माओवादियों की बढ़ती हिंसा को रोकने के उपाय

लोकसभा के लिये पहले चरण का मतदान होने के कुछ घंटे पूर्व छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में माओवादियों द्वारा हमला कर विघ्न डालने का प्रयास किया गया। भाजपा के विधायक भीमा मांडवी सहित चार पुलिस कर्मचारियों की मौत इस हमले में हुई है। दंतेवाड़ा एवं बस्तर में मतदान का बहिष्कार करने के पत्रक बांटे गये थे। इसके बाद वहां सुरक्षा बढ़ाई गई। राजनीतिक नेताओं पर हमले के इतिहास को देखते हुए सुरक्षा व्यवस्था चौकस थी। परंतु इन सब पर मात कर माओवादियों द्वारा हमला किया गया। लोकतंत्र विरोधी माओवादियों की ओर से और भी हमले होने की संभावना है।
2013 के विधान सभा निर्वाचन के दौरान यहीं की दरभा घाटी में माओवादियों के हमले में राज्य कांग्रेस का नेतृत्व ही लगभग खत्म हो गया था। उस महले में महेन्द्र वर्मा, विद्याचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल सहित 26 लोगों की मौत हो गई थी। तब राज्य में भाजपा का शासन था। अब कांग्रेस का शासन है। इस कारण, सुरक्षा के विषय में ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता है।
हिंसा एवं केवल हिंसा –

दक्षिण गडचिरोली यह अत्यंत संवेदनशील भाग है। पुलिस द्वारा आदिवासियों को सुरक्षा का विश्वास दिलाये जाने के कारण आदिवासी मतदान हेतु मतदान केंद्र पर आने लगे हैं। इसके कारण नाराज माओवादियों ने आगेझरी मतदान केंद्र के बाहर आई.डी. से विस्फोट किया। ऐटापल्ली से कुछ किलोमीटर दूर पुरसलगोंदी में मतदान प्रक्रिया पूर्ण कर वापस लौट रही मतदान पार्टी पर माओवादियों द्वारा निशाना साधा गया। बिछाई गई आई.डी. का विस्फोट करते हुए गोलीबारी भी की गई। इसमें दो जवान घायल हुए। बाद में इन जवानों को हेलीकॉप्टर से अस्पताल ले जाते समय भी माओवादियों द्वारा पुन: गोलियां चलाई गई। जवानों की जवाबी कार्यवाही में माओवादी भाग खड़े हुए। तिसरी घटना धानोरा तहसील के तुमडीकसा मतदान केंद्र पर घटी। दोपहर 3 बजे मतदान समाप्त होने के बाद मतदान पार्टी को जब पुलिस सुरक्षा में धानोरा ले जाया जा रहा था, तब वहां छिपे हुए माओवादियों द्वारा गोलीबारी की गई। चौथी घटना एटापल्ली तहसील में घटित हुई।

चितोड़ा में मतदान समाप्त होने के बाद जब चुनाव पार्टी जांभिया गट्टा की ओर जा रही थी तब माओवादियों द्वारा गोलीबारी की गई। इसी मार्ग पर चार आई.डी. बम बिछाये गये थे। इस विषय में जानकारी मिलने पर उन्हे निष्क्रिय किया गया।
छत्तीसग़ढ़ के कांकेर जिले में माओवादियों के साथ हुई झड़प में सीमा सुरक्षा बल (बी एस एफ) के चार जवान शहिद हो गये। छत्तीसग़ढ़ की भैरम घाटी के जंगलों में माओवादियों के प्रशिक्षण केंद्र पर आक्रमण में दस माओवादी मारे गये।
भारत सरीखे महाप्रतापी देश को मुठ्ठी भर माओवादी ललकार रहे हैं, जब चाहे तब हिंसा के माध्यम से दहशत फैलाते है, यह हमारे लिये शर्मनाक है।
बस्तर के मतदाताओं का धन्यवाद
हमले में मारे गये विधायक स्थानीय आदिवासी जमात से उभरा एक नया नेतृत्व था। उनका मारा जाना यह दु:खद एवं इस घटना का महत्वपूर्ण भाग है। ऐसी घटनाओं के बाद सरकारों में थोड़ी हलचल होती है, सुरक्षा तंत्र को मजबूत बनाने की बात होती है, उन्हे क्या चाहिये, क्या नही चाहिये, इसकी पूछताछ होती है एवं बाद में थोड़ेेे समय इन सब पर चर्चा होती है। अच्छी बात याने विधायक मांडवी की मृत्यु के बाद भी 11 अप्रैल को बस्तर में 57% मतदान हुआ। वहां के मतदाताओं का आभार जताना लाजमी है।

