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परिपक्व हुआ भारतीय मतदाता

परिपक्व हुआ भारतीय मतदाता

by अविनाश कोल्हे
in दिसंबर -२०१४
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भारतीय मतदाता प्रशंसा के पात्र इसलिए हैं, कि इनेगिने साठ-सत्तर बरसों में उन्होंने पुरानी निष्ठाओं को दूर हटाकर कार्यक्षमता, निर्मल चरित्र तथा भ्रष्टाचार मुक्त सरकार जैसी निष्ठाओं का स्वीकार किया है। परिवर्तित हुए और हो रहे इस मतदाता को तथा उसकी परिपक्वता को त्रिवार प्रणाम!

मई 2014 में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने जिस ढंग से अपने ही बलबूते 282 सांसदों को विजय दिलाई, उसके विभिन्न स्तरों पर बहुत सारे परिणाम हुए और हो रहे हैं। इतना ही नहीं आगे भी होते रहेंगे। कितने ही अध्येताओं ने अनुमान किया था, उसके अनुसार सन 1984 में हुए लोकसभा चुनावों के पश्चात् कोई भी राजनीतिक दल अपने ही बलबूते केंद्र में सत्ताधीश बन न पाया था। यह विजय उस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। फिर भी और एक महत्वपूर्ण बिंदू यही, कि भारतीय मतदाता अब अधिक परिपक्व बना है और वह धीरे-धीरे परंतु निश्चित रूप से धर्म, भाषा एवं वंश जैसी प्रेरणाओं से दूर चलते अच्छे प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करने लगा है। यह तथ्य भारत के लोकसभा चुनावों जैसी विशाल स्तर पर होनेवाली प्रक्रिया में विशेष रूप से उजागर नहीं होता, परंतु उसके पश्चात हुए हरियाणा और महाराष्ट्र की विधान सभाओं के चुनाव के दौरान वह ठोस रूप में दिखाई दिया। इसलिए इन दो विधानसभा चुनावों को लेकर समुचित चर्चा होना आवश्यक है।

महाराष्ट्र में सन 1989 से ही सेना-भाजपा का गठबंधन था, लेकिन इस चुनाव के आरंभ में ही 25 बरसों का यह गठबंधन भंग हुआ। ऐसा होते हुए भी भाजपा ने अपनी ही ताकत के सहारे महाराष्ट्र विधान सभा के 122 चुनाव क्षेत्रों में जीत हासिल की। उसके फलस्वरूप दि. 7 नवंबर को शाम 4.26 बजे देवेंद्र फडणवीस ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के नाते मुंबई के वानखेडे स्टेडियम में शपथ ग्रहण की। वह क्षण कई कारणों से ऐतिहासिक साबित हुआ। महाराष्ट्र में सन 1990 में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी थी, उसके पश्चात् अब भाजपा की सरकार अपनी खुद की शक्ति के बल सत्ता में प्रविष्ट हुई है। महाराष्ट्र में सन 1995 के बाद के पांच वर्ष सेना-भाजपा गठबंधन की सरकार तथा सन 1999 के बाद सीधे आजतक कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस मोर्चे की सरकार थी।

महाराष्ट्र में सन 1990 के बाद पहली ही बार मतदाताओं ने एक राजनीतिक दल के पक्ष में खुले हाथों मत दिए हैं, यही इस समय की गौर करनेलायक एकमात्र विशेषता नहीं। इस मतदान के माध्यम से जो मानसिकता सामने आई वह बहुत कुछ महत्वपूर्ण है तथा महाराष्ट्र की राजनीति पर दूरगामी परिणाम करनेवाली है।

