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एमआयएम का विषवृक्ष

एमआयएम का विषवृक्ष

by अमोल पेडणेकर
in दिसंबर -२०१४
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एमआयएम याने मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन! इसके नेता हैं ओवैसी बंधु, जो हिंदुओं के कड़े विरोधी और जहरीले धार्मिक भाषण करने के लिए जाने जाते हैं। कांग्रेस जैसी स्थापित पार्टी ने मुसलमानों का जिस तरह उपयोग किया उससे नाराज यह समाज किसी न किसी विकल्प की खोज में था। भाजपा का भय दिखाकर उन्हें धर्मांध पार्टी की ओर मोड़ लेना आसान था। महाराष्ट्र में उन्हें मिली सफलता का यही कारण है। इसी खतरनाक प्रयोग को देश भर में आजमाया जा सकता है, जिसे समझना जरूरी है।

हर चुनाव कोई न कोई संदेश देकर जाता है। हाल ही में महाराष्ट्र में सम्पन्न विधान सभा चुनावों ने भी एक खास संदेश दिया है। महाराष्ट्र और महाराष्ट्र के बाहर के राजनैतिक दलों और समझदार नागरिकों को इस चुनाव ने एक धक्कादायक संदेश दिया है। भाजपा को इस चुनाव में मिली सफलता उतनी धक्कादायक नहीं है जितनी एमआयएम को मिली अनपेक्षित सफलता है। एमआयएम के उम्मीदवार एड. वारिस पठान मुंबई के भायखला मतदान क्षेत्र से विजयी हुए हैं। हालांकि यह मतदान क्षेत्र मुस्लिम बहुल नहीं है परंतु यहां मुस्लिम वोट निर्णायक सिद्ध होते हैं। मराठी, गुजराती, ईसाई, मारवाडी, दलित इत्यादि विविध भाषाओं और धर्मों के लोगों की इस बस्ती से एमआयएम जैसे किसी कट्टर धार्मिक संगठन का नेता चुना जाना लोगों के मन में संभ्रम निर्माण करता है। औरंगाबाद पूर्व के मतदान क्षेत्र में एमआयएम के उम्मीदवार गफार कादरी को मिली सफलता के कारण महाराष्ट्र के शिक्षा मंत्री राजेन्द्र दर्डा पराजित हुए। एमआयएम ने राज्य में 24 उम्मीदवार खडे किए थे, जिसमें से 14 सीटों पर वह पहले तीन क्रमांक पर रही।

पदार्पण के साथ ही इस पार्टी ने विधान सभा की दो सीटें जीतीं। महाराष्ट्र में केवल 20 दिनों के अंदर ही यह पार्टी चुनाव के मैदान में खड़ी हो गई। हाल फिलहाल ही महाराष्ट्र की राजनीति में शामिल हुई इस पार्टी की सफलता के बहाने भविष्य में आनेवाले संकटों और राजनीति की दिशा के बारे में चर्चा होना आवश्यक है।

क्या कारण है कि पारंपरिक रूप से कांग्रेस का मतदाता माना जानेवाला मुस्लिम समाज इतनी बड़ी संख्या में एमआयएम की ओर झुक गया? उनके इस झुकाव के पीछे की मानसिकता क्या है? इन मतदान क्षेत्रों से जीतने और बडी संख्या में उन्हें मत मिलने के कारण क्या हैं? इस संगठन की भूमिका क्या है? इन प्रश्नों की ओर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है।

इस विषय की चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले एमआयएम क्या है और इतिहास के पन्नों पर कालिख पोतने वाले उसने कौन से कारनामे किए हैं यह जानना आवश्यक है। जब भारत स्वतंत्र हो रहा था तो अंग्रेजों ने यहां अव्यवस्था फैलाने के उद्देश्य से रियासतों को भारत में शामिल होने या न होने का निर्णय करने का अधिकार दे दिया। अधिकांश रियासतें अपनी मर्जी से स्वतंत्र भारत में शामिल हो गईं। हैदराबाद के निजाम को या तो पाकिस्तान में जाना था या फिर अपनी रियासत को स्वतंत्र देश बनाना था। किंतु वहां की जनता को स्वतंत्र भारत में शामिल होना था। उस समय इस इच्छा को अपने मन में संजोनेवाले लोगों को रियासत से बाहर निकालने या उन्हें जान से मारने के लिए निजाम ने एक आतंकवादी संगठन खड़ा किया था। इस संगठन का नाम था ‘मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन।’ इस संगठन के आतंकवादियों को रज़ाकार कहा जाता था। इन रज़ाकारों ने हिंदुओं को लूटने, उनके सिर काटने, उनकी हत्या करने जैसे हिंसक कृत्य किए। सन 1947 में जब पूरा देश स्वतंत्र सांसें ले रहा था तब हैदराबाद रियासत की हिंदू जनता रज़ाकारों के आतंकी साये में पल रही थी। हजारों हिंदुओं की बलि चढ़ रही थी। हजारों लोग अपने ही देश में निर्वासितों का जीवन जी रहे थे।

