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धर्म की रक्षा करें धर्म हमारी रक्षा करेगा..

धर्म की रक्षा करें धर्म हमारी रक्षा करेगा..

by अमोल पेडणेकर
in प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७, संपादकीय
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दीप हमारी संस्कृति का श्रेष्ठतम प्रतीक है| इसी कारण हमारे यहां दीपावली को दीये की आराधना, अर्चना की जाती है| प्रकाश की महिमा उजागर करने का दीपावली बड़ा उत्सव है| अंधियारे और उजियारे में क्या अंतर होता है? शायद यह प्रश्‍न मामूली लगे, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि में छिपा अर्थ मामूली नहीं है| सच पूछें तो अंधियारा और उजियारा जीवन को जानने के दो पक्ष हैं| उजियारा-जो जीवन को दिशा देता है, गति देता है, लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता करता है| और, अंधियारा याने वह जो नकारात्मक है, जो अस्वस्थ करता है, जो हमारे विचारों में भय पैदा करता है| इसीलिए उजियारे की पूजा होती है और अंधियारे को समाप्त करने की आवश्यकता होती है| रवींद्रनाथ ठाकुर की एक रचना है, जिसका भावार्थ यह है कि जब अंधियारा अट्टाहास करने लगा, तब आदमी ने एक छोटा-सा दीया जलाया और दीये के आसपास का अंधियारा खत्म हो गया| अंधियारे की घनीभूत ताकत को आदमी ने दीये के जरिए चुनौती दी- ‘‘हे अंधियारे तू कितना भी अंधेरा पैदा कर लेकिन फिर भी यह छोटा- सा दीया कभी परास्त नहीं होगा, वह तो तुझे ही परास्त कर देगा|’’

भारतीय मानस, प्रकाश-चैतन्य मानस है| प्रकाश को अर्घ्य देकर अपनी सुबह आरंभ करने वाले जिस संस्कृति की हमने रचना की है, वह प्रकाश की आराधना की संस्कृति है| यह प्रकाश प्रकट होता है सूर्य से, चंद्र से, अग्नि से, दीपक से, और मनुष्य के भीतर मौजूद आत्मतेज से| इसी कारण सम्पूर्ण भारतीय चिंतन और वाङ्मय प्रकाशोन्मुख है| गहनतम अंधेरे के युग में जब कोई विभूति प्रकट होती है तो ऐसा लगता है कि वह व्यक्ति न होकर प्रकाश-पुंज ही है| उसका अवतीर्ण होना केवल भौतिक अंधियारे के खिलाफ नहीं होता, वह होता है मनुष्य द्वारा अपनी ही संकीर्ण वृत्ति से, पाखंड से, अंधविश्‍वास से उत्पन्न कट्टरता और हिंसा जैसे गहराते अंधियारे के विरुद्ध|

जब हम ‘तमसोमाज्योतिर्गमय’ कहते हैं तब हम अंधियारे से उजियारे की ओर मार्गक्रमण करते होते हैं| यह अंधियारा केवल भौतिक नहीं है| अपनी अंधभक्ति से सृजित अंधश्रद्धा से उत्पन्न अंधेरा है| अराष्ट्रीय विचारों का समर्थन करना भी अंधियारा ही है| इन बातों के विरुद्ध संघर्ष करना याने प्रकाश की दिशा में मार्गक्रमण करना है| दीये और प्रकाश के लिए इस तरह का संघर्ष अपनी संस्कृति में अनेक महापुरुषों ने किया है| पिछले माह हरियाणा के पंचकुला में जो कुछ हुआ उससे अपने भारत के अध्यात्म और श्रद्धा के बारे में विचार करना जरूरी हो गया है| फिल्मी तैश और पेहराव में रहने वाले ढोंगी और पाखंडी बहुरूपिया राम रहीम बाबा के कई काण्ड अब उजागर हो रहे हैं| उसे बलात्कार के आरोप में दोषी करार दिए जाने पर हुई उसकी गिरफ्तारी के विरोध में बाबा के भक्तों ने दंगा करवाया और ३६ से अधिक लोगों की जान चली गई| इस पर हम सब को अपने अंतर-मन में झांकना चाहिए और स्वयं से प्रश्‍न करना चाहिए कि इस तरह के ढोंगी बहुरूपिये धोखेबाज बाबा के रूप में इस देश में स्थापित ही क्यों और कैसे हो पाते हैं?

