नई आतंकी रणनीतिदीनानगर से ऊधमपुर तक


इसमें कोई शक नहीं कि जम्मू-कश्मीर में सेना की सख़्ती के कारण पाकिस्तान आतंकवादियों की भारत में घुसपैठ करवाने में दिक़्क़त महसूस कर रहा है। उसी प्रयास में बार-बार युद्धविराम का उल्लंघन कर भारतीय चौकियों पर गोलाबारी करता रहता है, ताकि उसकी आड़ में आतंकी घुसपैठ कर सके। पाकिस्तान से लगी पंजाब के गुरुदासपुर ज़िले की सीमा से आतंकवादी भारतीय सीमा में घुसे और २७ जुलाई की सुबह को उन्होंने दीनानगर में क़हर बरपा दिया। अभी तक की जांच से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि वे हिट एंड ट्रायल पद्धति से हमला करने के लिए नहीं आए थे; बल्कि उन्होंने अपने निशानों का चयन बहुत ही सावधानी से किया था ताकि सर्वाधिक नुक़सान हो तथा आतंक की लहर फैल जाए।

लेकिन नागरिकों की सूझबूझ से आतंकवादी हमले को व्यापक करने में कामयाब नहीं हुए। फिर भी, दीनानगर शहर के थाने पर आतंकवादियों ने क़ब्ज़ा कर लिया और लगभग बारह घंटों की मुठभेड़ में तीनों आतंकवादी मारे गए। थाने तक पहुंचने से पहले उन्होंने रेल पटरी पर बम रख कर गाड़ी उड़ाने का प्रयास भी किया लेकिन रेलवे कर्मचारियों की सूझबूझ से वह हादसा टल गया। इसी प्रकार उन्होंने पंजाब रोडवेज़ की एक बस पर हमला करके यात्रियों को मारने की कोशिश की लेकिन वह हादसा भी बस के ड्राइवर नानक चन्द की सूझबूझ से टल गया।

इसमें कोई शक ही नहीं कि पंजाब पुलिस के जवानों ने भी बहादुरी से दुश्मनों से लोहा लिया (जिन्हें अरविंद केजरीवाल ‘ठुल्ला’ कहते हैं) और इसमें गुरुदासपुर के पुलिस अधिकारी बलजीत सिंह सैनी शहीद भी हो गए। पंजाब और जम्मू कश्मीर की बहुत लम्बी सीमा पाकिस्तान से लगती है। अभी तक पाकिस्तान अपने आतंकवादियों को जम्मू-कश्मीर सीमा से ही भारत में घुसपैठ करवाता था। लेकिन अब उसने पंजाब के रास्ते भी यह नया प्रयोग किया है। दरअसल गुरुदासपुर, कठुआ और साम्बा एक ही श्रृंखला में हैं। कठुआ और साम्बा से पिछले दिनों आतंकवादी आक्रमण कर ही चुके हैं। उसी तरीक़े से अब गुरुदासपुर से लगती सीमा का उपयोग किया गया है। इसलिए कम से कम यह तो नहीं कहा जा सकता कि यह हमला अचानक हुआ या इसकी कोई आशंका नहीं थी। कठुआ और साम्बा वाले हमलों के बाद से तो इसकी आशंका और बढ़ गई थी।

अभी तक कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं, जिनकी खोजबीन चल रही है। क्या घुसपैठ करने वाले आतंकवादी गिरोह में तीन सदस्य ही थे या फिर बाक़ी मौक़े की तलाश में हैं? लेकिन इस हमले को लेकर जो लिखा पढ़ा जा रहा है, वह ज़्यादा चिंताजनक है।

पंजाब में सोनिया कांग्रेस के प्रताप सिंह बाजबा और कैप्टन अमरेन्द्र सिंह जैसे लोगों ने इसे खलिस्तान से जोड़ कर लांछन लगाने की पुरानी शैली को तेज़ कर दिया है। उनका कहना है कि पंजाब की वर्तमान सरकार खलिस्तानी आतंकवादियों के प्रति नर्म रुख़ रखती है और उन्हें प्रत्यक्ष परोक्ष शह भी दे रही है। इसलिए इस प्रकार के हमले पंजाब में दोबारा शुरू हुए हैं। इसे संकट काल में भी राजनैतिक रोटियां सेंकने से अतिरिक्त कुछ नहीं कहा जा सकता।