स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद रियासत में सेना भेजी और इन रज़ाकारों को झुकने के लिए मजबूर कर दिया। हैदराबाद रियासत निजाम और हिंदुओं का तिरस्कार करने वाले रज़ाकारों से मुक्त हो गई। इसके बाद इस स्वतंत्र भारत में जवाहरलाल नेहरू का सेक्युलरवाद अपना सिर उठाने लगा या कहे फलने-फूलने लगा। इस देश में सेक्युलरवाद का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह लगाया जाने लगा कि लोकतंत्र, संविधान, पंथ निरपेक्षता, कानून का पालन करने की और देश तथा समाज में सांप्रदायिक सदभाव कायम रखने की जिम्मेदारी केवल हिंदुओं की ही है। इस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बखान करनेवाले ढोंगी सेक्युलरिस्टों को बढ़ावा देने का राजनैतिक परिणाम भारत के राजनैतिक पटल पर साफ दिखने लगा। इसके बाद हैदराबाद मुक्ति आंदोलन के समय भी जिन लोगों को पाकिस्तान में जाने की आस थी, जो हिंदुओं से द्वेष पाले बैठे थे, ऐसे रज़ाकारी वृत्ति के लोगों ने राजनैतिक दल की स्थापना की। इसका नाम था ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन अर्थात एम. आय. एम।

स्थापना से ही इस दल की ओर से हिंदुओं से द्वेष और देशद्रोह का नंगा नाच किया जाता रहा है। अत: संपूर्ण मराठवाड़ा क्षेत्र में यह दल निजामशाही के रूप में मशहूर है। हैदराबाद की महापालिका में इस दल की सत्ता है। उनका एक सांसद भी लोकसभा में है। साथ ही आंध्र प्रदेश की विधान सभा में भी इसके कुछ विधायक हैं। इसके अलावा भी यह दल आगे बढ़ेगा ऐसी किसी को भी उम्मीद नहीं थी। परंतु तीन साल पहले नांदेड महानगरपालिका के चुनावों में 13 सीटें जीत कर इस दल ने मराठवाडा में प्रवेश किया। अब सन 2014 के महाराष्ट्र विधान सभा के चुनावों में उसने सभी को अपने अस्तित्व की पहचान करा दी है। असाउद्दीन और अकबरुद्दीन ओवैसी ये दोनों ही भाई भडकाऊ धार्मिक भाषण और प्रचार करने में माहिर हैं। वे धार्मिक मुद्दों पर आक्रामक रूप से बोलते हैं। इसका प्रभाव यह है कि एक ओर धार्मिक ध्रुवीकरण हो रहा है और दूसरी ओर मुसलमान समाज की समस्याओं की ओर ध्यान खींचने का कार्य हो रहा है। इन धार्मिक, आक्रामक और भडकाऊ भाषण की मीडिया और सोशल मीडिया पर चर्चा होती है। यह शायद एमआयएम के नेतृत्व को आवश्यक लगती है। इसका फायदा भी उन्हें मिला है।

पिछले वर्ष हैदराबाद में एमआयएम के विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी ने हजारों मुसलमानों के जमावड़े को संबोधित करते हुए जिस भाषा का प्रयोग किया था वह निश्चित ही आपत्तिजनके है। वह किसी विशिष्ट समुदाय के मन में भारतीय संस्कृति और अस्मिता के प्रति घृणा निर्माण करनेवाला था।

इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि ओवैसी जैसों का पासपोर्ट तो भारत का होता है परंतु उनकी निष्ठा सीमा के पार के देशों के लिए होती है। अकबरुद्दीन ओवैसी ने एक घंटे से अधिक चले अपने भाषण में भारत की सनातन परंपरा, हिंदू समाज और हिंदू समाज के मानबिंदुओं का अपमान किया था। यह काम किसी सिरफिरे का नहीं था। जनता के द्वारा चुना गया एक प्रतिनिधि इस प्रकार उन्मत्त होकर भाषण दे रहा था। उसके द्वारा दिए जा रहे उन्मादी भाषण का हजारों धर्मांध लोग ‘इस्लाम खतरे में है’ कहकर समर्थन कर रहे थे। ओवैसी ने बाबरी ढ़ांचा गिराने, 1993 में मुंबई विस्फोट को सही ठहराने और कसाब की फांसी पर सवाल उठाने जैसे कथन किए। टाडा के अंतर्गत जेलों में सजा काट रहे मुस्लिम युवकों की समस्याओं को लेकर उन्होंने भारतीय न्याय व्यवस्था पर भी गंभीर आरोप किए। मुंबई हमले के लिए जिम्मेदार टाइगर मेनन और अन्य लोगों पर हुई कार्रवाई पर भी उन्होंने आपत्ति जताई। भारतीय संविधान पर हमला करनेवाले आतंकवादियों के प्रति ओवैसी और उनके समर्थकों की हमदर्दी हमारी समझ से परे है। लोकसभा चुनाव परिणामों के पश्चात तथा सरकार बनने के बाद ओवैसी ने प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी का अत्यंत खराब शब्दों मे अपमान किया था। यही ओवैसी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमिन नामक रज़ाकारी विचारोंवाले संगठन का मुखिया है। हिंदुओं से द्वेष करनेवाले रज़ाकारी प्रवृत्ति के लोगों ने फिर एक बार उसी नाम से अपना राजनैतिक दल बनाया। ऑल इंडिया मसलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन अर्थात एमआयएम। वही पुरानी द्वेष करने की राजनीति और देशद्रोही वृत्ति का नंगा नाच। मुस्लिम बस्तियों से चलनेवाला यह कृत्य कई बार सामने आया है। इस एमआयएम का आंध्र प्रदेश विधान सभाई दल का नेता है विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी। इसने मुस्लिम समाज के सामने जो भाषण किया वह रज़ाकारी वृत्ति का ही प्रतीक था, देशद्रोह का डंख मारनेवाला था। भारतीय संविधान की शपथ लेनेवाला यह विधायक कहता है कि केवल 15 मिनिट के लिए पुलिस हटवा दो तो 25 करोड़ मुसलमान 100 करोड हिंदुओं को मिटा देंगे।

संक्षेप में यह कहा जाए कि इन ओवैसी बंधुओं ने हिंदू समाज और भारत की सर्वभौमिकता को ही चुनौती दी है। रज़ाकारियों का नाम लेकर राजनैतिक दल की स्थापना करनेवाले को इस देश में इतनी स्वतंत्रता कैसे मिल सकती है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुसलमानों की राजनीति करनेवाला यह दल धर्म का आधार लेकर और राष्ट्रद्रोही विचारों को बढ़ावा देकर अपनी राजनीति करेगा। एमआयएम के नेता उच्च शिक्षित हैं परंतु अधिकांश मुस्लिम युवक अल्पशिक्षित या अशिक्षित हैें। इन युवकों को अत्यंत भडकाऊ और धर्मांध प्रचार करके भड़काया गया जिससे एमआयएम की ताकत बढ़ गईे। अगले साल औरंगाबाद महानगरपालिका के चुनाव हैं। इनमें 25 निर्वाचन क्षेत्रों में एमआयएम द्वारा अपने उम्मीदवारों को जिताने की आशंका हैं। इसी फार्मूले का भविष्य में पूरे देश के मुस्लिम बहुल इलाकों में भी उपयोग किया जा सकता है। महाराष्ट्र और देश की राजनीति में जाति और धर्म पर आधारित राजनैतिक दलों का उदय होना भारतीय गणतंत्र और लोकतंत्र के लिए घातक है। भारतीय राजनीति अगर इन जैसे धर्मांधों के हाथ में चली गई तो वह पूरी तरह से चरमरा जाएगी। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह राजनैतिक दल भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप हो परंतु लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के आधार को क्षति पहुंचाने का प्रयत्न इस चुनाव में जरूर किया गया है।

