थप्पड़

उस दिन मुझे मेरी गलतियां, मेरी नादानियां समझ आ गईं। उस दिन के बाद मैंने न तो किसी का मजाक बनाया और न किसी की तबीयत की हंसी ही उड़ाई। जिंदगी को मुझे कुछ सिखाना ही था तो ऐसे थप्पड़ मार कर सिखाने की क्या जरूरत थी।

यह कहानी किसी को सच नहीं लगेगी। सब को लगेगा कि ये मेरी कल्पना है पर जिंदगी कभी-कभी ऐसे हालात सामने ला कर खड़े कर देती है कि जिसे वह सच है या झूठ, हम समझ नहीं पाते।

यह बात उस वक्त की है जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी। मैं और मेरी सात सहेलियों का एक ग्रुप था। बस हम सातों ही हर जगह साथ-साथ होते थे। सैकेण्ड ईयर की बात है, विजुअल बेसिक नाम का विषय था। प्रोग्रामिंग लैग्वेज। प्रैक्टिस होनी चाहिए। अच्छा ज्ञान होना चाहिए। इसलिए हम सबने तय किया कि हम सब इस विषय की ट्यूशन लगाएंगी ताकि हमें इसमें मास्टर -की मिल सके और परीक्षा की दृष्टि से अच्छे अंकों का अनुमान लगाया जा सके।

तो बस तय हुआ और ट्यूशन कब, कहां, किसके पास लगानी है, इसके बारे में खोजबीन शुरू हो गई। रास्ते में मेरी बुआ का अस्पताल पड़ता था। बुआ से मिल कर लौट ही रही थीं हम सब सहेलियों की तभी हमारी नजर ट्यूशन क्लासेस के बोर्ड पर पड़ी। नाम तो सुना था। वहां जाकर क्लासेस के बारे में पूछताछ भी कर ली। सब कुछ तय हो गया। कौन हमें पढ़ाएंगे, कब-कब क्लासेस लगेगी, क्लासेस का क्या टाइम रहेगा आदि-आदि…।

ट्यूशन क्लासेस का पहला दिन था। ट्यूशन पढ़ाने वाले सर से आज पहली बार मुलाकात होने वाली थी। उनका नाम और अनुभव सुन कर हम सब सहेलियां अनुमान लगा रही थीं कि हमें पढ़ाने वाले सर जरूर ही कोई बुजुर्गबार और खड़ूस से व्यक्ति होंगे। पर जैसे ही क्लास में उनको देखा तो सोचा हुआ सब कुछ उल्टा पाया। सर क्लास में आए। सब तरफ एकदम शांति छा गई। पिन ड्राप साइलेंस। सर ने पहले अपना परिचय दिया। फिर एक-एक करके हम सब का परिचय उन्होंने लिया। हमारी कल्पना से परे उनकी उम्र बहुत ही कम थी। दिखने में एकदम खूबसूरत। पढ़ाने का तरीका एकदम अद्भुत। सब कुछ एकदम बेहतर, बहुत अच्छा लगा।

कॉलेज टाइम में दोस्तों के साथ कॉलेज का मस्तीभरा माहौल अलग ही होता है, कुछ भी सीरियस नहीं होता। पर पल भर के लिए निश्चिंतता और खुशी हासिल हो जाती है। समय बीतता चला गया। ट्यूशन क्लासेस आगे बढ़ती चली गईं। उस समय जो भी बातें होतीं, उन्हें या तो हम सब मस्ती में उड़ा देतीं या फिर नजरअंदाज कर देतीं। सर के क्लास से जाने के बाद हम सब खूब मस्ती करते, सर के पढ़ाने की स्टाइल, बोलने के तरीके और बीच-बीच में उनके खांसने आदि सब बातों की हम लोग नकल करते। अब जैसे-जैसे कोर्स समाप्ति की ओर बढ़ रहा था सर क्लासेस की छुट्टी अधिक करने लगे थे। पहले-पहले दो दिन, फिर चार-चार दिन और फिर दस दिन….ऐसे करते हुए छुटि्टयों के दिन बढ़ते चले गए। पर हम सब ने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि सर ऐसा क्यों कर रहे हैं। छुटि्टयों के बाद जब भी फिर से क्लासेस होतीं हम फिर से वही सब नकल उतारना, मस्ती करना शुरू कर देते।