ये दोनों सज्जन और इनकी विरादरी के दूसरे लोग भी अच्छी तरह जानते हैं कि खलिस्तान, उन दिनों भी, जिन दिनों पंजाब में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद पूरे उफान पर था, ख्याली पुलाव था, जिसका पंजाब के लोगों से कुछ लेना देना नहीं था। अकालियों से राजनैतिक लड़ाई लड़ने के लिए सोनिया कांग्रेस के पास अनेक राजनैतिक आधार हैं। लेकिन संकट की इस घड़ी में पाकिस्तान प्रायोजित इस्लामी आतंकवाद को राज्य की राजनीति में हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना विकृत मानसिकता ही कही जा सकती है।

अब गुरुदासपुर में हुए इस हमले को पंजाब की भीतरी राजनीति से जोड़ कर हल्ला मचाने वाले लोग जानबूझकर कर असली संकट और ख़तरे से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ही ऐसी बयानबाज़ी कर रहे प्रतीत होते हैं। पंजाब में पुलिस के सर्वेसर्वा रहे के पी एस गिल ने ठीक ही कहा है कि खलिस्तान की बात समाप्त हुए अर्सा हो चुका है और जो लोग उस में शामिल थे वे भी समाप्त हो चुके हैं। लेकिन सोनिया कांग्रेस के नेताओं की बयानबाज़ी से लगता है कि कहीं वे उसे फिर से ज़िन्दा करने की फ़िराक़ में तो नहीं? परन्तु ऐसा नहीं कि पाकिस्तान के इस्लामी आतंकवाद को लेकर सोनिया कांग्रेस पहली बार दोहरी नीति अपना रही हो। जिन दिनों पूरा देश कमोबेश इस प्रायोजित इस्लामी आतंकवाद से लड़ने के लिए मानसिक रूप से एकजुट होता दिखाई दे रहा था, सोनिया कांग्रेस ने ऐन उसी वक़्त हिन्दू आतंकवाद का शोशा छोड़ कर उस लड़ाई को कमज़ोर करने की कोशिश ही नहीं की बल्कि आतंकवाद से लड़ने के राष्ट्रीय संकल्प को खंडित भी किया। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बहुत ठीक कहा है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ी जा रही लड़ाई में, सोनिया कांग्रेस ने ऐन मंझधार में भितरघात किया है।
भारत पर छद्म आक्रमण का असली ख़तरा इसिस की ओर से है और हिन्दुस्तान के अनेक मुसलमान इससे जुड़ रहे हैं। पाकिस्तान में आतंकवादी गिरोह भी अब किसी न किसी रूप में उसी इसिस का हिस्सा है। अभी तक विभिन्न देशों में जो इस्लामी आतंकवादी गिरोह काम कर रहे थे, वे अब धीरे धीरे इसिस की छतरी के नीचे एकत्रित होकर संयुक्त रणनीति बना रहे हैं। भारत इस संयुक्त इस्लामी आक्रमण का प्रमुख शिकार है। इसलिए आतंकवादियों का हमला चाहे दिल्ली में होता है, या गुरुदासपुर में, कठुआ में होता है या दीनानगर में, उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है।

सीमित राजनैतिक हितों के भीतर विचरने वाले लोग तो इन हमलों को पंजाब या जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र या उत्तर प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में देख कर ही आरोप प्रत्यारोप का सत्र प्रारम्भ करेंगे लेकिन आतंकवादियों के लिए इन शब्दों के कोई मायने नहीं हैं। वे स्थान का चयन तो सुविधा और स्थिति देख कर करते हैं अन्यथा उनका निशाना भारत ही होता है। इसलिए जरूरी है कि आतंकवादी हमलों का मुक़ाबला करने के लिए नीति बनाते समय इस मुक्कमल परिदृश्य को ध्यान में रख लिया जाए। यह भी ध्यान में रख लेना चाहिए कि इस्लामी आतंकवादी हमलों की यह कहानी लम्बी चलने वाली है। इसलिए रणनीति भी लम्बी दूरी की ही बननी चाहिए।

दुर्भाग्य से राजनैतिक दल अभी भी इन हमलों को पक्ष विपक्ष के नज़रिए से ही देख रहे हैं और उसी को ध्यान में रखते हुए प्रादेशिक संदर्भों में ही इसकी व्याख्या कर रहे हैं। यदि ऐसा न होता तो पंजाब में कम से कम कांग्रेस के लोग, इस हमले को अकाली दल पर हमला करने के अवसर के रूप में प्रयोग न करते। दुनिया के दूसरे हिस्सों में इस्लाम और चर्च की जो लड़ाई दिखाई दे रही है, वह वर्चस्व की लड़ाई है। लेकिन हिन्दुस्तान में ये दोनों एक हो जाते हैं और इस देश के ख़िलाफ़ वैचारिक लड़ाई लड़ते हैं।