मुस्लिम आतंकवादियों से संबंधित कट्टरपंथी हसन बट्ट ने अपने एक लेख में लिखा है कि ‘मुझे और अन्य कई लोगों को ब्रिटेन तथा अन्य जगहों पर आतंकवादी गतिविधिया करने के लिए जिस भावना ने प्रेरित किया था वह भावना है पूरी दुनिया में इस्लामी शासन की स्थापना करना।’ ‘निजामे मुस्तफा’ अर्थात इस्लामी राजसत्ता की स्थापना करना प्रत्येक मुसलमान का प्रथम कर्तव्य है। इस्लामी सत्ता लाने का प्रयत्न है। मूलत: इस्लाम व्यक्ति स्वतंत्रता का ही विरोध करता है। इस्लाम और लोकतंत्र इन दोनों में विरोधाभास है। अत: किसी विचारधारा से उत्पन्न हुए एमआयएम जैसे धर्मांध दल लोकतंत्र के लिए घातक हैं। भारत में 800 से अधिक वर्षों तक मुसलमानों का राज था। उन्होंने जहां भी राज किया वहां हिंसा, क्रूरता और अन्य धर्मों पर बल का प्रयोग किया। अत: एक प्रश्न और खड़ा होता है कि एमआयएम जैसा कोई दल लोकतंत्र के मुखौटे में तानाशाही को शासन तो नहीं लाऐगा?

अभी तक अल्पसंख्यकों के मतों की राजनीति ही होती रही है। वह आगे भी होती रहेगी। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस ने मुसलमानों का केवल मतों के रूप में ही उपयोग किया है। यह भले ही सच्चाई है कि इन सभी से अल्पसंख्यकों को कुछ न मिला हो परंतु फिर भी इसका अर्थ यह नहीं कि वे एमआयाम जैसी धर्मांध पार्टियों का विकल्प चुनें। जब तक इस समस्या के मूल तल पहुंचने का प्रयास नहीं होगा तब तक इस तरह के धर्मांध विकल्पों की पुनरावृत्ति होती रहेगी। कांगे्रस ने 67 वर्षों में मुसलमानों का केवल एकगट्ठो मतों के रूप में ही उपयोग किया है। न उनके विकास की योजनाएं चलाईं और न ही उस समाज के गरीब तबके की उन्नति का विचार किया। जब तक ऐसा होता रहेगा तब तक एमआयएम जैसी शक्तियां इस बात का फायदा उठाती रहेंगी। एमआयएम को मतदान करके मुसलमान समाज अपना रोष व्यक्त कर रहा है। एमआयएम की जीत उस पार्टी की जीत नहीं वरन मुसलमान समाज द्वारा व्यवस्था पर व्यक्त किया गया रोष है। जब तक मुसलमान समाज के मन में उनकी प्रगति के प्रति, विकास के प्रति रोष रहेगा तब तक ओवैसी जैसों की दुकान चलती रहेगी। 2014 में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की सफलता देखकर मुस्लिम समाज घबराया हुआ है। इस स्थिति में उस समाज को सांत्वना देने के लिए एमआयएम जैसे दल आगे आते रहेंगे। उन्हें जो सफलता मिली है उनमें इस घबराए हुए समाज का प्रतिबिम्ब भी है। इस पार्टी में मुसलमान समाज को आशा की एक किरण दिखाई देती है। विधान सभा चुनावों में व्यक्तिगत या संगठनात्मक स्वार्थपूर्ति में आकंठ डूबे हुए प्रस्थापित राजनैतिक दलों ने भी इसे नजरअंदाज कर दिया। अब इन नेताओं को भी संकटों का सामना करना पड़ेगा। एमआयएम मतदाताओं के लिए नया विकल्प, नया मौका, नयी आशा के रूप में आगे बढने को तैयार है। भविष्य में महापालिका के चुनावों में भी निश्चित रूप से यह दल अपनी धर्मांधता फैलाने का प्रयत्न करेगा। इन चुनावों में एमआयएम का बढ़ा हुआ प्रभाव कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के मतों को विभाजित करनेवाला रहा। यह प्रभाव भाजपा और शिवसेना की विजय के लिए सहायक रहा। परंतु भविष्य में यह उनके लिए भी चुनौतियां उत्पन्न करेगा। विधान सभा चुनावों में भाजपा और शिवसेना जैसी समान विचारोंवाली पार्टियों में उत्पन्न तनाव ही प्रसार माध्यमों के आकर्षण का केन्द्र रहा। सीटों के बंटवारे और उनके साथ उत्पन्न हुए अन्य विवाद ही चर्चा का विषय रहे। इसी कालखंड में केवल 20 दिनों में इतना प्रसार पानेवाली एमआयएम की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। यह एक राजनैतिक पेंच है। अब सभी का ध्यान इस ओर है कि इस पेंच को सुलझाकर सभी प्रस्थापित दल समाज हित की दिशा में कौन सी भूमिका लेंगे।
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अमोल पेडणेकर

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