इस परिवर्तन की मीमांसा करने, हमें स्वाधीनता पूर्व के काल की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को देखना होगा। इनमें से पहली घटना है, सन 1920 में नागपुर में संपन्न हुआ कांग्रेस का अधिवेशन। इस अधिवेशन के महत्वपूर्ण होने के कई कारण हैं। उनमें से पहला यही कि लोकमान्य तिलक के दि. 1 अगस्त 1920 को हुए महानिर्वाण के पश्चात् संपन्न होनेवाला यह पहला अधिवेशन था। इसी अधिवेशन में कांग्रेस के नेतृत्व के सूत्र महात्मा गांधी के हाथों में पहुंचे। इसी अधिवेशन में देश के स्वाधीन बनने के पश्चात् देश की पुनर्रचना करने के उद्देश्य से ‘एक भाषा-एक प्रांत’ सूत्र का स्वीकार किया गया। इसी क्रम में स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् न्यायमूर्ति फज़ल अली के नेतृत्व में एक आयोग गठित किया गया था। इस आयोग के प्रतिवेदन के अनुसार सन 1955 में देश की भाषाश: पुनर्रचना हुई और ‘एक भाषा-एक राज्य’ इस सूत्र के अनुसार लगभग 14 राज्य निर्माण हुए।

भाषाश: प्रांतरचना की चर्चा जारी थी, तब उस मांग को समर्थन देनेवाले नेता जैसे थे; वैसे ही उसे डटकर विरोध करनेवाले नेता भी थे। विरोध करनेवालों में से एक महत्वपूर्ण नेता थे वी. के कृष्णमेनन। उनके मतानुसार इस तरीके से भाषाश: राज्य अगर निर्माण किए, तो देशप्रेम की भावना पर उसका प्रतिकूल परिणाम होगा। मेननजी का कहना था कि भाषाश: प्रांत उपराष्ट्रवाद की पुष्टि करेंगे और आखिर चलकर राष्ट्रवाद के लिए हानिकारक होंगे। भाषाश: प्रांतरचना को विरोध करनेवाले दूसरे महत्वपूर्ण नेता थे डॉ. बाबासाहब आंबेडकर। उनकी धारणा थी कि भाषाश: प्रांतरचना अगर की गई, तो हर प्रांत में सत्ता काबीज करनेवाली कोई जाति निर्माण होगी और दूसरों को उस जाति की दहशत में दिन बिताने पड़ेंगे। ध्यान देनेलायक यही कि ऐसी इस दहशत से दलित समाज को भारी मात्रा में सहना पड़ेगा। नमूने के तौर पर महाराष्ट्र में ‘मराठा-कुणबी’ यह जाति राजनीतिक क्षेत्र में सभी खास-विशेष पदों पर कब्जा कर बैठेगी, क्योंकि महाराष्ट्र की कुल जनसंख्या में से बहुत बड़ा यानी 40 प्रतिशत का हिस्सा उसका है। जनतंत्र की प्रशासन यंत्रणा में संख्या का बड़ा महत्व होता है, इसे बाबासाहब भलीभांति जानते थे। बाबासाहब की चेतावनी को बड़ी सफाई से अनदेखा किया गया और ‘मुंबई सहित संयुक्त महाराष्ट्र’ दि. 1 मई 1960 को निर्माण हुआ। इसके साथ ही भाषाश: प्रांतरचना के बारे में बाबासाहब का भय भी सही ठहरा।

