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हिंदू आध्यात्मिक सेवा की सकारात्मकता समाज तक पहुंचे

हिंदू आध्यात्मिक सेवा की सकारात्मकता समाज तक पहुंचे

by अमोल पेडणेकर
in मई २०१६, संपादकीय
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आजकल हिंदू अध्यात्म एवं आध्यात्मिक संस्थाओं के संदर्भ में गलत धारणाएं प्रसारित करने की प्रसार माध्यमों में जैसे होड़ लगी है। हिंदू आध्यात्मिक परंपरा के आधार पर परोपकारी संस्थाओं एवं आध्यात्मिक संस्थाओं की ओर से विशाल स्वरूप में समाज को सेवा प्रदान की जाती रही है। पर ‘हिंदू’ धर्म से जुड़ी हर बात का मजाक उड़ाने की मानो प्रसार माध्यमों ने शपथ ले रखी है। उन्होंने हर क्षण हिंदू अध्यात्म, धार्मिकता के माध्यम से सम्पन्न हो रहे ‘सेवा’ कार्य को गलत ढंग से प्रस्तुत किया है, जिससे हिंदू धर्म की छवि को नुकसान पहुंचाने की कोशिश दिखाई दे रही है। इसके लिए उन्होंने भारतीय परंपराओं से अनभिज्ञ उन नेताओं का सहारा लिया, जिन्होंने भारतीय आध्यात्मिकता एवं सेवा कार्यों की परोपकारी परंपरा की आलोचना करते हुए उसका उपहास उड़ाया है।

अध्यात्म का अर्थ कुछ अलौकिक या चमत्कारिक होना नहीं है। भारतीय अध्यात्म ग्रंथ का पहला पन्ना भी ‘मानव सेवा’ ही है और आखरी पन्ना भी। भारतीय तत्वज्ञान का सबसे बड़ा चमत्कार यही है कि वह हर मनुष्य में प्रेम और सौंदर्य का वातावरण निर्मित करता है। भारतीय आध्यात्मिक जीवन की ओर देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि अध्यात्मिक तत्वज्ञान विश्व और मानवता की ओर देखने का दृष्टिकोण विकसित करने वाला है। विश्व, समाज और व्यक्ति के बीच अधिकाधिक अपनत्व, उत्तरदायित्व, संवेदना इत्यादि भाव सेवा से ही विकसित होते हैं। सेवा ही ईश्वर भक्ति है। ‘दीनदुखियों और जरूरतमंदों की सेवा’ करना श्रेष्ठतम दृष्टि है। हमारा आध्यात्मिक तत्वज्ञान भी यही बताता है। सम्पूर्ण हिंदू आध्यात्मिक तत्वज्ञान में यही दृष्टिकोण समाया हुआ है। भारत और भारत के बाहर भारतीयों के द्वारा प्रारंभ किए गए सेवा कार्यों की कल्पना का उदय भी हिंदू आध्यात्मिक धरोहरों से ही हुआ है। ‘सेवा’ जो जाति-पाति, धर्म, गरीब-अमीर इस तरह का भेद नहीं करती। हम भारत के कई हिंदू धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं में इस सेवाभाव का कृतिरूप अनुभव ले सकते हैं।

‘सेवा’ शब्द आजकल बहुत चलन में है। अंग्रजी में उसके लिए प्रति शब्द है ‘सर्विस’। उसे भी स्वीकार किया जा चुका है। हालांकि ‘सेवा’ और ‘सर्विस’ का दूर दूर तक कोई सम्बंध नहीं है। कुछ लोग तो समाज में फैले अभाव का लाभ लेकर या लोगों को प्रलोभन देकर स्वयं के द्वारा की गई सहायता के बदले में धर्मांतरण भी करवाते हैं। वे इसे ‘सेवा’ समझते हैं। यह सेवा नहीं है। अपने हितों का चिंतन करना ‘सेवा’ नहीं हो सकती। सभी लोग सुखी रहें और सभी को निर्भय, निरामय जीवन मिले इस हेतु से सभी से सम्पर्क करना और आवश्यक समर्पण करना ही ‘सेवा’ है। जिनकी सेवा कर रहे हैं उनको परावलम्बी बनाकर अपना स्वार्थ साधने का भाव मन में नहीं होना चाहिए बल्कि अभावग्रस्तों को स्वावलम्बी बनाकर उनको सक्षम बनाना ही सही मायने में सेवा है। यही सेवा कार्य का सार भी है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी का उद्बोधन है -‘शिवभावेय जीवसेवा।’ स्वामी विवेकानंद जी ने भी इसी को सूत्र माना। गुरुनानक जी की भी सेवा को लेकर यही संकल्पना थी। संत कबीर जी की वाणी भी हमें यही सीख देती है। गुरू गोविंद सिंह जी ने भी समाज के लिए सब कुछ सहने हेतु सिद्ध रहने का संदेश दिया था। उन्होंने स्वयं राष्ट्र के लिए अपने प्राणोत्सर्ग किए और देश सेवा का सर्वोच्च उदाहरण हमारे सामने रखा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देश भर में फैले लाखों सेवा कार्य ‘सेवा ही राष्ट्रभक्ति, सेवा ही परमेश्वर की भक्ति’ यही समझ कर किए जा रहे हैं।

