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पूर्वांचल का भविष्य

पूर्वांचल का भविष्य

by अमोल पेडणेकर
in जनवरी २०१६, संपादकीय
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भारतीय संस्कृति की दुनियाभर में आज जो चर्चा होती है, उसकी विकास भूमि पूर्वांचल ही है। जिसका जीता जागता स्वरूप काशी से लेकर गोरखपुर तक दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का अध्यात्म और धर्म के क्षेत्र में विशेष स्थान है। सभी विद्याओं, धर्मों और संस्कृति की राजधानी काशी की महिमा अद्भुत है। भगवान बुध्द की उपदेश स्थली सारनाथ, प्रवर्तन की स्मृति से जुड़ी स्थली कुशीनगर है। भक्ति आंदोलन के प्रमुख प्रवर्तक स्वामी रामानंद, संत रोहिदास, संत कबीर और तांत्रिक पंथ का श्रेष्ठ पीठ ‘गोरक्षपीठ’ पूर्वांचल के गोरखपुर में है। सही मायने में देखा जाए तो पूर्वांचल भक्ति आंदोलन का केंद्र रहा है।

भारत की साहित्यिक अभिवृद्धि में पूर्वांचल का महान योगदान सर्वमान्य है। हिंदी के महान कवि संत कबीर बनारस से थे। गोस्वामी तुलसीदास, जिन्हें साहित्य का मूलाधर कहा जाता है, हिंदी कविता और साहित्य को आधुनिक दिशा देनेवाले बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी पूर्वांचल से थे। पूर्वांचल, जिसे देश का सबसे जागरूक क्षेत्र माना जाता है, स्वतंत्रता आंदोलन में भी अग्रणी रहा है। आजादी की लड़ाई में यदि पहला नाम उभर कर आता है तो वह है मंगल पाण्डये का। २९ मार्च १८५७ को पूर्वांचल के बलिया प्रांत का यह नौजवान बंगाल के बैरकपुर में अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे जुल्म के खिलाफ विद्रोह कर देता है। उन्होंने ही देश में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला भड़काने का महान कार्य किया था। उनके आंदोलन से ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का प्रारंभ हुआ। इतिहास का मोह और भविष्य में आगे बढ़ने की अभिलाषा पूर्वांचलवासी भी रखते हैं। उत्तर प्रदेश का यह विशाल क्षेत्र ‘गौरवशाली इतिहास’ का  क्षेत्र है, जो पूर्वांचल कहलाता है। आज आजादी के ६८ वर्षों के बाद भी पूर्वांचल गरीबी, बेकारी, उपेक्षा की चोटें खा रहा है। यह प्रदेश औद्योगिक क्षेत्र में और विकास के अन्यान्य क्षेत्रों में पिछड़ा रहा है। लगभग तीन दशक पूर्व तक पूर्वांचल कि छवि आध्यात्मिक, साहित्य के क्षेत्र में सुखी-सम्पन्न इलाके की थी।

पं. दीनदयाल उपाध्याय, पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादूर शास्त्रीजी जैसे उच्चत्तम नेताओं के कारण राजनीतिक-आर्थिक नक्शे पर पूर्वांचल की जगह जरूर बनती थी। पूर्वांचल क्षेत्र में भारत को अबतक पांच प्रधान मंत्री दिए हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, चंद्रशेखर, व्ही.पी.सिंह और नरेन्द्र मोदी। उत्तर प्रदेश के कई मुख्यमंत्री और कुछ ताकतवर केंद्रीय मंत्री भी पूर्वांचल से ही हैं। जीत यादव, रामनरेश यादव, वीरबहादुर सिंह और पूर्वांचल के अंतिम नेता के रूप में कल्पनाथ राय के नाम गिनाए जाते हैं। तब मिर्जापुर की सिमेंट और एलमीनियम फैक्ट्रियों, लोको कारखानों और बनारस-गोरखपुर के बड़े रेल कारखानों में भी पूर्वोत्तर के काफी लोगों को रोजगार मिल जाया करता था।