संयुक्त महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण से लेकर अभी कल तक मुख्यमंत्री रहे पृथ्वीराज चव्हाण तक लगभग सभी मुख्यमंत्री मराठा थे। नियम के अपवाद के रूप में यहां भी कुछ अपवाद बताए जा सकते हैं। सन 1962 यशवंतराव के दिल्ली जाने पर विदर्भ के मारोतराव कन्नमवार मुख्यमंत्री बने, पर दुर्भाग्य से सालभर में ही उनका देहांत हुआ। इनेगिने एक वर्ष तक वे मुख्यमंत्री रहे। मारोतराव कन्नमवार बेलदार समाज के थे। उनके बाद विदर्भ में से ही यवतमाल के वसंतराव नाईक मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हुए। वसंतराव नाईक ‘गोर बंजारा’ समाज में से थे। वसंतराव नाईक के पश्चात् मराठवाड़ा में से मराठा समाज के शंकरराव चव्हाण, उनके बाद पश्चिम महाराष्ट्र में से वसंत दादा पाटील हो या बारामती के शरद पवार हो, ये सभी लोग मराठा समाज के ही थे। इनके अतिरिक्त विलासराव देशमुख, शिवाजीराव पाटील निलंगेकर आदि भी मराठा समाज के ही थे। सुशीलकुमार शिंदे ये दलित समाज के प्रतिनिधि इनेगिने एक वर्ष मुख्यमंत्री पद पर आसीन थे। बालासाहब ठाकरे का काम करने का ढंग काफी कुछ इंदिरा गांधी से मिलता जुलता था। उन्होंने सन 1995 में सत्ताधीश बनी गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री पद के लिए ब्राह्मण जाति के मनोहर जोशी को पसंद किया। फिर भी इन सभी मामलों को अपवाद रूप में ही गिनना अच्छा, क्योंकि बालासाहब का काम करने का ढंग ही कुछ अनोखा था।

मराठा जाति की प्रभुसत्ता को लेकर एक तथ्य पर गौर करना चाहिए। सन 1997 में दिल्ली में इंदिरा गांधी को हराकर जनता दल की सरकार जब बनी थी, लगभग उसी समय महाराष्ट्र में शरद पवार ने बगावत की और अपने विधायकों के साथ वे कांग्रेस से बाहर निकले और कांग्रेस (एस्.) की स्थापना की। शरद पवार से एस. एम. जोशी के नेतृत्व वाले जनता दल के साथ गठबंधन किया और पुरोगामी लोकशाही दल (पुलोद) की स्थापना कर मुख्यमंत्री बने। उस समय शरद पवार की उम्र सिर्फ 36 वर्ष की ही थी। पुलोद में शरद पवार की कांग्रेस (एस.) के विधायकों की अपेक्षा जनता दल के विधायक बहुत बड़ी संख्या में थे। तब किसी एक पत्रकार ने एस. एम. जोशी से सवाल किया, ‘अण्णाजी! आपके दल के विधायक शरद पवार के दल से बहुत ज्यादा हैं। ऐसी हालत में आप ही को मुख्यमंत्री बनना चाहिए।’ उस पर एस. एम. जोशीजी ने जो कहा वह गौर करनेलायक ही था। अण्णाजी ने कहा, ‘ब्राह्मणों में से कोई भी अगले पचास बरस महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने का सपना न देखें!’

भाजपा ने आज यानी सन 2014 में एस. एम. जोशीजी के भविष्यकथन को गलत साबित किया है। ऐसा कहते, किसी व्यक्ति की अवहेलना करने का इरादा नहीं। इसके विपरीत अपने राज्य की राजनीति अब जाति-पांति, भाषा, प्रांत आदि की सीमाएं लांघकर कार्यक्षमता, अध्ययनशीलता तथा ‘निर्मल चरित्र’ आदि महत्वपूर्ण विषयों की ओर मुड़ रही है, इसे देखते हर्ष हो रहा है। इसीलिए दि. 7 नवंबर की शाम नए मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने ‘मैं देवेंद्र गंगाधरराव फडणवीस’ ऐसा नामोच्चारण वानखेडे स्टेडियम पर खुले आम जब किया, तब उपस्थित सभी हृदय से आनंदित हुए। लगभग तीन से चार प्रतिशत जनसंख्या वाले ब्राह्मण समाज में से एक युवक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर विराजमान हुआ है। महाराष्ट्र का समझदार मतदाता अब धीरे-धीरे अलग ढंग से सोचने लगा है, इसका प्रमाण उस दिन मिला लगता है।

