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 कानून की विजय हुई है!

 कानून की विजय हुई है!

by अमोल पेडणेकर
in सामाजिक, सितंबर- २०१५
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मुंबई में शृखंलाबद्ध विस्फोट कराकर २५७ निर्दोष लोगों की जान लेने वाले देशद्रोही षड्यंत्र के सूत्रधार याकूब मेमन को फांसी की सजा दी गई। लेकिन प्रश्न यह उपस्थित किया जा रहा है कि क्या यह फैसला संतोषजनक है? वस्तुतः यह प्रश्न किसी की संतुष्टि या असंतुष्टि का नहीं है। प्रश्न है कानून की जीत हुई है या नहीं हुई है। किंतु, यह जान लेना चाहिए कि याकूब मेमन को फांसी की सजा की पुष्टि करने वाला निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ने दिया और भारतीय न्यायप्रणाली का पारदर्शी स्वरूप विश्व ने एक बार फिर देखा।

१९९३ के मार्च महीने में मुंबई में शृखंलाबद्ध बम विस्फोट करवाकर २५७ लोगों की जान लेने वाले, हजारों को जीवनभर के लिए विकलांग करने वाले और मुंबई में आतंक का माहौल पैदा करने वाले नराधमों में से याकूब मेमन एक है। इस पृष्ठभूमि में याकूब मेमन को जल्द से जल्द फांसी दी जाने की भारतीय जनता की आग्रहपूर्वक भूमिका थी। वास्तव में देश के सभी स्तरों के न्यायालयों में उसकी फांसी कायम हुई थी। अपने देश के संविधान के ढांचे के अंतर्गत, सभी साक्ष्यों और सबूतों को जांचने के बाद, फांसी के दिन बिल्कुल भोर तक न्याय की परिधि का अध्ययन करने के बाद ही फांसी की सजा निश्चित की गई। राष्ट्रपति ने भी उसकी दया याचिका ठुकरा दी। हर तरह की कानूनी प्रक्रिया पूरी करने और सभी विकल्पों की जांच करने के बाद ही याकूब की फांसी की सजा कायम की गई। अंततः न्यायालय के आदेश के अनुसार महाराष्ट्र सरकार ने याकूब मेमन को फांसी चढ़ा दिया।

याकूब मेमन सैंकड़ों लोगों की जान लेने वाले व हजारों नागरिकों की गृहस्थी तबाह करने वाले देशद्रोही षड्यंत्र में शामिल एक अपराधी था। जैसे ही याकूब को फांसी निश्चित होने की खबर आई, कई लोगों को याकूब मेमन के मुसलमान होने का साक्षात्कार हुआ। कहा जाने लगा कि याकूब मुसलमान होने से ही उसे फांसी दी जा रही है। याकूब को फांसी दी जाने से कितना घोर अन्याय हुआ है, इसका हल्ला मचाने वालों ने चैनलों पर जहर उगला। यह ऐसे लोगों का गिरोह है, जो कथित मानवतावाद का बुरखा ओढ़कर याकूब जैसे लोगों को ‘सज्जन व्यक्ति’ करार देकर अदालती फैसले पर रोने का स्वांग करते हैं। अजमल कसाब, अफजल गुरु अथवा किसी जिहादी गुनहगार को जैसे फांसी या अन्य कोई सजा सुनाई जाती है, इन कथित मानवतावादियों का गिरोह छाती पीटने लगता है। इस बार भी उन्होंने वही किया।

