहुत कम मात्रा में उससे छिटका। लेकिन मुख्ममंत्री पद के कई दावेदारों, प्रत्याशियों के चयन में देरी, टिकट वितरण में पक्षपात के आरोपों, देर से शुरू अभियान, आधे-अधूरे संपर्क और चार, कई स्थानीय नेताओं की बेरूखी के अलावा विजन डाक्युमेंट जैसे महत्वपूर्ण पत्र में अक्षम्य चूक जैसी गलतियां एक के बाद एक अलग-अलग स्तरों पर होती गईं। पर किरण बेदी जैसी सुमोगम सामाजिक कार्यकर्ता, अच्छी, ईमानदार और नियम पालन करने वाली पूर्व पुलिस अधिकारी को ऐन वक्त पर पार्टी में लाकर मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने का लाभ पार्टी को नहीं मिल पाया। इस आम धारणा के विपरीत कि बेदी को ऐन समय पर लाने से नुकसान हुआ, मतदान बाद के सर्वेक्षण बताते हैं कि मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार पार्टी घोषित न करती तो उसे वोटों का अधिक घाटा उठाना पड़ता। बेदी को पार्टी न लाती तो दिल्ली भाजपा के पास साख वाला एक ही नेता था जो केजरीवाल की ईमानदार जननेता की छवि की काट कर सकता था। २०१३ के विधान सभा चुनाव में जब केंद्र में मोदी की सरकार नहीं बनी थी, डॉ. हर्षवर्धन के नेतृत्व में पार्टी ने केजरीवाल की आंधी को रोक लिया था। तब उनके नेतृत्व में भाजपा ने ३२.९ फीसदी वोटों के साथ ३२ सीटें जीती थीं। लेकिन डॉ. हर्षवर्धन को २०१४ में लोकसभा में क्यों भेज दिया गया इसका कारण शायद ही कोई जानता हो। उनकी अनुपस्थिति में दिल्ली भाजपा में ऐसा कोई चेहरा नहीं बचा जो केजरीवाल को टक्कर दे सकता हो। विधान सभा के चुनाव और अंतत: स्थानीय नेता केजरीवाल के मुकाबले मोदी की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय छवि को दांव पर लगाना कोई राजनैतिक समझदारी नहीं थी। मुख्यमंत्री पद के लिए प्रत्याशी के नाम की घोषणा का असमंजस पार्टी को भुगतना पड़ा। और जब बेदी आईं तो स्थानीय नेतृत्व में अजीब तरह की उदासी दिखने लगीं। कुछ भी पार्टी के हक में नहीं था इसकी मिसाल इसी बात से मिली कि राष्ट्रीय अध्यक्ष को स्वयं पन्ना प्रमुखों (मतदाता सूची के एक पेज पर अंकित मतदाताओं की जिम्मेदारी संभालने वाले कार्यकर्ता) की बैठक लेनी पड़ी। कृष्णनगर, जहां से बेदी को उतारा गया था, जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में भी चुनाव सामग्री के बस्ते वितरित नहीं होने की शिकायतें थीं। टिकट के कुछ असफल दावेदारों ने आआपा का प्रचार कर अपनी पार्टी से बदला चुकाया। इस सबके बावजूद पार्टी का वोट प्रतिशत सिर्फ एक फीसदी कम हुआ तो उसका कारण मोदी सरकार की छवि और प्रतिबद्ध मतदाता थे। लेकिन आआपा के तूफान के मुकाबले यही काफी नहीं था। भाजपा को २०१४ लोकसभा चुनाव में मिला समर्थन बचाए रखने की जरूरत थी जो वह नहीं कर पाई।
आआपा के ७० सूत्री एक्शन प्लान की पांच वर्ष में अनुमानित लागत लगभग ७०,०००-७२,००० करोड़ रू. बैठती है जो प्रति वर्ष के हिसाब से दिल्ली के कुल लगभग ४०,००० करोड़ रू. के बजट का एक तिहाई से अधिक है जबकि दिल्ली के कुल सालाना बजट में से आधा पैसा वेतन और रखरखाव पर खर्च होता है। साफ है कि आआपा सरकार को केंद्र से अतिरिक्त धन की मांग करनी पड़ेगी। दिल्ली सरकार के पास दरअसल कोई अधिकार नहीं है। तीन नगर निगम, नई दिल्ली नगर परिषद और दिल्ली कैंटोनमेंट बोर्ड की अलग-अलग सत्ताएं हैं। पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है, जमीन की मिल्कियत दिल्ली विकास प्राधिकरण के जरिए केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के अधीन या तीन नगर निगमों के पास जिनके संचालन में दिल्ली सरकार के अलावा केंद्र का भी हिस्सा है। नई दिल्ली नगर परिषद भी केंद्र के अधीन तो कैंटोनमेंट बोर्ड में सेना का अधिकार। इसलिए केजरीवाल ने शपथ लेने से पहले ही केंद्रीय गृहमंत्री, शहरी विकास मंत्री औौर प्रधानमंत्री से मिलकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग कर डाली। आआपा को अपने वादे पूरे करने और दिल्ली में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संपूर्ण अधिकार चाहिए। ऐसे में जल्द ही केंद्र के साथ उसका संघर्ष अवश्यंभावी है। दिल्ली पानी के लिए हरियाणा और उत्तर देश पर निर्भर है। गर्मी आते ही दोनों राज्य अपने यहां की जरूरतों के कारण दिल्ली का पानी का कोटा कम कर देते हैं और हाहाकार मच जाता है। ऐसे में हर रोज ७०० लीटर मुफ्त पानी देने का वादा सिर्फ ठंड के मौसम में ही पूरा हो सकता है। दिल्ली में बिजली की ५,००० मेगावाट की कमी हमेशा बनी रहती है जो गर्मियों में बढक़र ८,००० मेगावाट तक पहुंच जाती है। दिल्ली अपनी स्वयं की बहुत कम बिजली पैदा कर पाती है। ऐसे में बिल आधे कर देने का कोई मतलब नहीं रह जाता। आआपा के कई ऐसे ही अवास्तविक वादे हैं। मुफ्तखोरी की राजनैतिक संस्कृति को आआपा ने अपना तो लिया लेकिन दिल्ली में मुफ्त देने के लिए उसके पास ज्यादा कुछ नहीं है। इसलिए वह १० मिनट तक फ्री वाई-फाई सुविधा जैसे टोटके अपना सकती है।
आआपा की विजय भाजपा-विरोधी दलों और ताकतों के लिए बड़ा सहारा साबित हुई है और भाजपा सरकार के विरूद्ध साझा हित के मुद्दों पर आंदोलन छेडऩे के लिए वे उसका उपयोग जरूर कर सकते हैं। वामपंथियों से लेकर तृणमूल और समाजवादी से लेकर जद (यू) तक सभी उसकी जीत में अपना उद्धार देख रहे हैं। आने वाले दिन दिल्ली में निश्चित ही सियासी संघर्ष के होंगे। इससे शासन में नई, परिणाम-आधारित कार्यसंस्कृति लागू करने, शासन व्यवस्था को जनोन्मुखी बनाने, अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने, उद्योग-कृषि दोनों में रोजगार के अवसर पैदा करने जैसे मोदी सरकार के कई महत्वाकांक्षी कार्यक्रम प्रभावित हो सकते हैं। ऐसा हुआ तो यह देश के लिए अच्छा नहीं होगा।
मो.: ९८१०४०११९५

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