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कब चेतेंगे नदियों के दोषी

कब चेतेंगे नदियों के दोषी

by अमोल पेडणेकर
in अक्टूबर-२०२२, पर्यावरण, विशेष
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औद्योगीकरण और विकास के नाम पर हमने अपनी नदियों को न केवल उपेक्षित कर दिया है, बल्कि चरम पराकाष्ठा तक प्रदूषित कर रखा है। इसका नकारात्मक प्रभाव दिख रहा है लेकिन फिर भी हमारी पीढ़ी चेत नहीं रही है। सरकारी स्तर पर भी कोई व्यापक कार्य नहीं किया गया। अभी भी समय है कि हम सब जागें और आने वाली पीढ़ी के लिए प्रदूषण मुक्त जीवन की दिशा में कार्य करने के लिए आगे बढ़ें।

अनादि काल से जंगल, नदियां हमारे आसपास के पर्यावरण को स्वस्थ रखते हैं। करोड़ों वर्षों से जिस अमेजन के घने जंगलों में धूप भूमि तक नहीं पहुंच पाती थी, उस क्षेत्र का भी पर्यावरण आज संकटापन्न स्थिति में है। ऐसी ही स्थितियां हमारे आस-पास भी हैं। तस्वीरों में दिखने वाली नदियों एवं जंगल को देखकर हम यह समझ रहे हैं, कि हमारे आस-पास बहुत ज्यादा बहती नदियां, जंगल हैं तो यह भ्रम है। सत्य जानने के लिये हमें ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। अपनी गाड़ी से उतरकर हमें अपने गांव की नदियों और जंगल की ओर जाना है, जहां नदियों के नाले होने और अंधाधुंध कटाई से वीरान होते हुए जंगलों के सारे लक्षण मिल जायेंगे। मानव द्वारा पर्यावरण के हो रहे विनाश को समझने के लिए राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट की आवश्यकता नहीं है। केवल लक्षण ही देखें तो ये समझ आ जाता है कि हम कुविकास की ओर निरंतर बढ़ रहे हैं।

आज के वर्तमान में पर्यावरण को लेकर विकास के लक्षण कौन से होने आवश्यक हैं? जहां नदी, तालाब और जलाशय निर्मल जल से भरे हुए हों, जहां के जंगल स्वस्थ हों, उन नदी-जंगलों का अपना जैव विविधता का संसार हो, वे सब खूब फल-फूल रहे हों, ये सब विकास के लक्षण हैं। विकास में इन स्वस्थ चीजों का मिश्रण होता है।

मानव सभ्यता प्राचीन काल से नदियों के किनारे बसती रही है। लेकिन आज नदियों के अस्तित्व की समस्या मनुष्य के कारण उत्पन्न हो गई है। जल का अत्यधिक उपयोग, नदियों का दोहन, प्रदूषण और उन पर बढ़ते अतिक्रमण ने हर जगह विकट स्थिति पैदा कर दी है। बढ़ती आबादी, पीने के पानी के लिए लोगों का शहरों की ओर पलायन, औद्योगीकरण और अनियोजित विकास नदियों पर दबाव डाल रहे हैं और जीवनदायिनी नदियों को एक के बाद एक मार रहे हैं। एक नदी कभी लोगों के स्वामित्व और जिम्मेदारी की बात थी। लेकिन अभी  यह भावना कम हो रही है, घर में उपयोग में लाए जा रहे नल के कारण नदियों का लोगों से सीधा रिश्ता खत्म हो रहा है। नतीजा यह है कि आज देश की सभी प्रमुख नदियां प्रदूषित हो रही हैं। इतना ही नहीं, बल्कि देश में प्रमुख नदियों को पानी देने वाली ज्यादातर सहायक नदियां भी प्रदूषित स्थिति में हैं। औद्योगिक क्षेत्रों से बहने वाली नदियां न केवल प्रदूषण की समस्या से ग्रस्त हैं, बल्कि बड़े शहरों से होकर बहने वाली नदियों की स्थिति अधिक गम्भीर हो गई है। नदी में देखा जाने वाला अधिकांश पानी शहर द्वारा छोड़ा गया प्रदूषित जल है। इसलिए यह नदी ’नदी’ के बजाय ’सीवर’ बन जाती है। क्या हमारे गांव एवं शहरों से बहने वाली नदियों  की इस बदतर स्थिति ने हमें बेचैन कर दिया है?

