ढलती सांझ के प्रेममयी रंग…
देर तक विशाखा खिड़की से बाहर ढलते सूरज की लालिमा को गहराते देखती रही। देखती रही तेज गति से दौड़ती ट्रेन की खिड़की से पीछे छूटते पेड़ों को और घरों को। ट्रेन तेजी से आगे भाग रही थी और मन पीछे छूटते जा रहे पेड़ों के साथ पीछे भाग रहा था। भाग रहा था पीछे छूटे अपने शहर की ओर, उस शहर की ओर जहां उसका घर था, वह घर जिसे उसने पूरे 33 बरस सहेजा था।