वकील माजिद मेमन तो कानून के गहरे जानकार हैं और इस मामले में शुरू से आरोपी की पैरवी कर रहे थे। माजिद मेमन तो इस बात के लिए मशहूर हैं कि वे ऐसे आरोपियों की अक्सर पैरवी करते हैं, जो भारत के कानून को नहीं मानते, भारत के खिलाफ साजिश करते हैं, राक्षसी कृत्य कर नरसंहार करवाते हैं। यही नहीं, ऐसे आरोपियों को सजा होने पर उन्हें बचाने के लिए कानूनी खामियों और बचने के हर रास्ते का इस्तेमाल करने पर अपनी विद्वत्ता खर्च करते हैं। याकूब मेमन को फांसी से बचाने में जब माजिद विफल हुए तो उन्होंने याकूब के मुस्लिम होने शिगूफा छोड़ा और मुस्लिम समुदाय को भड़काने का घिनौना खेल खेला। अबू आज़मी और एमआईएम के असउद्दीन ओवैसी ने भी कहा कि, ‘याकूब केवल मुस्लिम है, इसलिए सरकार उसे फांसी दे रही है।’ उनके इस कहने से कोई चकित नहीं है; क्योंकि मुस्लिमों को भड़काकर राजनीतिक रोटियां सेंकना उनका नित्य का खेल है।

अदालत में यह सिद्ध हो चुका है कि मुंबई में शृंखलाबद्ध विस्फोट कराने वाला, भारत के विरुद्ध युद्ध जैसा माहौल पैदा करने वाला याकूब एक आतंकवादी ही है। इस आतंकवाद को मुस्लिम साम्प्रदायिकता का मुलम्मा चढ़ाकर, एक आतंकवादी को दी जा रही फांसी को इन लोगों ने धार्मिक रंग देने का प्रयास किया है। लगता है, ये लोग देश के सारे मुस्लिम समाज को आतंकवाद लबादा उढ़ाने पर आमादा हैं। आतंकवाद को इस तरह धर्म, पंथ की मुहर लगाने वाले ये लोग कुछ बातों की जानबूझकर अनदेखी करते हैं। हालांकि, फांसी की सजाओं का धार्मिक आधार पर वर्गीकरण करना बिल्कुल गलत है, फिर भी हाल में प्रकाशित एक सर्वेसे पता चलता है कि स्वाधीनता के बाद अब तक जितनी फांसी की सजाएं दी गईं उनमें मुस्लिमों की संख्या महज पांच फीसदी है। माना कि इस तरह के आंकड़ें पेश करना अनुचित है; क्योंकि हमारा संविधान, हमारी न्यायप्रणाली किसी भी अपराधी की ओर धार्मिक दृष्टि से नहीं देखती। लेकिन, जब माजिद मेमन, अबू आज़मी, ओवैसी जैसे लोग धर्म की आड़ में झूठ को फैलाने में लगे हुए हैं, तब ऐसे तथ्यों को लोगों के समक्ष रखना जरूरी हो जाता है।

देश के सम्मान की प्रतीक संसद पर हमला करने की साजिश करने वाले अफजल गुरु अथवा मुंबई पर आतंकी हमला कर मुंबई को तीन दिन तक बंधक बनाने वाले अजमल कसाब को फांसी दी गई। संसद पर हमले के सूत्रधार अफजल गुरु की फांसी देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कायम की। तब उसकी फांसी का मामला लम्बा खींचने के लिए राष्ट्रपति से दया की गुहार लगाने वाले और उसके लिए अपनी बुद्धि खर्च करने वाले यही लोग थे। फिर भी, भारतीय लोकतंत्र की सारी प्रक्रिया पूर्ण की गई। मुंबई आतंकी हमले के अपराधी अजमल कसाब को भी वकील मुहैया किया गया। भारत न्यायप्रिय देश है, इसे दुनिया जान चुकी है। भारत में आम नागरिकों को कानूनन जो सुरक्षा मिलती है, वही सुरक्षा भारत के विरोध में खुले आम युद्ध करने वाले और सैंकड़ों निर्दोष लोगों को मारने वाले अफजल गुरु, अजमल कसाब जैसे लोगों को भी दी जाती है। वही न्यायपूर्ण प्रक्रिया याकूब मेमन के मामले में भी पूरी की गई है। अदालत ने हर तरह के प्रयत्नों की छूट दी। उसे इुई फांसी की सजा कानून के अनुसार है। जो कानून का राज्य मानते हैं उनके द्वारा इस फांसी पर आपत्ति करने का कोई कारण नहीं है। लेकिन, इस पर हल्ला मचाने वाले ये ऐसे लोग हैं जो भारत में फूट के बीज बोकर देशद्रोह का काम करते हैं। देशी, विदेशी आतंकवादियों द्वारा निर्दोष लोगों की जाने लेने के बाद भी, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अनुसार अपराधों का फैसला विधिक निर्णय तक पहुंचाने का भारत का उदाहरण दुर्लभ ही कहना होगा। फिर भी, ‘न्याय नहीं हुआ’ कह कर चिल्लाने वाले ये लोग अनेक निरर्थक मुद्दें उपस्थित कर मामले को तूल देते रहते हैं। ऐसी हीे निरर्थक बातों में यह मुद्दा भी है कि बाबरी गिराने वालों को भी सजा होनी चाहिए, दंगों के आरोपियों को भी सजा होनी चाहिए। लेकिन यह समझना चाहिए कि यह कोई याकूब मेमन जैसे आतंकवादी को बचाने का मुद्दा नहीं हो सकता।