नदी के किनारे चलना शुरू करेंगे तो ऐसा लगता है कि नदी गायब हो गई है। पानी के दो-चार गड्ढों को छोड़कर बाकी सब सूखा होता है। कचरा, कपड़े, प्लास्टिक, मानव मल … और बहुत सारे प्रकार का कचरा नदियों में नजर आता है । नदियों में मछलियों के मरने का मामला दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। निष्कर्षों के अनुसार, पानी में ऑक्सीजन (बीओडी) के अपघटन की दर में वृद्धि और ऑक्सीजन की कमी के कारण मछली की मृत्यु हो जाती है। जल में ऑक्सीजन जलीय जीवन के लिए आवश्यक है। इसकी मात्रा जितनी कम होगी, यह उतना ही खतरनाक है। चूंकि बहते पानी के घर्षण के कारण हवा से ऑक्सीजन पानी के साथ मिल जाती है। हानिकारक रसायन के कारण  स्वाभाविक रूप से ऑक्सीजन उत्पादन के साधन को भी नष्ट कर देते हैं। नदी के दोनों किनारों पर बस्तियों, घरों और इमारतों को देखा जा सकता है। पहले नदी के किनारे हरे-भरे खेत थे। अब यहां शहरीकरण की हवा चल रही है; तो, शहरीकरण के साथ साथ प्रदूषण भी बढ़ रहा है।

राजस्थान में नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए मैगसेसे पुरस्कार जीतने वाले राजेंद्र सिंह ने ’नदी’ को परिभाषित किया है। उनके अनुसार जिस जल को बाल्टी में भरकर पिया जा सकता है, वह ’नदी’ है। आज इसी कसौटी पर देश में बहुत कम नदियों को ’नदियां’ कहा जा सकता है। ’जल की मांग प्रबंधन’ नदी प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। देश में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 150 लीटर पानी उपलब्ध कराया जाता है, लेकिन देश के प्रमुख शहरों में यह मात्रा उससे कहीं अधिक है। नगर पालिका की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट में यह आंकड़ा 194 है। हालांकि, कुछ पर्यावरण संगठनों के अनुसार, देश के प्रमुख शहरों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 300 लीटर पानी उपलब्ध कराया जाता है। यह प्रतिदिन 744 मिलियन लीटर सीवेज उत्पन्न करता है। इस प्रदूषित जल का लगभग 70 प्रतिशत प्रदूषित जल उपचार संयंत्रों के माध्यम से उपचारित किया जाता है और नदी में छोड़ा जाता है। हालांकि, प्रदूषित सीवेज का 30 प्रतिशत धारा में छोड़ दिया जाता है। इस कारण नदीयों का जल भी पुन: अशुद्ध हो जाता है। नदियों में जमा पानी में जमा कचरे में मोटी पत्तियों, उलझी हुई जड़ों और घनी वृद्धि  के कारण, जलकुम्भी जगह-जगह जल प्रवाह को रोक देती है। उस गंदगी में कचरा फंस जाता है और सड़ जाता है। यह नदी के पात्र को संकरा करता है। जैसे-जैसे नदी शहर से होकर गुजरती है, वह अधिक से अधिक प्रदूषित हो जाती है और अंततः जैविक रूप से नदी मृत हो जाती है। नदी की जान लेने वाला यह गंदा पानी नदी में इतना कैसे मिल जाता है? और नगर निगम के इस दावे का क्या कि इसे सीवेज के पुनः उपयोग के बाद नदी में छोड़ा जाता है?

जलपरनी एक दूषित जल पर जीवित रहने वाला पौधा है। जब अन्य पौधे दूषित पानी में नहीं पनपते हैं तो यह पौधा क्यों पनपता है? इसका उत्तर खोजने के लिए हमें सीवरों में गहराई तक उतरना होगा। इस अपशिष्ट जल में बड़ी मात्रा में घरेलू अपशिष्ट जल होता है। इसके अलावा, नदियों के तट पर विभिन्न स्थानों पर धोबी घाट हैं। इन दोनों से डिटर्जेंट पाउडर में मिला हुआ सीवेज नदियों में आ जाता है। फॉस्फेट और नाइट्रेट दो रासायनिक तत्व हैं जो जलपरनी का पसंदीदा भोजन हैं। यह पौधा पानी में मौजूद सारी ऑक्सीजन को सोख लेता है। इसका मतलब यह है कि जिस नदी में यह दिखाई देता है उसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है। नदियों में जलपरनी को देखते हुए नदी की स्थिति अलग नहीं कही जानी चाहिए। विशेषज्ञों का कहना है कि चील और कौवे की उपस्थिति भी नदी के प्रदूषित होने का संकेत देती है। वैसे भी नदी क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के पक्षी विचरण करते हैं। वर्तमान में नदियों के क्षेत्र में जलपरनी के स्थान पर कौवे, चील जैसे पक्षी देखने को मिलते हैं। ये पक्षी नदी के प्रदूषण के पक्के सूचक माने जाते हैं।