मुझे याद है, मेरे कहने पर ही मेरी सभी सहेलियों ने वहां पर पढ़ना तय किया था। एक दिन अचानक ही क्लास लेते समय सर को बहुत जोर से खांसी आई। सर ने पानी पिया। रेस्ट किया और फिर अचानक से सब को घर जाने के लिए बोल दिया। उस समय मैं अपने माता-पिता से दूर अमरावती में पढ़ती थी इसलिए एकमात्र मेरे ही पास मोबाइल फोन था। इसलिए उन सर के पास केवल मेरा ही मोबाइल नम्बर था। क्लास का जो भी संदेश होता वे मुझे बोल दिया करते थे और मैं उनका संदेश बोल कर सभी दोस्तों को बता दिया करती थी।

अब अचानक छुट्टी मिलने के बाद से तकरीबन एक महीना होने जा रहा था किन्तु सर का कोई भी संदेश क्लासेस के बारे में मुझे नहीं मिला था। उस समय मेरा अपनी बुआ के घर पर आना-जाना होता रहता था। उस दिन भी मैं बुआ के अस्पताल में बैठी चाय पी रही थी। बुआ ने अचानक मुझ से पूछा-‘‘क्या, कैसी चल रही है तुम्हारी पढ़ाई? यहां किसके पास ट्यूशन पढ़ने के लिए आती हो?’’

बुआ का प्रश्न सुन कर मैंने उन्हें क्लासेस के बारे में पूरी जानकारी दी। अचानक से चौंकते हुए बुआ ने पूछा-‘‘क्या! क्या कहा तुमने? क्या नाम बताया अपने सर का?’’
मैंने बुआ को ऐसे रीएक्ट करते हुए देख कर पॉज लेते हुए कहा कि सर का नाम है-‘‘अमोल अम्बुलकर’’
नाम सुन कर बुआ ने उनका हुलिया बताया तो मैंने हां कहते हुए अपनी गर्दन हिलाई-‘‘हां, वही सर।’’
बुआ ने फिर से मुझ से प्रश्न किया-‘‘सारिका, क्या तुम्हें उन सर के बारे में सारी जानकारी है?’’
बुआ का ऐसा प्रश्न सुन कर मेंरे चेहरे पर प्रश्नवाचक भाव उभर आया और मैंने कहा, ‘‘हां……क्यों?’’
बुआ द्वारा पूछे गए उस प्रश्न का मतलब उस समय मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने समझा कि बुआ मुझ से सर के कैरियर आदि के बारे में पूछ रही हैं इसलिए मैंने ‘‘हां’’ कह दिया था। बुआ ने मुझे घर जाने के लिए कहा और मुझे बताया कि उन्हें अपने एक मरीज के पास जाना है। ये कह कर बुआ अपने मरीज को देखने के लिए चली गईं।

सात-आठ दिन बाद अपने सभी दोस्तों के कहने पर मैंने अपने मोबाइल से सर को कॉल किया। सर ने कॉल अटैण्ड किया तो मैंने उनसे पूछा-‘‘सर, क्या कल से हमारी क्लासेस होगी? हम कल से ट्यूशन के लिए आ जाएं? अब परीक्षा भी आने वाली हैं न, इसलिए पूछ रहे हैं।’’
सर ने जबाव दिया-‘‘ठीक है, कल तो ट्यूशन नहीं हो पाएगी। मैं कुछ जरूरी काम में लगा हूं। दो-तीन दिन बाद मैं स्वयं ही आपकोे कॉल करके बता दूंगा कि ट्यूशन के लिए कब से आना है।’’
सात-आठ दिन और बीत गए। इस बीच न तो सर का कॉल ही आया और न कोई अन्य संदेश ही। मैं भी इस बीच बुआ के यहां बुआ से मिलती और थोड़ी बहुत देर बातचीत करके चली आती। तब बुआ एक ही सवाल मुझ से पूछती-‘‘क्या तुम्हारी क्लासेस स्टार्ट हो गईं?’’

