खालसा-धर्म सिरजना की पृष्ठभूमि

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गुरु गोविंद सिंह के खालसा ने निःस्वार्थ राष्ट्रप्रेम के लिए त्याग और बलिदान की जो परम्परा समाज के सामने रखी, वह सम्पूर्ण विश्व में अप्रतिम एवं अतुलनीय है। पंच प्यारे और गुरुजी के चारों पुत्रों का बलिदान हमें राष्ट्र एवं समाज के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा देता है।

औरंगजेब-टीपू सुल्तान से मुसलमानों को हमदर्दी क्यों?

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क्या यह अच्छा नहीं होता कि औरंगज़ेब और टीपू सुल्तान जैसे कट्टर एवं मतांध शासकों को नायक के रूप में स्थापित करने या ज़ोर-जबरदस्ती से बहुसंख्यकों के गले उतारने की कोशिशों की बजाय मुस्लिम समाज द्वारा रहीम, रसखान, दारा शिकोह, बहादुर शाह ज़फ़र, अशफ़ाक उल्ला खां, खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान, वीर अब्दुल हमीद एवं ए.पी.जे अब्दुल कलाम जैसे साझे नायकों व चेहरों को सामने रखा जाता? इससे समन्वय, सहिष्णुता एवं सौहार्द्रता की साझी संस्कृति विकसित होगी। कट्टर एवं मतांध शासकों या आक्रांताओं में नायकत्व देखने व ढूँढ़ने की प्रवृत्ति अंततः समाज को बाँटती है। यह जहाँ विभाजनकारी विषबेल को सींचती है, वहीं अतीत के घावों को कुरेदकर उन्हें गहरा एवं स्थाई भी बनाती है।

केवल विरोध के लिए विरोध की मानसिकता

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सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा दायर की गई जनहित याचिका के आधार पर फ़िलहाल नए संसद-भवन के निर्माण पर रोक लगा दी है। उन कथित बुद्धिजीवियों का कहना है कि नए निर्माण से पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ेगा। उनकी देखा-देखी सोशल मीडिया पर भी ऐसी चर्चाएं देखने को मिलीं…

हमारा इतिहास पराजय का नहीं, संघर्षों का है

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जिनका नाम लेते ही नस-नस में बिजलियाँ-सी कौंध जाती हो; धमनियों में उत्साह, शौर्य और पराक्रम का रक्त प्रवाहित होने लगता हो; मस्तक गर्व और स्वाभिमान से ऊँचा हो उठता हो- ऐसे परम प्रतापी महाराणा प्रताप पर भला किस देशभक्त को गर्व नहीं होगा! उनका जीवन वर्तमान का निकष है,…

कर्नाटक चुनाव में भाजपा को मिली हार में छुपा संदेश

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कर्नाटक चुनाव में भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत का विश्लेषण तमाम राजनीतिक पंडित अपने-अपने ढ़ंग से कर रहे हैं। कोई इसे राष्ट्रीय मुद्दों पर स्थानीय मुद्दों की जीत बता रहा है तो कोई पिछली सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार को इसका मूल कारण बता रहा है। हमेशा की तरह…

राष्ट्रीय एकता में आदि शंकराचार्य का योगदान

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भारत की विविधता पश्चिमी जगत के लिए तो सदैव से आकर्षण, आश्चर्य एवं शोध की विषयवस्तु रही ही है, अनेक भारतीय विद्वान भी इसे लेकर मतिभ्रम एवं सतही-सरलीकृत निष्कर्ष के शिकार रहे हैं। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि स्थूल, भेदकारी एवं कोरी राजनीतिक बुद्धि एवं दृष्टि से संपूर्ण भारतवर्ष…

भारतीय लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी एवं व्यापक है

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देश में लोकतंत्र की दिशा-दशा पर जारी विमर्श के मध्य यह जानना आवश्यक है कि भारत न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, अपितु वह लोकतंत्र की जननी है। लोकतंत्र भारत की आत्मा है। वह आम भारतीयों की साँसों और संस्कारों में रचा-बसा है। भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों एवं…

संघ के वैचारिक अधिष्ठान की नींव – श्री गुरूजी

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के धुर-से-धुर विरोधी एवं आलोचक भी कदाचित इस बात को स्वीकार करेंगें कि संघ विचार-परिवार जिस सुदृढ़ वैचारिक अधिष्ठान पर खड़ा है उसके मूल में माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी के विचार ही बीज रूप में विद्यमान हैं। संघ का स्थूल-शरीरिक ढाँचा यदि डॉक्टर हेडगेवार…

इतिहास के पाठ्यक्रम में परिवर्तन क्यों आवश्यक

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एक ओर यहूदियों पर किए गए बर्बर अत्याचार के कारण आज जर्मनी में हिटलर का कोई नामलेवा भी नहीं बचा है, पूरा यूरोप एवं अमेरिका ही यहूदियों पर अतीत में हुए अत्याचार के लिए प्रायश्चित-बोध से भरा रहता है, वहीं दूसरी ओर भारत में आज भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिन्हें गोरी, गज़नी, ख़िलजी, तैमूर जैसे आतताइयों-आक्रांताओं पर गर्व है, उन्हें उनके नाम पर अपने बच्चों के नाम रखने में कोई गुरेज़ नहीं।

क्या भारत को भी हम विदेशी नज़रिए से ही समझेंगें?

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जामिया से पढ़ी और यूपीएससी में टॉप करने वाली श्रुति शर्मा खुलेआम कह रही हैं कि - ''आर्य आक्रमणकारी थे।'' जब तक हम केवल अकूत पैसे और पावर के कारण आईएएस/आईपीएस एवं अन्य सरकारी बाबुओं को सिर-माथे बिठाते रहेंगें, ये ऐसे ही अनाप-शनाप वक्तव्य जारी करते रहेंगें। दुर्भाग्यपूर्ण है कि…

शिक्षा का हो भारतीयकरण

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शिक्षा किसी भी समाज एवं राष्ट्र की रीढ़ होती है। उसी पर उस राष्ट्र एवं वहां की पीढ़ियों का संपूर्ण भविष्य निर्भर करता है। शिक्षा के माध्यम से ही राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक मूल्यबोध विकसित किए जाते हैं और निश्चय ही ऐसा किया भी जाना चाहिए। पारस्परिक एकता, शांति, सहयोग एवं सौहार्द्र की…

स्वाभिमान को जागृत करने वाली वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई

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विरला ही कोई ऐसा होगा जो महारानी लक्ष्मीबाई के साहस, शौर्य एवं पराक्रम को पढ़-सुन विस्मित-चमत्कृत न होता हो! वे वीरता एवं संघर्ष की प्रतिमूर्त्ति थीं। उनका जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था। मात्र 29 वर्ष की अवस्था में अँग्रेजों से लड़ते हुए 18 जून, 1858 को…

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