शिक्षा क्षेत्र में सुधार की जरूरत

प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा की बदहाली किसी से छिपी नहीं है| वैसे तो यह समस्या पूरे देश में है, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान के सरकारी स्कूलों की स्थिति बहुत खराब है| कई स्कूलों में तो शिक्षक पढ़ाने ही नहीं जाते, जहां जाते हैं वहां वे मन से नहीं पढ़ाते| अतः शिक्षा के क्षेत्र में अनुशासन व सक्षमता लाने के लिए कई कठोर कदम उठाने की जरूरत है|

किसी राष्ट्र व प्रदेश के निर्माण में शिक्षा की महती भूमिका होती है| इसी दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम २००९ लागू कर ६ से १४ वर्ष की आयु के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने कर लक्ष्य रखा गया है| उत्तर प्रदेश जैसे वृहद राज्य में सभी ६ से १४ आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा की परिधि में लाना एक अत्यंत कठिन कार्य है; अतः उत्तर प्रदेश की बेसिक शिक्षा परिषद सन १९७२ से प्रदेश के सभी जनपदों में परिषदीय विद्यालयों के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की दिशा में प्रयासरत है| जिसके अंतर्गत प्रदेश के लगभग १,१३,५०० प्राथमिक एवं ४५,७०० से अधिक उच्च प्राथमिक विद्यालयों के माध्यम से प्रदेश के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में शिक्षा प्रदान करने सम्बंधी दायित्व का निर्वहन कर रहा है|

 प्राथमिक शिक्षा की चुनौतियां

स्वतंत्रता के बाद उत्तर-प्रदेश ने शिक्षा का स्तर सुधारने व राज्य की गरिमा बढ़ाने के लिए हिंदी भाषा को शिक्षा का माध्यम चुना, जिसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं| कारण यह था कि मुख्यतया प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा दिलाने के पक्ष में था, इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से निकाल कर प्राइवेट स्कूलों में दाखिल करवा दिया| यहां तक कि सरकारी कर्मचारी भी राज्य और नगर निगम के स्कूलों से दूरी बनाने लगे थे| केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना सरकारी राज्य सेवाकर्मियों के बच्चों के लिए और सैनिक स्कूलों की स्थापना मिलिटरी अफसरों के बच्चों के लिए हुई|

इस वजह से सरकारी स्कूल गरीबों और अशिक्षितों के बच्चों का सहारा बन गए, जहां उन्हें नौकरशाही और शिक्षक संघों की दया पर रहना पड़ता था| इसके परिणामस्वरूप इन स्कूलों के लिए स्थापित मानकों-पाठ्यपुस्तकों की गुणवत्ता और प्रासंगिकता, विद्यार्थियों की उपलब्धियों का निरीक्षण का विकास थम गया| आज नब्बे प्रतिशत से ज्यादा सार्वजनिक खर्च की राशि भारतीय स्कूलों में अध्यापकों के वेतन और प्रशासन पर ही खर्च होती है| फिर भी विश्व में बिना अनुमति अवकाश लेने वाले अध्यापकों की संख्या भारत में सब से अधिक है| कई स्कूलों में तो अध्यापक आते ही नहीं हैं और चार में से एक सरकारी स्कूल में रोज कोई न कोई अध्यापक बिना अनुमति अवकाश ले लेता है|

उत्तर प्रदेश में जातिगत मतभेद स्कूलों में पैठ करने लगे, विशेष रूप से गांवों में, जहां स्कूलों को ‘पिछड़े’ और ‘उच्च’ वर्गों में बांट दिया गया है| इस अलगाव ने और भी भयानक रूप तब लिया जब राज्यों के निवेश भी जाति के अनुसार बंटने लगे| मंत्री अपनी जाति विशेष के हितों के लिए काम करते रहे| इसलिए आप देख सकते हैं कि सरकारी स्कूल एक विशेष समुदाय क्षेत्र में ही बने, जहां ‘अन्य जातियां’ उसका लाभ नहीं उठा सकतीं|  उन्होंने गरीब बच्चों के लाभ को नजरअंदाज किया, परन्तु अब जब वर्तमान सरकार हमारे प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों पर पहले से कहीं अधिक खर्च कर रही है, अत: हम उस राशि को प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल करने के लिए संघर्षरत हैं|