माओवाद से ग्रस्त भागों में बड़े पैमाने पर होने वाला मतदान भारतीय मतदाताओं का लोकतंत्र पर अटल विश्वास का प्रतीक है। परंतु कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता, संगठन एवं कट्टर वामपंथी विचारक अभी भी माओवादी कार्रवाईयों को सही ठहराते हुए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनका समर्थन करते हैं। माओवादी वनवासीयों को जमींदारों से, साहुकारों से होने वाले शोषण से बचाते हैं, यह दावा बिलकुल गलत तथा पोला है। वनवासी भाग में रास्ते, पुल, स्कुल, अस्पताल आदि की निर्मिती में माओवादी रोड़े अटकाते हैं। बांधे गये रास्ते, स्कुल,, अस्पताल इनको बम से उड़ाने का काम भी माओवादी करते हैं।

पुलिस एवं सुरक्षा तंत्र की असफलता

माओवादियों का सफाया करने के लिए चालीस वर्ष पूर्व सुरक्षा बलों की तैनाती की गई थी। फिर भी ‘यह भाग अभी सुरक्षित नहीं’ यह सुरक्षा बलों का कहना ही उनकी सबसे बड़ी असफलता है। फिर इस सुरक्षा तंत्र ने क्या किया? ऐसा प्रश्न उपस्थित होता है। चुनाव के समय राजनीतिक नेता प्रचार हेतु इन दुर्गम भागों में जायेंगे ही, यह मानकर

आवश्यक उपाय योजनाओं के अंतर्गत 80 हजार जवान बस्तर में तैनात किये गये। फिर भी पुलिस थाने से मात्र चार किलोमीटर दूर बम विस्फोट हो रहे हैं, या आस पड़ोस के गांवो के तरूणों के क्रिकेट खेलने के स्थान पर माओवादी सहज रूप से विस्फोटक दबा कर रख रहे हों तो यह सुरक्षा तंत्र की अक्षम्य गलती है।

आदिवासी भाग का कायाकल्प

गत कुछ वर्षों में राज्य सरकार, सुरक्षा बल और जनसहयोग के कारण बस्तर के साथ ही पड़ोसी राज्यों के आदिवासी भागों का कायाकल्प होने की शुरूवात हुई है। दंतेवाड़ा में माओवादियों के हमले में अनाथ हुए बच्चों के लिये एक करोड़ रूपयों से एक निवासी शाला अस्तित्व में आई है। इसी प्रकार कौशल्य प्रशिक्षण केन्द्र और वहां के युवकों से भी संवाद स्थापित किया गया है। छत्तीसग़ढ़, झारखंड, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में प्राकृतिक संसाधनों की चोरी रोकने के लिये रेल्वे लाईन, सड़के एवं राजमार्ग बनाने का काम किया जा रहा है। इससे इस आदिवासी भाग में बदलाव शुरू हो गया है।

राजनीतिक दल माओवादियों के खिलाफ बोलने को तैयार नही

राजनीतिक दल अपने हिसाब से एवं वोटों की राजनीति के कारण माओवादियों के विरूद्ध बोलने को तैयार नही होते हैं। भारतीय जनता पार्टी की माओवाद के विरूद्ध नीति सही एवं स्पष्ट है। भाजपा की राज्य में माओवाद के विरूद्ध लड़ाई ठीक तरीके से चल रही है।