न त्हं कामये राज्यं न स्वग्र नापुनर्भवम्।
कामये दुखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम॥

मुझे राज्य का मोह नहीं है, स्वर्ग की कामना नहीं है, मोक्ष प्राप्ति की भी इच्छा नहीं है। मेरी केवल यही कामना है कि मैं दुखी लोगों के दुखों का निवारण कर सकूं। सेवा की यही यथार्थ भावना लेकर हजारों स्वयंसेवक सेवा कार्य कर रहे हैं।
जिस तरह पानी के उल्लेख मात्र से किसी प्यासे की प्यास नहीं बुझ सकती उसी तरह हिंदू अध्यात्म, तत्वज्ञान, संतों के उदाहरण और संघ के सेवाकार्यों के बारे में बताना ही पर्याप्त नहीं है। इससे लाभ तभी होगा जब हमारे समाज में उसका आचरण होने लगेगा। हिंंदू तत्वज्ञान ने, महापुरुषों ने समाज सेवा की भावना को ही ईश्वर सेवा का उदात्त रूप माना है। उसमें किसी भी भावना का, शब्दों का व्यावहारिक रूप तभी प्रकट होता है जब हम प्रत्यक्ष रूप से अभावग्रस्तों की सेवा करते हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात सारा संसार मेरा परिवार है। सम्पूर्ण संसार में इस कथन को सर्वप्रथम भारत ने स्वीकार किया है। इससे ज्ञान लेकर ही विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के माध्यम से सेवाकार्य सम्पन्न हो रहे हैं। परंतु प्रसार माध्यमों ने तो जैसे बौद्धिक भ्रम निर्माण करने का और हिंदू तत्वज्ञान के संदर्भ में नकारात्मक बातें फैलाने का बीड़ा उठा रखा है। राष्ट्र हित और व्यक्ति हित को ध्यान में रखते हुए समाज के प्रति आत्मीयता और संवेदनशीलता के भाव लेकर आज देशभर में कई सेवा कार्य किए जा रहे हैं। उसके लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले कार्यकर्ता कार्यरत हैं। इन सेवाकार्यों का प्रसार अत्यधिक है। इनकी यशोगाथा समाज के सामने लाने के उद्देश्य से मुंबई के उपनगर गोरेगांव में ‘हिंदू अध्यात्म और सेवा’ प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। देशभर के सामाजिक और आध्यात्मिक संस्थाओं के सेवाकार्यों का परिचय कराना ही इस प्रदर्शनी का मुख्य उद्देश्य था। अध्यात्म, धर्म, मानवीय मूल्यों का जतन और शुचितापूर्ण सेवा इत्यादि सद्गुणों पर विश्वास रखने वाले एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक व्यापक समूह ने इस प्रदर्शनी का आयोजन किया था। तीन दिनों में लगभग डेढ़ लाख लोगों ने इस प्रदर्शनी को देखा।

अत: सकारात्मक उपक्रम समाज तक पहुंचाने के उद्देश्य से ‘हिंदी विवेक’ के द्वारा ‘अध्यात्म तथा सेवा’ विशेषांक प्रकाशित किया जा रहा है। भारतीय परंपरा में मंदिर और समाज का समन्वय है। समाज के प्रत्येक सुख-दुख में अध्यात्मिक क्षेत्र का प्रत्यक्ष कृतिरूप में, सेवा के रूप में योगदान होता है। उन संस्थाओं की, व्यक्तियों की विस्तारपूर्वक जानकारी देने वाला यह विशेषांक है। अध्यात्म के विषय में सतत दूषित भाव निर्माण करने वाले समाचार प्रचारित करना, हिंदू धर्म को जबरदस्ती वैचारिक आतंकवाद के सांचे में ढालना, हिंदू सेवाकार्यों को जातीय रंग देने की कोशिश करना इत्यादि प्रयत्न समाज में निरंतर रूप से हो रहे हैं। ऐसे समय में हिंदू अध्यात्म का सेवा भाव और उसके अनुसार काम करने वाली संस्थानों की जानकारी देने का प्रयत्न इस विशेषांक के माध्यम से ‘हिंदी विवेक’ ने किया है। ‘हिंदी विवेक’ के इस प्रयास के संदर्भ में हमें अपनी राय से अवश्य अवगत कराएं।
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अमोल पेडणेकर

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