आदि शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु, गुरू नानक, तुलसीदास, रामकृष्ण परमहंस, चक्रधर स्वामी, ज्ञानेश्‍वर, गाडगे महाराज जैसे अनेक संत-महात्माओं की लम्बी फेहरिस्त है इस देश में| उस काल का उनका वाङ्मय आज भी अमर है| इसका मुख्य कारण है उनकी कथनी और करनी में अंतर न होना| आज इसके बिलकुल विपरीत स्थिति है| रामायण पर लाखों लोगों के समक्ष प्रवचन करना, राम किस तरह मर्यादा पुरुषोत्तम और त्यागमूर्ति थे इसे जोरशोर से बताना और स्वयं बेहिसाब सम्पत्ति में लोटना, अपने बैंक खातों को फुलाते रहना यह विडम्बना ही कही जाएगी| यही क्यों, सब को आचार की शुद्धता की सीख देना और स्वयं अनैतिकता की नाली में रेंगना, स्त्री की पवित्रता का बखान करना और अपने ही आश्रम की युवतियों पर बलात्कार करना राम रहीम जैसे ढोंगी बाबाओं की नीयत बन चुकी है|

देश में माहौल ऐसा बन गया है कि कोई भी चोरचपाटी आए और अपने को ‘भगवान’ घोषित कर दें| भोलेभाले भक्त ऐसे बाबाओं या गुरुओं की किसी कथित सिद्धि और हाथ की सफाई से किए गए दो-चार चमत्कारों के झांसे में आ जाते हैं और श्रद्धानत हो जाते हैं| गुरू जो कहे वही सत्य माना जाता है| वह जो कहे वह आदेश हो जाता है| ऐसे बाबा- लोगों को सादगी की शिक्षा देते हैं, लेकिन स्वयं धन का सार्वजनिक और घिनौना प्रदर्शन करते हैं| इतनी आलीशान कारें,  विलासी रहन-सहन, प्रचंड सम्पत्ति कहां से आई यह पूछने की सुध भी इन भक्तों को नहीं होती| राजनीतिक नेताओं की तो प्रवृत्ति ही होती है, ‘जहां भीड़, वहां हम’| धार्मिक संस्कारों में पाखंडी और बदमाश बाबाओं का प्रवेश होने के कारण सच्ची धार्मिकता विकलांग होती जा रही है| यह एक तरह की सामाजिक व आध्यात्मिक गुत्थी है| यह सब कुछ भीषण है| लेकिन इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि स्वयं को प्रबुद्ध समझने वाला वर्ग भी इससे अछूता नहीं है| राम रहीम और अन्य के मामलों में यह बात स्पष्ट हो चुकी है| समाज में ‘बाबा- शरण’ प्रवृत्ति फल-फूल रही है| उन्हें निडर होकर सवाल पूछने वाला और अध्यात्म के प्रति उपस्थित प्रश्‍नों के उत्तर खोजने वाला समाज निर्माण करने की आज हमारे समक्ष बड़ी चुनौती है| धर्म में निर्देशित मूल्यों, नीति और धर्म की कसौटी पर खरी उतरी श्रद्धा की बुनियाद पर ऐसे पाखंड़ी बाबाओं की परख करनी चाहिए| इस बात का अहसास इन भक्तों को करा देना भी एक बड़ी चुनौती है| श्रद्धा के अतिरेक के कारण ऐसे भक्त किसी पत्थर को देवता बना देते हैं और ऐसे बाबा लोग देवता जैसा बर्ताव करने की अपेक्षा मदमस्त जरासंध जैसे, जयद्रथ जैसे आसक्ति और वासना में अंधे हो जाते हैं| धर्म के मूल तत्वों- मूल्यों को पैरों तले कुचल देते हैं| इस तरह पाखंड़ियों के पाप से धर्म पर कालिख पुत रही है| प्रश्‍न है कि क्या हमारे साधु-संतों द्वारा सदियों से हमें प्रदत्त आदर्श अब धुंधले पड़ते जा रहे हैं?