ऐसा ही कुछ हरियाणा में भी हुआ। उत्तर भारत के कई राज्यों के समान हरियाणा में भी जाति-पांति की विषम राजनीति है। उसी तरह उत्तर भारत के कई राज्यों के समान ही वहां भी घरानेशाही बड़ी मात्रा में है। उत्तर भारत की राजनीति की दृष्टि से तथा कुल मिलाकर सारे देश की राजनीति की दृष्टि से हरियाणा राज्य का कुछ खास महत्व माना नहीं जाता। लोकसभा में हरियाणा में से इनगिने दस सांसद चुने जाते हैं। भाजपा ने अच्छा प्रशासन तथा कांग्रेस सरकार का भ्रष्टाचार आदि विषयों पर प्रचार करते बल दिया था। पिछले दस बरस हरियाणा में कांग्रेस की सरकार थी। सन 1966 से कितने ही बरस यह राज्य महाराष्ट्र के समान कांग्रेस का गढ़ ही माना जाता था। लेकिन सन 1990 के दशक में इस राज्य में प्रादेशिक दल बढ़ते ही गए। राष्ट्रीय दल में न होने वाले हर एक बड़े नेता का अपना दल है। विधान सभा के चुनावों के बाद सौदेबाजी खुले आम चलती है। हरियाणा की राजनीति की तस्वीर इस ढंग की है।

अभी हाल में हरियाणा की कांग्रेस सरकार के कामकाज पर बार-बार चर्चा होने लगी, क्योंकि उसने सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वडरा को बडे पैमाने पर भूखंड बहाल किये। इस लेनदेन के दौरान भारी मात्रा में भ्रष्टाचार हुआ, ऐसी चर्चा सभी ओर होने लगी। श्री रॉबर्ट वडरा को वाम मार्ग से जमीन दिलाने में पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदरसिंग हुडा ने पहल की ऐसा भी आरोप लगाया गया। राबर्ट वडरा को बहाल किए गए भूखंडों के व्यवहार की जांच करने का खुला वादा भाजपा ने किया है। ऐसा ही वादा राजस्थान विधान सभा चुनावों के दौरान भाजपा ने किया था और सत्ताधारी बनने पर राजस्थान सरकार ने उसके अनुसार जांच करना आरंभ किया है।

हरियाणा के चुनावों का माहौल गरमा रहा था, उस समय भाजपा के सामने ढेर सारी कठिनाइयां खडी थीं। महाराष्ट्र के समान ही हरियाणा के बहुत से चुनाव क्षेत्र में चौरंगी-पंचरंगी मुकाबले हुए। भाजपा जैसा राष्ट्रीय दल स्थानीय स्तर पर तू-तू-मैं-मैं के स्तर पर खेली जानेवाली राजनीति चला नहीं सकता। उसके फलस्वरूप उस अर्थ में यह विधान सभा चुनाव माने भाजपा के लिए एक चुनौती ही होगी ऐसा भी एक अनुमान था। साथ ही और एक बाधा ऐसी थी, कि सभी को पसंद होनेवाला ऐसा नेता भाजपा के पास हरियाणा में न था। हरियाणा में राजनीति पर प्रभाव होनेवाली दो जातियां हैं- जाट और दलित समाज। इन दोनों जातियों में से किसी एक भी जाति का नेता भाजपा के पास नहीं था, जो कहीं नामवरी प्राप्त हो। ऐसा होते हुए भी आज भाजपा हरियाणा में अपने ही बलबूते सत्ताधीश बनी है।