कम्युनिस्ट पार्टियां माओवादियों के साथ तालमेल बनाना चाहती थी परंतु उनके सैकड़ो कार्यकर्ताओं की माओवादियों द्वारा की गई हत्या के कारण उन्हे समझ आई। ममता बॅनर्जी ने माओवाद नामक इस भस्मासुर का उपयोग राज्य में कम्यूनिस्टों को हटाने में किया। बिहार में नीतीश की सरकार एवं ओड़ीसा में पटनायक सरकार इस विषय में मौन धारण किये है। माओवादियों की हिंसा बढ़ने पर ही उन्हे समझ आयेगी। लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह वगैरे नेताओं का बीच-बीच में माओवादियों के प्रति प्रेम उमड़ता है। अर्थात उसकी किमत होती है हजारों बेकसूर आदिवासीयों की माओवादी हिंसा में मौत।

माओवाद के विषय में अपनी नीति स्पष्ट करने में अधिकतर राजनीतिक दल घबराते हैं। माओवादी हिंसा पर किस प्रकार काबू पाया जाय, इस पर अभी भी देश में सहमति नही है। देश के राजनीतिक दल इन हत्याओं से कोई भी सबक सीखने को तैयार नही है। सुरक्षा की इस स्थिति का क्या कोई राजनीतिक दल समझने को तैयार है? राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु सभी के पास क्या कोई समान कार्यक्रम है क्या?

लोकतंत्र पर संकट

बंदुक एवं बम पर विश्वास रखने वाले माओवादियों को लोकतंत्र उनके मार्ग का एक बड़ा रोड़ा लगता है। कोई भी बदलाव शांति के मार्ग से हो सकता है, इस बात पर उनका विश्वास ही नही है इसलिए सामान्य व्यक्तियों को लोकतंत्र के मार्ग से मिले अधिकार उन्हे अपने मार्ग में विघ्न नजर आते हैं।

माओवादी अपने प्रभाव क्षेत्र पर अपना प्रत्यक्ष नियंत्रण रखते हैं। बहिष्कार के घोषणा की आड़ में वे किसी विशिष्ट उम्मीदवार का समर्थन करते हैं। बदले में ऐसी हिंसक कार्रवाईयों को इन नेताओं का समर्थन मिलता है।

क्या करना चाहिये?

प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों की पर्याप्त संख्या है परंतु वे स्वत: के बचाव में ही लगी रहती है। उनका आक्रामक होना आवश्यक है। एक ही समय में सभी राज्यों द्वारा माओवादियों के खिलाफ यदि अभियान चलाया जाता है तो उसमें सफलता मिलेगी। सबसे महत्वपूर्ण याने सुरक्षा बलों के नेतृत्व में अभियान का नेतृत्व करना चाहिए। यदि नेतृत्व कंट्रोल रूम या हेडक्वार्टर में बैठकर किया जाता है तो सुरक्षा बल कभी भी आक्रामक नही होंगे।
उच्च-सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा हिंसक माओवादियों को कड़ी सजा देने के संदर्भ में कानून बनाने का विचार करना होगा। भारतीय लोकतंत्र को माओवाद यह सबसे बड़ा खतरा है। इसलिये देश का प्रत्येक गांव भय मुक्त होगा यह संकल्प लेना पड़ेगा। माओवाद के विरूद्ध लड़ाई अनेक मोर्चों पर लम्बे समय तक लड़नी पड़ेगी। ऐसी दृष्टी एवं क्षमता यदि राजनीतिक नेतृत्व में हो तो ही बुलेट के विरूद्ध बॅलेट प्रभावी होगा। जो भी राजनीतिक दल व नेता माओवाद के विरूद्ध लड़ने को तैयार न हो उन्हे जनता द्वारा मत न देकर सबक सिखाना चाहिये।

This Post Has 2 Comments

  1. Anonymous

    Will compromise within some definite limits and within framework of our Constitution to offer more autonomy…instead of stiff confrontation…not be an alternative worth trying out ? Casualties happen on both the sides.

  2. Anonymous

    मुझे लगता है कि उन लोगों के बिच जाकर जिहदी जैसे हमला करना होगा।

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