जिन कामों को उन्हें खुद करना चाहिए, उनके लिए अदालतों को आदेश देना पड़ता है| ताजा मामला उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए इलाहाबाद में उच्च न्यायालय का दिया गया आदेश है जिसमें शिक्षा-मित्रों को सहायक शिक्षक के पदों पर समायोजित किए जाने पर रोक लगानी पड़ी, क्योंकि शिक्षा-मित्रों की शैक्षिक योग्यता मात्र इंटरमीडिएट बिना किसी प्रशिक्षण के थी, जो वैधानिक रूप से न तो भर्ती कि गए और न ही समायोजित किए जा सकते हैं क्योंकि प्रदेश बी.एड./बीटीसी/एनटीटी जैसी डिग्री लिए हुए बेरोजगारों की एक लंबी फौज शिक्षक बनने की प्रतीक्षा कर रही है|

इन स्कूलों की दशा सुधारने के लिए बना तंत्र भी लगभग पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है| किसी का किसी पर नियंत्रण नहीं है| आज पूरे तंत्र पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है| सरकारी प्राथमिक स्कूलों की इस दशा को सुधारने के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि सभी सरकारी अधिकारियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों और न्यायिक कार्य से जुड़े अधिकारियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वे अपने बच्चे को पढ़ने के लिए इन्हीं स्कूलों में भेजें| अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनके वेतन से निजी कान्वेंट स्कूल की फीस के बराबर धनराशि काट ली जाए और उसे सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने में खर्च किया जाए| परन्तु वही ढाक के तीन पात! सभी के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे हैं, उच्च न्यायालय का आदेश की अवहेलना खुले आम की जा रही है, कोई देखने सुनने वाला नहीं है|

हालांकि उत्तर प्रदेश में साक्षरता पहले से कुछ बढ़ी है| अंग्रेजों के शासन के अंत तक होने वाली यानी १९४७ में भारत की साक्षरता दर केवल १२ प्रतिशत थी, जो २०११ में बढ़ कर ७४.०४ प्रतिशत हो गई| पहले से छह गुना अधिक, मगर विश्व की औसत शिक्षा दर से काफी कम| हालांकि साक्षरता के लिए सरकार काफी सक्रिय रही है| समय-समय पर कई तरह की योजनाएं लाती रही है| इसके बावजूद १९९० में किए गए अध्ययन के मुताबिक २०६० से पहले  उत्तर-प्रदेश औसत साक्षरता दर को नहीं छू सकता, क्योंकि २००१ से २०११ तक के दशक में साक्षरता दर में वृद्धि केवल ९.२ प्रतिशत रही| २००६ और २००७ में किए गए अध्ययन से पता चला कि बच्चे पढ़ने तो जा रहे हैं, लेकिन धूप, शीत और बरसात में उनके लिए कोई कक्षा की व्यवस्था नहीं है| ऐसे कई सरकारी स्कूल हैं, जहां बच्चों को पीने का साफ पानी भी मुहैया नहीं कराया गया है| लगभग ८९ प्रतिशत सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जहां शौचालय की सुविधा नहीं है|

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए प्रदेश में कई चुनौतियां हैं| लचर कानून-व्यवस्था, ढांचागत व्यवस्था के साथ शिक्षा का गिरता स्तर| हाल ही में प्रधान मंत्री मोदी ने अपने भाषण में बारहवीं के छात्रों से संवाद करने की योजना बनाई थी| जाहिर है नई सरकार, शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए प्रयास करना चाहती है|