मुंबई में शृंखलाबद्ध बम विस्फोट कराने वाला याकूब मेमन था, यह बात साबित हो चुकी है और उसे फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद कथित मानवतावादी, विशुद्ध राजनीतिक स्वार्थी लोग गला फाड़ फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि ‘वह मुसलमान है, इसलिए फांसी दी जा रही है।’ लेकिन, मानना होगा कि इस देश में साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने वाले ये लोग देश के संविधान, देश के तमाम न्यायालयों, देश व राज्य की सरकारों, भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों का घोर अपमान कर रहे हैं। भारत ऐसा देश है जहां देशद्रोहियों को भी सजा सुनाने के लिए हर तरह की न्यायालयीन प्रक्रिया पूरी करनी होती है। हमारी न्यायप्रणाली का मूल तत्व ही है कि, ‘सौ गुनहगार भले छूट जाएं, लेकिन एक भी निर्दोष व्यक्ति को सजा नहीं होनी चाहिए।’

ऐसा होने पर भी भारत में अस्थिरता फैलाने की साजिश रचने वाले कुछ सेक्युलरिस्ट, मानवतावादी जैसे लेबल लगाकर हंगामा बरपाने वाले फरेबी लोग हैं। यह ऐसे लोगों की मंडली है, जो मुंबई में अंधाधुंध गोलियां बरसाकर निर्दोष लोगों की जान लेने वाले कसाब के साथ सहानुभूति रखती है, भारत की संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु तथा मुठभेड़ में मारी गई इशरत जहां जैसी आतंकवादी से सहानुभूति रखते हैं, जो नरेंद्र मोदी, आडवाणी, तोगड़िया एवं बालासाहब ठाकरे जैसे लोगों की हत्या का षड्यंत्र रच कर अवसर की ताक में थी। उनके ‘निर्दोष अल्पसंख्यक’ होने का ये सेक्युलरिस्ट प्रचार कर रहे हैं। कसाब, अफजल गुरु, इशरत जहां जैसे लोगों को आतंकवादी करार देने से बचाने के लिए इन फरेबी मानवतावादियों की भागदौड़ होती है। इसकी पुनरावृत्ति मुंबई विस्फोटों के षड्यंत्रकारी याकूब मेमन के मामले में भी हुई है।
इन मानवतावादियों, सेक्युलरिस्टों की राष्ट्रनिष्ठा के बारे में ही प्रश्न उपस्थित होता है। राजनीतिक स्वार्थ के खातिर धार्मिक विद्वेष का अतिरेक करने वाली यह मंडली देशहित, समाजहित, कानून, स्वाभाविक न्याय इन सभी बातों की जानबूझकर अनदेखी करती है। यह मंडली आतंकवादियों, तैयबा, मुजाहिदिन, आईएसआई के ही साथी हैं। क्योंकि, इन सभी के काम और बर्ताव परस्पर पूरक हैं। मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र के नाम पर ये सेक्युलरिस्ट लोग मुस्लिम समुदाय के एक बड़े वर्ग में व्याप्त धार्मिक कट्टरवाद, धर्मांध प्रवृत्तियों को संरक्षण देने का कार्य कर रहे हैं। इसलिए जिहाद को धार्मिक कर्तव्य समझने की प्रेरणा उग्रवादी विचारों के लोगों को प्राप्त होती है। सीमा पर खुलकर युद्ध करने वाले तथा भारत में आतंक फैलाने वाले आतंकवादियों की अपेक्षा ये फरेबी सेक्युलरिस्ट ज्यादा खतरनाक हैं।