उस दिन घर जाते समय मैंने क्लास के सामने अपनी गाड़ी रोकी। वहां मुझे वो सर दिखाई दिए जो उस कोचिंग क्लासेज के ओनर थे। मैंने उनसे अम्बुलकर सर के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि अम्बुलकर सर की तबीयत कुछ ठीक नहीं है उन्हें इन्टेंस्टाइन की कुछ प्राब्लम है।

सुन कर मैंने उन सर को बोला-‘‘अच्छा, इसी बजह से शायद सर हम लोगों की छुटि्टयां ज्यादा कर देते हैं तथा हमेशा धीरे-धीरे बोलते हैं साथ ही चलते भी धीरे-धीरे ही हैं यानि अपनी उम्र के लिहाज से वे सभी कार्य विपरीत करते हैं। उनके पेट में भी अक्सर दर्द बना रहता है और खांसी भी आती रहती है। है न सर?’’

ऐसा बोलते हुए मैं हंस कर वहां से चल दी। दो-तीन दिन बाद सर को फोन करके मैंने पूछा कि सर कल सोमवार है, क्या कल हम लोगों को ट्यूशन आना है? आपकी तबीयत कैसी है अब?’’-
सर ने जबाव दिया-‘‘अभी ठीक हूं। आप सब लोग बुधवार को ट्यूशन आना।’’ इतना कह कर सर ने फोन रख दिया।
मैंने यह बात अपने सभी साथियों को बताई तो उन्होंने आने से मना कर दिया। मना करने के पीछे का कारण था कि इतनी अधिक छुटि्टयां करने के कारण उनका सर के प्रति भरोसा कम सा हो गया था। बुधवार के दिन मैं ट्यूशन के समय अकेली ट्यूशन के लिए गई। वहां पर खड़ी रिसेप्सनिस्ट से मैंने पूछा-‘‘अम्बुलकर सर हैं क्या? उन्होंने आज हमें ट्यूशन के लिए बुलाया था।’’
रिसेप्सनिस्ट ने जो कहा उसे सुन कर थोड़ी देर के लिए तो जैसे मेरे कान ही सुन्न हो गए हों। रिसेप्सनिस्ट ने कहा,-‘‘क्या! क्या कहा आपने? अम्बुलकर सर ने आज आने के लिए कहा आपसे?’’
मैंने अपना सिर हिलाते हुए ‘हां’ कहा।

‘‘देखिए आपको कुछ गलतफहमी हुई है क्योंकि जिन सर के बारे में आप कह रही हैं उनकी तो दो दिन पहले ही डैथ हो चुकी है और आज उनका तीसरा दिन है और बड़े सर आज उन्हीं के यहां तीसरे दिन के लिए गए हैं।
ये सुन कर जैसे मेरे पैरों तले की जमीन ही खिसक गई। मुझे लगा जैसे मेरे सारे शरीर का खून ही निचोड़ लिया हो किसी ने। जान ही निकल गई हो मेरी। खुद को सम्भालते हुए मैं बुआ के पास गई। बुआ को कोचिंग सेंटर पर हुई सारी बातें बताईं। तभी अचानक मुझे उस दिन बुआ द्वारा पूछे गए प्रश्न का मतलब समझ में आया। मैंने बुआ से कहा, ‘‘बुआ, आपको तो सब कुछ पता था न? आपने मुझे सब कुछ क्यों नहीं बताया था।’’