हमारे संत-महात्माओं द्वारा हमें दिखाया गया प्रकाश मार्ग विस्मृत होता जा रहा है| इन महात्माओं द्वारा दिए गए ज्ञान-दीपों का प्रकाश क्या मंद पड़ता जा रहा है? और इन बुझते दीपों को लेकर यदि हम जीवन की यात्रा कर रहे हैं तो वह कितना खतरनाक है! मनुष्य के हाथ में धर्म के नाम पर अंधश्रद्धा के बुझते दीये भर रह गए हैं, और कुछ नहीं है| धर्म के नाम से अब अध्यात्म का अहसास नहीं होता|

लेकिन अंधियारे की सुरंग यहां बंद नहीं होती| आगे प्रकाश के रास्ते हैं| सब से बड़ी बात यह है कि दुनिया की नजरों में भारत और भारतीयत्व की प्रतिष्ठा बढ़ती जा रही है| विश्‍व के अनेक राष्ट्र भारत के साथ रिश्तें बढ़ाने में उत्सुक हैं| हम भी गर्व से कहते हैं, ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोसितां हमारा|’ लेकिन अंधश्रद्धा के जाल में फंसा कर श्रद्धा का हनन करने वाले राम रहीम जैसे मामले उजागर हुए कि हमारा यथार्थ खुल कर सामने आता है| ऐसे बाबाओं के कारण अंधेरे के गर्त में ढकेले जा रहे समाज को उबारने की आवश्यकता है| जैसे भी हो लेकिन गर्त में पहुंचाने वाली इस तरह का अतिरेक और अंधश्रद्धा खत्म करने की चुनौती सामाजिक संस्थाओं व व्यक्तियों को स्वीकार करनी ही चाहिए| क्योंकि-

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः|

तस्माद्धधर्मो न हन्तव्यः मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥

अर्थात, हम धर्म का हनन करेंगे तो धर्म हमारा हनन कर देगा| हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा| आज धर्म के साथ खड़े रहने की आवश्यकता है| अर्थात, उस बात के पक्ष में जो जीवन को अर्थ देती है| समाज को कमजोर करती हैं वे सभी अंधेरे के प्रतीक हैं| उसके विरोध में खड़े होने की आवश्यकता है|

दीया प्रज्वलित करें, उससे अंधेरे को जवाब दिया जा सकता है| प्रकाश के पक्ष में खड़े होने का अर्थ है उस सब का समर्थन जो जीवन को परिभाषित करता है, जीवन को दिशा देता है| दीप प्रज्वलित करें, केवल बाहर ही नहीं, अंतर के भीतर भी, मन के अंदर भी| इससे मन का अंधियारा खत्म होगा| विचारों में आई कालिख भी छंटेगी|

‘हिंदी विवेक’ का यह दीपावली विशेषांक प्रकाश के पक्ष में है, जो ९ दशक पूर्व डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने उत्सर्जित किया था| विवेक का अर्थ है, मनुष्य में विश्‍वास को जीवित रखना| समुद्र का दीप-स्तंभ क्या है? वह है- अथाह, असीमित समुंदर और घने अंधियारे में भटके लोगों को सही मार्ग पर लाने वाली प्रकाश-शक्ति! ‘हिंदी विवेक’ मासिक-पत्रिका के दीपावली विशेषांक के माध्यम से यही भूमिका प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है| पिछले आठ वर्षों से अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए ‘हिंदी विवेक’ ज्ञान-विज्ञान और साहित्य के अनेक रंग पाठकों के समक्ष प्रचुर मात्रा में प्रस्तुत करता रहा है| पिछले ८ वर्षों में ‘हिंदी विवेक’ लगातार गतिमान रहा है| भारतीय साहित्य, संस्कृति, समाज के जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पित रहा है| ‘हिंदी विवेक’ की इस यात्रा का श्रेय हमारे देशभर के ग्राहकों को है| इस सांस्कृतिक अभियान में हमारे पाठक, विज्ञापनदाता, हितचिंतक एवं लेखक समान रूप से हिस्सेदार हैं|

पिछले ८ वर्षों की यात्रा के दौरान हमने भी समय के साथ स्वयं में बदलाव किए हैं| लेकिन इस यात्रा में दृष्टि उन्हीं परिवर्तनों पर केंद्रित रही जो मनुष्य को हर अर्थ में बेहतर बनाते हैं| दीप-स्तंभ की तरह मार्गदर्शन करने वाली ‘दिशा-दर्शक’ की भूमिका ‘हिंदी विवेक’ की रही है|

दीपावली का यह पावन पर्व आप सभी के जीवन में आनंद और प्रकाश भर दें, यही अनंत शुभकामनाएं|

अमोल पेडणेकर

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