हरियाणा का पुराना एवं महत्वपूर्ण प्रादेशिक दल माने स्व. देवीलाल द्वारा स्थापित और आज उनके बेटे ओमप्रकाश चौटाला के कब्जे में वाला ‘इंडियन नेशनल लोकतांत्रिक दल’। पिछले कुछ वर्ष यह दल लगातार फिसल रहा था, लेकिन सन 2009 के हरियाणा विधान सभा चुनावों में इस दल ने खासी कमाई की थी। आज इस दल के सर्वेसर्वा ओमप्रकाश चौटाला हैं। ये महाशय भ्रष्टाचार के अपराध में जेल भुगत रहे हैं। ऐसा होते हुए भी अपनी जाति पर यानी जाटों पर उनका काफी बड़ा प्रभाव है। अन्य जानेमाने दलों की अपेक्षा कांग्रेस यह जाति-पांति की राजनीति भलीभांति जानती है। उसके फलस्वरूप विद्यमान मुख्यमंत्री भूपिंदरसिंग हुडा भी जाट जाति के थे, इसमें कुछ संदेह नहीं। जाट जाति का हरियाणा में होनेवाले महत्व पर गौर करते हुडा महाशय ने अपना प्रचार जाटों का प्रभुत्व वाले चुनाव क्षेत्रों पर केंद्रित किया था।
हरियाणा में कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार भाजपा का निशाना था, साथ ही चौटाला के भ्रष्ट कारनामों पर भी था। आज चौटाला अध्यापकों की भर्ती के मामले में हुए भ्रष्टाचार के अपराध में दस वर्ष का कारावास भुगत रहे हो, तो भी ‘स्वास्थ अच्छा नहीं’ का बहाना करते वे प्रचार करने जमानत पर रिहा हो बाहर आए थे। बड़े जोरशोर से उन्होंने प्रचार किया।

शुरू शुरू में कुछ अध्येताओं की राय थी कि महराष्ट्र के समान हरियाणा में भी त्रिशंकू विधान सभा होगी। इसमें भाजपा यदि सबसे बड़ा दल हो, तो भी सरकार बनाने उसे चौटाला से शायद सहायता मांगनी होगी। बाहर से होनेवाली इस सहायता की मात्रा काफी कुछ कम हो, इस हेतु-भाजपा नेता डटकर प्रयास कर रहे थे। हरियाणा की जनता भी गुजरात के समान विकास ही चाहती है। इसी कारण प्रधान मंत्री मोदी जी की सभाओं में अभूतपूर्व उपस्थिति हुआ करती थी।

मई 2014 के लोकसभा चुनावों के पश्चात् जुलाई और अगस्त में बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में कुछ स्थानों पर उपचुनाव हुए। उसमें भाजपा कुछ खास सफलता पा न सकी। उसके परिणास्वरूप ‘मोदीजी की लहर मद्धिम पड़ी’ ऐसा कुछ प्रचार होने लगा। लेकिन अब अक्टूबर 2014 में हुए महाराष्ट्र और हरियाणा विधान सभा चुनावों के नतीजों ने कुछ नया संदेश पहुंचाया है।

इसके पीछे कुछ सामाजिक कारण भी हैं। दूसरे विश्व युद्ध के विश्व के इतिहास पर कितने ही बुरे-भले परिणाम हुए। उनमें से एक अच्छे परिणाम के रूप में एशिया और अफ्रीका खंडों के उपनिवेशों को स्वाधीनता प्राप्त हुई। इसी को उपनिवेशभंग प्रक्रिया कहा जाता है।
भारत जैसे पिछड़े देश में शुरू-शुरू में राजनीति का रूप जाति-पांति और धर्म, भाषा आदि घटकों पर आधारित होना किसी तरह अपरिहार्य था। भारतीय मतदाता प्रशंसा के पात्र इसलिए हैं, कि इनेगिने साठ-सत्तर बरसों में उन्होंने पुरानी निष्ठाओं को दूर हटाकर कार्यक्षमता, निर्मल चरित्र तथा भ्रष्टाचार मुक्त सरकार जैसी निष्ठाओं का स्वीकार किया है। परिवर्तित हुए और हो रहे इस मतदाता को तथा उसकी परिपक्वता को त्रिवार प्रणाम!
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