याकूब मेमन, अफजल गुरु और अजमल कसाब के लिए छाती पीटने वाली यह मंडली उनके हमले में मारे निर्दोष लोगों को न्याय दिलाने के लिए कभी आगे नहीं आई। मानवता के नाम पर दोगली एवं आतंकवाद के लिए सुविधाजनक भूमिका अपनाने वाले ये लोग भारतीय लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। ये लोग ऐसे कार्य कर भारतीय समाज में विद्वेष फैलाने का जानबूझकर प्रयास करते हैं। इन विघटनवादी लोगों का मानवता आदि से कुछ लेनादेना नहीं है। जिन्हें आज हम सेक्युलरिस्ट एवं मानवतावादी कहते हैं, वे लोग जिहादियों को पनाह देने वाले हैं। समाज को विभाजित करने वाली बयानबाजी और सेक्युलरिस्टों की धर्मांध शक्तियों को बचाने के लिए भागदौड़ से साम्प्रदायिकता को बल मिलता है। ये लोग अनेक स्तरों पर भारत को बदनाम करने का बीड़ा उठाए हुए हैं। भारत की न्यायिक प्रणाली को वैश्विक स्तर पर कलंकित, बदनाम करने की साजिश यह विकृत, जिहादी मानसिकता के लोग करते हैं।

फिलहाल सेक्युलरिज्म नामक भूत भारत में संचार कर रहा है। भारत के भविष्य को देखते हुए उसे समय पर ही खत्म कर देना आवश्यक है। क्योंकि, सेक्युलरिज्म याने देशद्रोह यही समीकरण सामने आ रहा है। देश को जितना खतरा जिहादी अथवा आतंकवादियों से है उतना ही सेक्युलरिस्टों से निर्माण हुआ है।

आज दुनियाभर में लगातार बढ़ रहे इस्लामी आतंकवाद की ओर देखें तो लगता है कि भारत उसकी छाया से इससे बहुत दूर नहीं है। दुनिया में क्रूरता एवं अमानवीय कृत्यों की सीमाएं पार करने वाला आईएसआईएस भारत पर हमला करने की साजिश कर रहा है। इन बातों को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। श्रीनगर में जुम्मे की नमाज के समय जामा मस्जिद के पास आईएसआईएस के झंडे लहराए जा रहे हैं। देशभर में इस तरह की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। संभव है कि आईएसआईएस भारत में सक्रिय आतंकवादी संगठन से गठजोड़ कर अपने नापाक इरादों को अंजाम दे। सीमा पार से भारत में आतंकवादी घुस रहे हैं। प्राणघातक हमले कर रहे हैं। छद्म युद्ध कर देश में युद्ध जैसी परिस्थिति निर्माण कर रहे हैं। कश्मीर में भी माहौल १९९६ के पहले जैसा बन रहा है। लगातार आंदोलन, पत्थरबाजी, हिंसा हो रही है और आतंकवादियों की मौजूदगी बढ़ रही है। विविध मार्गों से भारत को अस्थिर करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में याकूब मेमन की फांसी के बहाने और वह भी धार्मिक मुद्दों का आधार लेकर बहस छेड़ी गई। ऐसी बातों से देश विघटन की स्थिति की ओर बढ़ेगा, यह ध्यान रखने लायक बात है। देश में फांसी की सजा हो या न हो इस पर बहस होने में गैर कुछ नहीं है, लेकिन यह बहस धार्मिकता एवं आतंकवाद का समर्थन करें यह दुर्भाग्य का विषय है। भारत आतंकवाद से संघर्षरत राष्ट्र है। फांसी की सजा रद्द करने की उदारता प्रदर्शित करने जितने हम स्थिर नहीं हुए हैं। राष्ट्रविरोधी कार्रवाइयों को आक्रांत करने के लिए इस तरह की कठोर सजा का प्रावधान होना इस समय अत्यंत जरूरी है। सज्जनता का अतिरेक कभी-कभी विनाश का कारण बनता है, यह इतिहास की सीख हम न भूलें। आतंकवादियों तथा शत्रु राष्ट्र के भारत को अस्थिर करने के प्रयास लगातार जारी हैं। इस स्थिति में राष्ट्रविघातक कार्रवाइयों से उन्हें रोकने के लिए मौत की सजा जैसी कठोर सजा देना ही एकमात्र मार्ग बचता है।