डीएवी इंटर कॉलेज गोवर्धन के प्रधानाचार्य डॉ. विजय सारस्वत कहते हैं कि  ‘बेसिक शिक्षा का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए| साथ ही स्कूल में जितनी कक्षाएं हों उतने कक्ष और शिक्षक भी होने चाहिए| इसके साथ ही स्कूलों में बच्चों को खेलकूद भी करवाया जाए जिससे बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके, प्रतियोगिताओं का आयोजन भी होता रहे| शिक्षकों को कम्प्यूटर की ट्रेनिंग दी जाए| बोलचाल की अंग्रेजी पर जोर दिया जाए ताकि भविष्य में इंटरव्यू आदि में अंग्रेजी के कारण दिक्कत न हो|’ वह आगे बताते हैं, ‘अध्यापक और छात्रों का अनुपात भी निश्चित किया जाए और ३०-३५ बच्चों से ज्यादा एक शिक्षक के ऊपर निर्धारित न किए जाएं| उत्तर प्रदेश में बेसिक शिक्षा में निरीक्षक का कोई पद नहीं होता| सारे अधिकारी की श्रेणी में ही हैं इसलिए निरीक्षक का पद भी होना चाहिए जो समय-समय पर स्कूलों का निरीक्षण करे|’

सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी, हथकौली (हाथरस) जमुना प्रसाद कहते हैं कि  ‘सेवारत शिक्षकों की ट्रेनिंग सरकारी संस्थानों में न होकर निजी संस्थानों/एजेंसियों या स्कूलों में कराई जाए| सभी शिक्षकों के लिए १५-१५ दिन की वर्कशॉप अनिवार्य की जाए और उन्हें २०-३० दिन के लिए डेपुटेशन पर शहर के कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाने के लिए भेजा जाए| शिक्षकों को केवल पढ़ाने के लिए ही रखा जाए न कि चुनाव, जनगणना, मिड-डे मील,पोलियो समेत अन्य कार्यों के लिए|’

शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही समाज सेविका व चन्दनवन पब्लिक स्कूल, मथुरा की प्रबंधक डॉ. सुनीता नौहवार कहती हैं कि ‘उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट के निर्णय का सख्ती के साथ पालन हो, सरकारी कोष से वेतन पाने वाले कर्मचारियों के बच्चों का सरकारी स्कूल में दाखिला होने चाहिए, जिससे सरकारी स्कूलों की स्थिति से सरकारी तंत्र अवगत होता रहे| प्रदेश में संचालित आंगनबाड़ी केंद्र और प्राथमिक स्कूलों की कार्यप्रणाली के नियमित निरीक्षण अनिवार्य किए जाएं तथा खामियों के लिए दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई होनी चाहिए, तभी उत्तर प्रदेश में शिक्षा का स्तर ऊंचा हो सकेगा|’

 सर्वे के आधार पर ये सुझाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं –

१. शिक्षा के गिरते स्तर के लिए अभिभावक खुद भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं, इसलिए स्कूलों में नियमित रूप से हर महीने अभिभावक-शिक्षक मीटिंग हो| स्मार्टफोन का जमाना है और हर शिक्षक की सैलरी काफी बेहतर है इसलिए उससे उम्मीद की जा सकती है वे इसकी वीडियो रिकॉर्डिंग और फोटो सक्षम अधिकारियों तक भेजेंगे|

२. सरकारी स्कूलों में न्यूनतम फीस रखी जाए| सब कुछ फ्री होने के चलते अभिभावक स्कूल के प्रति गैर जिम्मेदार हो जाते हैं|

३. यूपी बोर्ड के पैटर्न में परिवर्तन की जरूरत है प्राथमिक स्तर पर सब्जेक्टिव पैटर्न न होकर ऑब्जेक्टिव पैटर्न हो| संभव हो तो सभी बोर्ड का विलय कर दिया जाना चाहिए| कोर्स को समान किया जाए और यूपी बोर्ड, सीबीएसई बोर्ड व आईसीएसई बोर्ड को एक बोर्ड कर दिया जाए, जिससे पढ़ाई के स्तर में समानता हो|

