‘सेवा संस्कार’ समाज मन में अवतीर्ण हो!

समाज के सब से अंतिम स्तर तक उन्नति का प्रभाव पहुंचाना ही सेवा कार्य का प्रमुख उद्देश्य है। इसी कर्तव्य भावना से ओतप्रोत होकर आज समाज के विभिन्न क्षेत्रों में हजारों व्यक्ति सेवा कार्य कर रहे हैं। समाज की उन्नति की आकांक्षा अपने अंतःकरण में जगा कर, उसके लिए अविश्रांत परिश्रम करने की ध्येय निष्ठा से ‘सेवा’ एक शक्ति के रूप में देश में फैली है। अपना समाज अनेक प्रकार की विकृतियों और कुरीतियों से पीड़ित है। सामाजिक-आर्थिक विषमताओं से ग्रस्त है। लाखों लोग न्यूनतम शिक्षा, सामान्य चिकित्सा से आज भी वंचित हैं। दु:ख, दैन्य, दरिद्रता जैसे अनेक भेदों से सामाजिक जीवन अत्यंत खोखला बन चुका है। इस प्रकार की अनेकानेक व्यथा-पीड़ाओं को जन्म देने वाला समाज जीवन ही बहुत बड़ी व्यथा है।

‘नर सेवा, नारायण सेवा’ का भाव ही जीवन की व्यथा का एकमात्र उपाय हो सकता है। और, यह भाव ही दुख-भेदों से विरहित एकरस समाज का निर्माण कर सकता है। इस कर्तव्य भावना से ओतप्रोत होकर हजारों सेवाभावी व्यक्ति समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सेवा कार्य कर रहे हैं। इस ‘सेवा विशेषांक’ पर कार्य करते समय सेवा कार्य के प्रत्यक्ष यज्ञ कुंड में ‘समिधा’ समान अपना जीवन समर्पित करने वाले सेवाभावी व्यक्तित्वों से मिलना हुआ तब एक बात ध्यान में आई कि दु:ख मुक्त समाज केवल भाषणबाजी का विषय नहीं है या केवल लेखन का विषय नहीं है। सेवा आचरण का तत्व है। ‘मैं नहीं तू ही’ का गहन आध्यात्मिक अर्थ है। समाज में फैली हुई पीड़ा सेवाभावी व्यक्तियों के अंतःकरण में स्थित आत्मीयता एवं कर्तव्य भाव को झकझोर देती है। समाज का जो दीन-दलित, जरूरतमंद वर्ग नित्य जीवन में संकटों से जूझ रहा है, अपने परिवार की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कष्टों का पहाड़ उठा रहा है, आवश्यक स्वाथ्य सेवा के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है, जीवन को आकार और आधार देने वाली शिक्षा से वंचित है,लाखों व्यक्ति नित्य-जीवन में सामाजिक उपेक्षा का भक्ष्य बने है; ऐसे लाखों जन सामान्यों के लिए विभिन्न सेवाकर्मी, सेवा संस्थान सेवा कार्य कर रहे हैं। वे सब अपनी क्षमता के अनुसार समाज की दुर्बलता का निवारण करने का कार्य कर रहे हैं। इन सेवा कार्यों से हो रही कोशिशों का सार एवं उद्देश्य भी यही है कि, ‘स्वाभिमानी एवं आत्मनिर्भर समाज का निर्माण हो।’ इस धुन से झंकृत संदेश को लेकर हजारों सेवा कार्य आज देशभर में चल रहे हैं।