भारत को आतंकवाद के माहौल में ढकेलने के लिए कार्यरत आतंकवादी संगठन किस तरह बर्ताव करते हैं और इन आतंकवादियों के लिए पनाहगार पृष्ठभूमि निर्माण करने में सेक्युलरिस्ट मंडली किस तरह की साजिश मन में रख कर कार्य करती है, किस तरह बुद्धिभेद करती है इसे समझना भी अत्यंत आवश्यक है। इसीके साथ सतर्क रहना भी जरूरी है। जिन्होंने देश के विरोध में खुले आम युद्ध छेड़ा, जिन्होंने मानवता को कालिख पोत कर निर्दोष लोगों की हत्याएं कीं, जिन्होंने इस देश के कानून, सभ्यता, मानवता से द्रोह किया उन्हें क्षमा करने का कोई कारण नहीं है। ऐसे लोगों के लिए कानून में कठोर सजा के प्रावधान की आवश्यकता है, ताकि देशविघातक गुनाह करने की कोई जुर्रत न कर सके। अन्यथा राष्ट्र के रूप में हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

भारत की मानवतावादी मंडली फांसी की सजा रद्द करने की आज मांग कर रही है। कल वे इन आतंकवादियों को शहीद करार देकर पद्मभूषण अलंकरण देने की मांग करेंगे! इसकी एक झलक इस समय दिखाई दी है। याकूब मेमन की पत्नी को सांसद बनाने की मांग समाजवादी पार्टी के एक नेता ने की है। इस तरह के असंयमित विचारों के समर्थन के कारण ही आतंकवादी मगरूर होकर भारत में घुस रहे हैं। उधमपुर में पकड़ा गए आतंकवादी का यह बयान इन सभी बातों पर प्रकाश डालने वाला है, ‘‘मुझे कोई खौफ नहीं है। मुझे हिंदुओं को मारने में मजा आता है।’’ हमारे यहां फांसी की सजा ‘रेअरेस्ट रेअर’ मामले में ही दी जाती है। फांसी की सजा दो कारणों से दी जाती है- एक यह कि अपराधी का कृत्य इतना भीषण होता है कि उसे मौत दिए जाने के बिना न्याय नहीं होता और दूसरा यह कि उसके समविचारी अर्थात ‘मुझे हिंदुओं को मारने में मजा आता है’ जैसी क्रूर अपराधी भावना रखने वालों के लिए वह एक संदेश होता है; ताकि इस तरह का कृत्य करने के लिए कोई प्रवृत्त न हो। जब हम न्याय प्रक्रिया और राष्ट्र की सुरक्षा का विचार करते हैं तब ऐसे गंभीर मामले में आरोपियों को कानून पर्याप्त और उचित सजा दे सकता है यह संदेश जनता तक पहुुंचाना जरूरी है। किसी राष्ट्र का स्थैर्य दो बातों पर निर्भर होता है। एक- लोगों का देश की मुद्रा पर विश्वास और दूसरी- नागरिकों को देश की न्याय प्रक्रिया व सरकार पर विश्वास। सैंकड़ों की जाने लेने में सहभागी देशद्रोही याकूब मेमन को फांसी देकर भारतीय न्यायप्रणाली ने यह विश्वास दृढ़ किया है। इस सारी प्रक्रिया में कानून की जीत हुई है, यह निसंदेह है…

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