हिन्दुस्तान वास्तव में चिन्तन में लोकतांत्रिक देश है। इसलिए यहां ईश्वर को लेकर चिन्तन एवं कल्पना के लिए आसमान तक छलांग ही नहीं लगाई जा सकती बल्कि उस को लेकर विभिन्न अवधारणाओं को एकसाथ लेकर सुखपूर्वक जिया भी जा सकता है। इतना ही नहीं, आम जनता के स्तर पर उनको एकसाथ स्वीकार भी किया जा सकता है। इस्लाम और चर्च को यह अस्वीकार है। इसलिए उनका ध्येय हिन्दुस्तान को काटछांट कर इस्लामी चिन्तन के रास्ते पर लाना है। इस्लाम और चर्च के ये हमले हिन्दुस्तान पिछले आठ सौ साल से झेल रहा है। लेकिन फिर भी इस्लाम हिन्दुस्तान को परास्त करने में सफल नहीं हो पाया। अब जब फिर तेल की ताक़त से इस्लाम को नई उर्जा मिली है तो उसने फिर हिन्दुस्तान को निशाना बना लिया है। यह निशाना एक बड़े अभियान और लक्ष्य का हिस्सा है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश के राजनैतिक दल इस्लामी आतंकवाद से भी चुनावों की पंचवर्षीय योजना में लाभ उठाने की रणनीतियां बनाने में ही मस्त हैं। साम्यवादी दल जिस बेशर्मी से आतंकवादियों के समर्थन में प्रत्यक्ष या परोक्ष खड़े दिखाई देते हैं, उससे किसी को आश्चर्य नहीं हो सकता। क्योंकि साम्यवादियों के मन में भारत की जो अवधारणा है, वह इस देश के आम आदमी से बिल्कुल भिन्न है। इस देश को खंडित देखने में ही उनको अपनी वैचारिक सफलता दिखाई देती है। यही कारण था कि उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन किया था। लेकिन अब तो सोनिया कांग्रेस, जिस तरह खुले आम आतंकवादियों के समर्थन में खड़ी दिखाई देती है, उससे कांग्रेसियों में भी बैचेनी दिखाई दे रही है। परन्तु इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि असली कांग्रेसी हाशिए पर चले गए हैं और पार्टी पर जिन लोगों का क़ब्ज़ा हो गया है, वे सोनिया गांधी के विश्वासी लोग ही हैं। पंजाब में पाकिस्तानी आक्रमण के वक़्त भी, पंजाबियों की पारम्परिक एकता को खंडित करने के सोनिया कांग्रेस के प्रयास, उसी रणनीति की ओर संकेत करते हैं, जिस के तहत कांग्रेस ने कभी तुच्छ राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए जरनैल सिंह भिंडरावाले को जन्म दे दिया था।

इस बात में कोई शक नहीं कि भारत पर होने वाले इस प्रकार के आतंकवादी हमलों में पाकिस्तान की प्रमुख ही नहीं बल्कि पूरी भूमिका रहती है। जैसे जैसे पाकिस्तान के सरकार समर्पित आतंकवादी गिरोहों और इसिस में सांठगांठ बढ़ती जाती है वैसे वैसे पाकिस्तान की ओर से होने वाले हमले और ज्यादा कोआरडिनेटड होते जाएंगे। इसका ताज़ा उदाहरण जम्मू- कश्मीर के, सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण ऊधमपुर में बीएसएफ के जवानों पर हुआ ताज़ा हमला है। दो पाकिस्तानी आतंकवादी कश्मीर में घुसे और और कई दिन घाटी में घूमते रहे। इसके बाद दोनों ने सीमा सुरक्षा बल की बस पर हमला कर दो जवानों को शहीद कर दिया और कई जवान घायल हो गए। चांस की बात थी कि दोनों आतंकियों में से जीवित बच गए आतंकी नावेद को ग्राम के दो युवकों ने पकड़ लिया और पुलिस के हवाले कर दिया। कसाब के बाद पकड़ा गया यह दूसरा पाकिस्तानी आतंकी है, जिसका पाकिस्तान में बैठा बाप कह रहा है कि वही इस नावेद का बदनसीब पिता है और यह भी बताता है कि उसे भी पाकिस्तानी सेना अब मार देगी।