अपने संत हमेशा कहते रहे, ईश्‍वर की कृपा दृष्टि से दुनिया को व्याप्त कर दो, प्यार को सेवा में परिवर्तित करो, शिवभाव से जीव की सेवा करो। सेवा का भाव प्रस्तुत करने वाले ऐसे वचन अपने प्राचीन वाङ्मय में पन्ने-पन्ने पर हैं। परंतु जब तक इन वचनों के समान हमारा व्यवहार नहीं होता है, तब इनसे चैतन्य नहीं आ पाता है। अपना वेदांत, मानव प्रेम, मानव धर्म, निसर्ग, मानवीय सेवा से जुड़ा विचार, समाज के दु:खी जनों की सेवा से ही प्रत्यक्ष रूप में फलीभूत होता है। मनुष्य में ईश्‍वर देखने की और उस ईश्‍वर रूपी समाज की सेवा करने की भावना को बलवती करने का कार्य सेवा संस्थाएं व सेवा कर्मी कर रहे हैं।
आज दुष्ट और विध्वसंक शक्तियां समाज में अपना प्रभाव दिखा रही हैं। अनाचार और दुराचार जैसी बातों से समाज का स्तर निम्नतर हो रहा है। ज्ञान-अज्ञान, श्रद्धा- अंधश्रद्धा जैसे द्वंद्व फैल रहे हैं। समाज अंदर से खोखला होता दिखाई दे रहा है। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की भावना वाले पुरूषार्थों से धर्म और मोक्ष का विचार समाज मन से दूर जा रहा है। अर्थ और काम मनुष्य पर सवार हैं। आज आधुनिकता से बहुत ज्यादा सुविधाओं का निर्माण हुआ है। पर विज्ञान कितना भी प्रगतिशील हो परंतु इन सुविधाओं से मनुष्य को मानसिक संतोष नहीं मिल रहा है। अंतर्मन में भावनाओं का द्वंद्व मनुष्य को चैन से जीने नहीं दे रहा है। समाज में अनेक समस्याएं गहनता से फैल रही हैं। राजनैतिक परिवर्तन इन समस्याओं की गहराई तक पहुंचने में अक्षम है। राजनैतिक बातें ऊपरी इलाज साबित होंगी। मनुष्य भीतर से परिवर्तित होना चाहिए। मनुष्य में परिवर्तन आए बिना, सही मायने मे सामाजिक जीवन में बदलाव महसूस नहीं होगा। व्यक्ति व्यक्ति में विवेक भाव जागृत होना आवश्यक है। विवेक भाव की जागृति के लिए समाज में सामाजिक पुरुषार्थ का स्तर बढ़ाना आवश्यक है।
समाज सेवा के अंतर्गत सकारात्मक प्रयत्नों की दृष्टि से सामाजिक पुरुषार्थ को जिस सक्षमता से समाज के सामने प्रतिस्थापित किया जाएगा, उतना ही अधिक लाभ समाज को प्राप्त होगा। इस ‘सामाजिक पुरुषार्थ’ के महत्वपूर्ण पहलू होते हैं ऐसे कार्यों के पीछे कौन सी प्रेरणा है? यह कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं का निश्‍चय कितना मजबूत है? समाज द्वारा सामाजिक सहयोग के कितने अवसर उपलब्ध कराए गए हैं? समाज के प्रति संवेदना को संक्रमित करने हेतु कैसी कल्पनाशील रचनाओं का निर्माण सेवा कार्यों ने किया गया है? जहां सेवा कार्य चल रहे हैं, वहीं सेवा कार्यों का वातावरण निर्मित होकर सेवाव्रती समाज में कौनसे संस्कार लेकर जा रहे हैं। सेवा की यही परंपरा भविष्य में भी जारी रहनी चाहिए और उससे एक श्रेष्ठ सांस्कृतिक, सामाजिक, सेवामय जीवन मूल्यों के संस्कार समाज मन पर अवतीर्ण हों, इसी एकमात्र आकांक्षा से ‘हिंदी विवेक’ यह ‘सेवा विशेषांक’ अपने पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा है।
इस ‘सेवा विशेषांक’ में प्रस्तुत प्रत्येक आलेख और सेवा के प्रति समर्पित व्यक्तियों के साक्षात्कार समाज के दर्द का दर्शन कराने के साथ ही साथ परिवर्तन का मार्ग भी बताते हैं। सुसंगठित, एकात्म, समृद्ध, एकरस और समरस समाज का चित्र भी प्रस्तुत करते हैं। समाज में जो दर्द है, जख्म है; उसे समाज को ही अपनी आंतरिक शक्ति द्वारा दूर करना पड़ता है।/ उस आंतरिक शक्ति को जगाने का, उसे सदृढ बनाए रखने का विचार सेवा कार्यों के माध्यम से चल रहा है। इन विचारणीय सेवा कार्यों के कुछ उदाहरण ‘सेवा विशेषांक’ के माध्यम से ‘हिंदी विवेक मासिक पत्रिका’ ने प्रस्तुत किए हैं। उन प्रयासों और मार्मिक मूल्यों को ‘सेवा विशेषांक’ के द्वारा आपके सम्मुख प्रस्तुत करते समय ‘हिंदी विवेक’ के सभी कर्मचारी वर्ग को कर्तव्यपूर्ति का आनंद भी अनुभव हो रहा है।

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