शहरों में लोग क्या नदी की दुर्दशा से  बेखबर हैं? यह एक नदी नहीं है, यह एक सीवर है, कहते हैं, लेकिन आसानी से भूल जाते हैं कि नदी की दुर्दशा में उनका भी हिस्सा है। क्या नदी में आने वाले गंदे पानी और हर तरह के कचरे में वहां के लोगों का ’योगदान’ नहीं है? इन सभी नदियों का जहरीला कचरा बड़ी मुख्य नदी के पेट में जमा होता रहता है। इस लापरवाही का खामियाजा लाखों लोगों को भुगतना पड़ता है। इसका लोगों के स्वास्थ्य पर भयानक प्रभाव पड़ रहा है। इन नदियों से पानी पाने वाले लोगों में से 70 प्रतिशत लोग पीलिया, खसरा, मलेरिया, हेपेटाइटिस, डेंगू आदि जल सम्बंधी बीमारियों से प्रभावित रहते हैं। वहां के खेतों में फसलें उगती नहीं हैं। वहीं सीवेज और मिश्रित पानी कुओं में रिस रहा है। इसमें लवण की मात्रा अधिक होने के कारण इस पानी को पीने वाले लोगों में गुर्दे की पथरी की मात्रा भी बढ़ रही है। लेकिन नदी किनारे बसने वाले देश के बहुत से लोग असहाय रूप से बिना किसी गलती के सजा भुगतते हैं। यदि प्रदूषण का हानिकारक प्रभाव पड़ता है, तो प्रश्न उठता है कि प्रदूषण को रोकने के लिए क्या किया जाना चाहिए?  मरी हुई नदियों को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता? इस सवाल का जवाब है- प्रदूषण को रोका जा सकता है, नदी का कायाकल्प भी किया जा सकता है। पंजाब में काली नदी का उदाहरण अनुकरणीय है। सन् 2000 में संत बलबीर सिंह सांचेरवाल के नेतृत्व में इसका परिवर्तन शुरू हुआ। इसमें आसपास के 25 गांवों के लोग शामिल हुए। सबसे पहले नदी में जमा तलछट और गाद को साफ किया गया। नदी में गंदा पानी डालने से प्रतिबंधित किया गया। गांव में उत्पन्न प्रदूषित जल के शुद्धीकरण के लिए पारम्परिक योजनाएं लागू की गईं। किनारे पर पेड़ लगाए गए। मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। छह साल के ऐसे अथक सामूहिक प्रयासों के बाद काली नदी  का रूप पूरी तरह बदल गया। संक्षेप में कहें तो नदी को प्रदूषण मुक्त करना है तो प्रशासन को गहरी नींद से जगाना ही विकल्प है। सरकार और लोगों में पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में निवेश करने की मानसिकता नहीं है। चूंकि यह एक धन्यवादहीन काम है, यहां तक कि सरकारी अधिकारियों को भी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। ’जल ही जीवन है’ की परिभाषा उन पर लागू नहीं होती। अगर भविष्य में भी यही चलता रहा, तो देश में नदियों के बचने की कोई सम्भावना नहीं है। अगर हम नदी को जीवित रखना नहीं चाहते हैं, तो नदी खुद क्यों जीना चाहेगी? नदी के स्वास्थ्य में सुधार नहीं होगा जब तक कि शहर में रहने वाले लोग और नगर निगम प्रशासन, जो नदी के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं, दोनों इसे दिल से नहीं लेते। ये दोनों इस मामले में बेहद बेरहमी से काम कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी सताता रहता है आखिर नदियों के कातिल हम सब कब जागेंगे?

आज आवश्यकता है कि राजनीतिक, प्रशासन और जिम्मेदार नागरिक के रूप में हम विकास को ठीक ढंग से परिभाषित करें और योजनापूर्वक चलें। पनडुब्बी हो या पानी का जहाज, रेसिंग कार हो या हवाई जहाज सभी चालकों के लिए जो सूत्र हैं, वे सभी पर भी लागू होते हैं। सूत्र है …Check your speed, direction and altitude time to time and make necessary correction before its too late.

हम सबको ऐसा इसलिए भी करना चाहिये कि कल बतायेगा कि पर्यावरण के संरक्षण का सही मूल्य क्या है? और आने वाली पीढ़ियां इसका भुगतान करेगी। भविष्य की पीढ़ियां जब हमारी ओर देखें तो पर्यावरण को बर्बाद करने वाले के रूप में न देखें बल्कि जब भी देखें तो हमें विकास के पुरोधा के रूप में देखें।

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