४. मिड डे मील की जिम्मेदारी अध्यापकों को न दी जाए| ज्यादातर समय शिक्षक खाने के इंतजाम के लिए ही परेशान रहते हैं| प्रधानों का हस्तक्षेप कम हो| स्कूल में मिड डे मिल से लेकर बिल्डिंग के निर्माण तक में प्रधान दखल देते हैं, ज्यादातर बार प्रधान स्थानीय होने के चलते दबंग होते हैं और स्कूल के शिक्षकों को प्रभावित करते हैं|

६. यूपी के प्राथमिक और जूनियर हाईस्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है, जिसे तत्काल दूर किया जाए लेकिन ये काम जल्दबाजी में न हो| कोशिश की जाए हर स्कूल में कम से कम तीन शिक्षक हों|

७. विद्यालयों की बेहतर बिल्डिंग, बाउंड्री, पानी और शौचालय के साथ ही बच्चों के लिए फर्नीचर आदि की व्यवस्था अनिवार्य की जाए| भारत के लगभग हर स्कूल में शौचालय बनाए जाएं| छात्रों व छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय हों लेकिन बात करें यूपी की तो यहां स्कूलों में शौचालय होने के बावजूद इस्तेमाल सिर्फ गिनती के होते हैं, पानी और साफ सफाई का अभाव बड़ी समस्या है| गांव के प्रधान को हर हाल में इन्हें साफ रखने की जिम्मेदारी दी जाए|

उच्च-शिक्षा

उत्तर प्रदेश में १६ विश्वविद्यालय तथा ४०० से अधिक संबद्ध महाविद्यालय एवं कई सुप्रसिद्ध चिकित्सा महाविद्यालय और विशिष्ट अध्ययनों व शोध के लिए कई संस्थान हैं|

१९५० के दशक के बाद से राज्य में विद्यालयों व सभी स्तरों पर विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने के बावजूद राज्य की जनसंख्या का ५७.३६ प्रतिशत हिस्सा ही साक्षर है|

प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम हिन्दी (कुछ निजी विद्यालयों में माध्यम अंग्रेज़ी) है, उच्चतर विद्यालय के विद्यार्थी हिंदी व अंग्रेज़ी में पढ़ाई करते हैं, जबकि विश्वविद्यालय स्तर पर आमतौर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी ही है|

१९९१ के ४०.७१ प्रतिशत के मुक़ाबले २००१ में राज्य की कुल साक्षरता दर बढ़ कर ५७.३६ प्रतिशत हो गई है|

राज्य में एक इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (कानपुर), एक इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट (लखनऊ), एक इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंफ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और काफ़ी संख्या में पॉलीटेक्निक, इंजीनियरिंग व औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान संचालित हैं जहां देश के नौनिहाल बेहतर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं|

लखनऊ में छह विश्वविद्यालय हैं| यहा कई उच्च चिकित्सा संस्थान भी हैं| प्रबंधन संस्थानों में भारतीय प्रबंधन संस्थान, लखनऊ (आई.आई.एम.), इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज़ आते हैं| यहां भारत के प्रमुखतम निजी विश्वविद्यालयों में से एक, एमिटी विश्वविद्यालय का भी परिसर है| इसके अलावा यहां बहुत से उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के भी सरकारी एवं निजी विद्यालय हैं|

इसी प्रकार मथुरा में प.दीनदयाल उपाध्याय गौ अनुसंधान एवं वेटिनरी विश्व-विद्यालय, जी.एल.ए. विश्व-विद्यालय, आगरा में दयालबाग विश्व-विद्यालय, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर  विश्व-विद्यालय तथा इनसे सम्बद्ध महाविद्यालय उच्चस्तरीय शिक्षण कार्य  द्वारा उत्तर-प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था के लिए विविध आयाम स्थापित कर मील के पत्थर का काम कर रहे हैं|

 

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