पाकिस्तान ने इस युवा को प्रशिक्षण इस प्रकार का दिया है कि वह हंस कर बता रहा है कि उसे हिंदुओं को मार कर मज़ा आता है। ज़ाहिर है ऐसा प्रशिक्षण पाने वाले पाकिस्तान में और युवा भी होंगे। आदमी से रोबोट बनाने की इस्लामी प्रक्रिया। इस आतंकी से यह भी ख़ुलासा हुआ है कि उनका मक़सद अमरनाथ की यात्रा में कोहराम मचाना था।

इसलिए यह बार बार प्रश्न उठता रहता है कि ऐसे वातावरण में भारत को पाकिस्तान से कोई बातचीत करनी चाहिए भी या नहीं। भारत और पाकिस्तान में द्विपक्षीय बातचीतों का यह सिलसिला पिछले कई दशकों से चला हुआ है। लेकिन यह आज तक किसी की समझ में नहीं आ रहा कि यह बातचीत होती किसलिए है और इससे निकलता क्या है? इसलिए आम आदमी का मानना है कि पाकिस्तान से बातचीत करने का कोई लाभ नहीं है और बेवजह इसे चलाए रखने का कोई अर्थ भी नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने ऊफा में दोनों देशों के बीच जिन मुद्दों की चर्चा करते हुए बातचीत आगे बढ़ाने की बात कही थी, उसमें कश्मीर की चर्चा नहीं थी। तब सभी को लगने लगा था कि अब शायद मामला पटरी पर आ जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस्लामाबाद को स्पष्ट करना पड़ा कि कश्मीर पाकिस्तान की शाह रग है। गुरुदासपुर में हुआ हमला शायद शाह रग की याद दिलाने के लिए किया गया हो। लेकिन ताज्जुब है दीनानगर में इतने बेगुनाह लोगों के मारे जाने के बाद भी अंग्रेज़ी मीडिया चिल्ला रहा है कि भारत को पाकिस्तान के साथ बातचीत किसी हालत में भी नहीं तोड़नी चाहिए। ऐसे समय में भारतीय भाषाओं के मीडिया की पीठ थपथपाना पड़ेगी कि उसने देशवासियों की भावनाओं के अनुरूप बातचीत बंद किए जाने की वकालत की हैं। आख़िर क्या कारण है कि जब भी देश पर कहीं भी आतंकवादी आक्रमण होता है तो अंग्रेज़ी भाषा का मीडिया, आम जन भावना के बिल्कुल विपरीत बोलता है और भारतीय भाषाओं का मीडिया मोटे तौर पर जन भावनाओं के अनुकूल बोलता है। यदि अंग्रेज़ी भाषा का मीडिया का स्वर तार्किक हो, तब भी उसकी बात समझ में आ सकती है। लेकिन दुर्भाग्य से सदा ही उसमें ज़िद ज़्यादा होती है और तर्क कम। पाकिस्तान से बातचीत करते करते लगभग सात दशक बीत गए और उस बातचीत ने चार युद्ध ही दिए। जब बातचीत और आगे बढ़ी तो पाकिस्तान ने राज्य प्रायोजित इस्लामी आतंकवाद दिया, जिसके कारण यदि सिविल पापुलेशन की बात छोड़ भी दी जाए तो अभी तक इतने भारतीय सैनिक मार दिए हैं जितने इन चार युद्धों में भी नहीं मरे थे। अब भी जैसे ही बातचीत का उत्साह बढ़ता है वैसे ही सीमा पर आतंकवादी हमला होता है। क्या समय नहीं आ गया है कि पाकिस्तान के साथ बातचीत रोकने का प्रयोग करके भी देख लिया जाए। लेकिन अंग्रेज़ी मीडिया और उससे जुड़े तथाकथित बुद्धिजीवी क्या ऐसा होने देंगे?

एक ख़तरा और भी है। जैसे जैसे नावेद उर्फ़ क़ासिम का मुक़द्दमा आगे बढ़ता जाएगा, वैसे वैसे अली बाबा के वही चालीस जो याकूब मेनन को बेगुनाह सिद्ध करने के लिए दिन रात एक किए रहे, एक बार फिर क़ासिम की बेगुनाही के लिए जी-जान लड़ा देंगे। तब तक जलपाईगुडी और यमुनानगर के उन दो जवानों की शहादत को लोग भूल चुके होंगे जिन्होंने देश के लिए प्राण न्योछावर कर दिए। वैसे क़ासिम की उम्र को लेकर अभी ही कुछ उत्साहियों ने कनकौये उड़ाने शुरू कर दिए हैं।

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