तब बुआ ने बताया कि अम्बुलकर मेरा ही मरीज था। उसे इन्टेंस्टाइन का कैंसर था। इसकी जानकारी भी उसे थर्ड स्टेज पर जाकर हुई। डॉक्टर्स ने उसे सब कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया था कि उसके पास छह से आठ महीने का समय है। तुम जब पहली बार अम्बुलकर से मिली थीं तभी उसे पता चल गया था कि मैं तुम्हारी बुआ हूं। जब वह कैमोथैरेपी लेने आया था तभी उसने तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया था। और मुझे अपने बारे में तुम्हें कुछ भी न बताने के लिए कहा था। उस दिन तुम से बात करने के बाद मैं अम्बुलकर से ही मिलने गई थी। वह अपनी जिंदगी का आखिरी पड़ाव जी रहा था। वह नहीं चाहता था कि उसके स्टूडेण्ट उसे ऐसी हालत में देखें। उस दिन जब अम्बुलकर के पास तुम्हारा फोन पहुंचा था तो मैं उसी के पास खड़ी थी।

बस इतना सुन कर मैं बुआ से कुछ भी न बोलते हुए अपनी गाड़ी लेकर अपने कमरे पर आ गई। उस दिन रातभर मुझे नींद नहीं आई। मेरा कहीं भी मन नहीं लग रहा था। मेरे दोस्तों के फोन आ रहे थे पर मैंने किसी से भी बात नहीं की। मन हकीकत मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। सब कुछ झूठा-झूठा लग रहा था। खुद पर, बुआ पर, सब पर गुस्सा आ रहा था। काश! उस दिन बुआ ने सब कुछ बताया होता तो आखिरी बार हम एक बार अपने सर से मिल लिए होते। जो भी मस्तियां करते हुए हम उनकी नकल उतारा करते थे उन सब के लिए हम उनसे माफी मांग लेते। सर ने बुआ से तो सब कुछ बोला था। मेरी शैतानियां, मेरी पढ़ाई की खूबियां और भी सब कुछ…..

दूसरे दिन सभी दोस्त मेरे कमरे पर आए। जब मैंने उन्हें अम्बुलकर सर के बारे में बताया तो सभी की अलग-अलग प्रतिक्रिया थी। कोई रो रहा था तो कोई अनजाने में की गई गलतियों के लिए खुद को जिम्मेदार समझ कर खुद को ही कोस रहा था। पर मैं……. मैं एकदम शांत थी। उस दिन न तो मैं कहीं गई और न कुछ किया ही। मन को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। मन में प्रश्नों का एक बबण्डर उठ रहा था। रात हुई। लाइट बंद करके जब मैं छत की ओर देख रही थी तभी फोन बजा। फोन को देखा तो उस पर लिखा आ रहा था-‘‘अम्बुलकर सर कॉलिंग’’

फोन को देखते ही मैं हड़बड़ा गई। अंदर से डर भी गई और खुश भी हो गई फिर डरते-डरते मैंने फोन उठाया और धीरे से हैलो कहा।
उधर से एक लड़की की आवाज आई। फोन पर अम्बुलकर सर की बहन बोल रही थी। उन दीदी ने मुझ से कहा कि लास्ट कॉल आपके नम्बर से थी इसलिए ये जानने के लिए कि भाई के फोन में ये किसका नम्बर है जो हमें पता नहीं है। आज के बाद ये फोन मां के पास होगा न, इसलिए उनकी जानकारी के लिए नम्बर सेव कर रहे थे।

मैंने उनसे कहा कि मैं उनकी स्टूडेंट हूं। कल ट्यूशन के लिए आना है या नहीं ये जानने के लिए सण्डे को मैंने कॉल किया था। और बस….इतना कह कर मैंने फोन रख दिया। पर जब मैंने सर का नाम अपने मोबाइल पर देखा था तब एक पल के लिए सब कुछ भूल कर खुश हो गई थी मैं। लगा था कि जो भी हुआ वह एक बुरा सपना था। जो टूट गया। पर ऐसा नही था। सच्चाई यही थी कि सर अब इस दुनिया में नहीं हैं। उस दिन मुझे मेरी गलतियां, मेरी नादानियां समझ आ गईं। उस दिन के बाद मैंने न तो किसी का मजाक बनाया और न किसी की तबीयत की हंसी ही उड़ाई। जिंदगी को मुझे कुछ सिखाना ही था तो ऐसे थप्पड़ मार कर सिखाने की क्या जरूरत थी।

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