लेकिन अस्सी के दशक के मध्य से पूर्वांचल, राजनीति के नक्शे से गायब होना शुरू हुआ, जो अब तक अपना पहले वाला स्थान नहीं पा सका है। अब तो देश को पूर्वांचल के अनेक जिलों की याद अक्सर बुरी खबरों के कारण ही आती है। देशभर की पत्र-पत्रिकाओं में सबसे ज्यादा समाचार और आलेख आजमगढ़ पर छपते हैं। कभी दाऊद के गिरोह से जुड़े अबु सलेम को लेकर, कभी यहां के हवाला रैकेट पर तो कभी आतंकवाद से जुड़े  अनेक प्रसंगों पर आजमगढ़ का नाम ही कथित तौर पर सामने आता है। सांप्रदायिक टकराव से जुड़ी खबरों का एक स्थाई स्रोत भी पूर्वांचल में है। काशी हिंदू विश्व विद्यापिठ जैसे भव्य शैक्षणिक संस्था की स्थापना जहा मदन मोहन मालविय जैसे उच्चतम नेताओं से पुर्वांचल में हुई है। ऐसे भारत के राजनीतिक-आर्थिक नक्शे से पूर्वांचल के गायब होने को लेकर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है परंतु  इतने बड़े इलाके के अप्रासंगिक होने की वजह इतनी सीधी सरल नहीं हो सकती।

दरअसल, यह कालखंड़ अस्सी के दशक के मध्य का वह समय था जब भारत के राजनेताओं ने देश के ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों में विकास की ज्योति जगाने की इच्छाशक्ति खो दी। इसके बाद से अर्थव्यवस्था के विकास कि चिड़िया सिर्फ महानगरीय इलाकों में ही बसेरा करने लगी। इसी नीति में पूर्वांचल के विकास का एजेंड़ा सदा के लिए खो गया। अपने धूर्त राजनीतिक लाभ के लिए जातीय और धार्मिक समीकरण, संगठित अपराध और भ्रष्टाचार करने के केंद्र के रूप में आज ‘पूर्वांचल’ अपमानित है।

पर्याप्त शिक्षा और रोजगार के अवसरों के अभाव, राज्य की सघन आबादी, धीमी गति से आर्थिक विकास, कृषि में यंत्रों के अधिक प्रयोग तथा चीनी मिलों के बंद होने से बेरोजगारी में हुई वृद्धि इत्यादि  पूर्वांचल के सामाजिक असंतोष का कारण है। साथ ही पूर्वांचल को हमेशा उत्तर प्रदेश सरकार तथा अब तक की केंद्र सरकारों ने नजरअंदाज ही किया है। पिछले तीन दशक से पूर्वांचल निवासी विकास की प्रतीक्षा में हैं। पूर्वांचल की इस खस्ता हालत के कारण ही वहां अलग राज्य की मांग तीव्र हो रही है। पूर्वांचलवासियों की धारणा है की भारत में जितने भी अलग राज्य बने हैं, वहां विकास ने रफ्तार पकड़ी है। ‘पूर्वांचल’ शब्द का मूल अर्थ ही उजालों से जुड़ा है। उसे अंधकार में रहना कभी पसंद नहीं होगा। वहां अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का प्रयास हरदम होता ही रहेगा। पूर्वांचल के नागरिकों ने गुलामी को कभी स्वीकार नहीं किया। फिर चाहे वे मुगल हों या अंग्रेज; दोनों आक्रांताओं से उन्होंने जी जान से संघर्ष किया। पूर्वांचलवासियों के तेवर अब तक वैसे ही हैं।

देश की चुनावी शतरंज की बिसात पर उत्तर प्रदेश का महत्व वजीर से कम नहीं है। २०१७ में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं। पूर्वांचल निवासी इस चुनावी दौर में अपनी तकदीर बदलने हेतु प्रयास करेंगे या फिर एक बार किसी राजनीतिक चाल का मोहरा बन पिट जाएंगे। अब बस इसी बात पर पूर्वांचल के भविष्य की तस्वीर निर्भर है।

अमोल पेडणेकर

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