रा. स्व. संघ द्वारा भगवान महावीर स्वामी के 2550 वें निवार्ण वर्ष के उपलक्ष्य में दिल्ली के विज्ञान भवन में कल्याणक महोत्सव का आयोजन किया गया था। जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने अपने विचार प्रकट किए। उसी का सम्पादित अंश यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
हम रोज प्रात:काल में एकात्मता स्तोत्र कहते हैं, उसमें नित्य भगवान महावीर का स्मरण करते हैं। हमारे ज्ञान निधि में जैन आगमों की भी गणना करते हैं।
चतुर्वेदा: पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा
रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च
जैनागमास्त्रिपिटका: गुरूग्रंथ: सतां गिर:
एष: ज्ञाननिधि: श्रेष्ठ: श्रद्धेयो हृदि सर्वदा
ये हमारे भारत की ज्ञान निधि है।
बुद्धा जिनेंद्रा गोरक्ष: पाणिनिश्च पतंजलि:
शंकरो मध्वनिंबार्को श्रीरामाानुजवल्लभौ
झूलेलालोऽथ चैतन्य: तिरूवल्लुवरस्तथा
नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वर:
इस ज्ञान निधि के ये सब प्रवर्तक हैं, उपदेशक हैं क्योंकि एक ही निष्कर्ष सब बताते हैं। जब ज्ञान की खोज चली, दुनिया में भी चली, हमारे यहां भी चली तो दो प्रवृतियां चली। हमारी परम्परा की भाषा में एक श्रमण धारा और दूसरी वैदिक या ब्राह्मण धारा। खोज तो एक ही बात की करनी थी कि शाश्वत सुख कैसे मिलेगा, लेकिन निकले दो अलग दिशाओं में। दुनिया और भारत में अंतर यह रहा कि बाहर की खोज करने में दुनिया रुक गई और हमने बाहर की खोज करने के बाद अंदर खोजना प्रारम्भ किया और हम उस सत्य तक पहुंच गए।
अब वो सत्य तो है लेकिन देखने वालों की दृष्टि अलग-अलग है। जैसे एक पानी का गिलास है, उसे कोई कहता है कि वह आधा ही भरा है। दूसरा कहता है कि आधा खाली है। तीसरा कहता है पानी कम है। चौथा कहता है गिलास बड़ा है। वस्तु एक ही है, स्थिति एक ही है, पर देखनेवालों का दृष्टिकोण अलग है। ऐसे देखने वाले की प्रकृति की दृष्टि के आधार पर दर्शन, धर्म अलग-अलग बन गए, बने रहे और चल रहे हैं। सब साथ ही चल रहे हैं।
अभी साध्वी जी ने कहा था – महावीर ‘को’ मानना सरल है, महावीर ‘का’ मानना कठिन है। यह ‘का’ सबने एक ही बताया है। वो प्राप्त करने के लिए तपस आवश्यक है। तपस का तरीका भी एक ही है कि बाहर की चीजों से मुक्त होकर अंदर के सत्य को प्राप्त करो।
बाकी दुनिया ने सोचा कि सुख बाहर है परंतु वह टिकता नहीं है, वो बार-बार प्राप्त करना पड़ता है इसलिए उनका ध्येय बना कि ज्यादा से ज्यादा जियो और ज्यादा से ज्यादा भोग करो। अब भोग की वस्तुएं कम है, भोग करने वाले बहुत ज्यादा है तो स्पर्धा तो होगी। ये जीवन का सत्य है। दुनिया को भौतिक सुख चाहिए था इसलिए वो ढूंढते रहे। उन्हें मोक्ष नहीं मिला, लेकिन उपासना पद्धति तो मिली।
हमारे यहां लोगों को बाहर नहीं मिला और टिकने वाली नहीं मिला तो उन्होंने छोड़ा नहीं, अंदर खोजा, फिर उनको जोड़ने वाला तत्व मिल गया। इसलिए हम कहते हैं कि ‘सब अपने है’। किसी को अकेले नहीं जीना है, व्यक्तिवाद को छोड़ो। सबके साथ मिलजुलकर रहो। अहिंसा से चलो। संयम करो, अपरिग्रहण करो, चोरी मत करो, दूसरे के धन की इच्छा मत रखो।
भगवान महावीर ने केवल अहिंसा की बात ही नहीं कही बल्कि उसका पालन कर पराकोटि का आदर्श खड़ा किया। उनके जीवन में उन्होंने सब सहन किया। कभी सामना किया नहीं, अपूर्व सहनशक्ति का परिचय दिया। सहन करना यानी कायर नहीं बनना, सहन नहीं करना यानी भाग नहीं जाना। सामना करना यानी प्रतिकार नहीं किया लेकिन खड़े रहे भागे नहीं। ये कौन कर सकता है, जो परम शक्तिशाली है। वही अहिंसक बन सकता है, इसलिए महावीर तो महावीर थे। चाहते तो सब कर सकते थे लेकिन सद्भावना सबके लिए है। सब अपने है और किसी को धक्का नहीं पहुंचाना है तो मन, वचन, कर्म से पूर्ण अहिंसक रहे। अहिंसा का पालन करने हेतु योग्यता भी प्राप्त करनी पड़ती है। इसके लिए उपयुक्त शक्ति एवं संयम पहले धारण करना पड़ता है।
आप अभी लड़ने वाले लोगों की दुनिया को देखिए, देश में या बाहर। लड़ने की भाषा वही करते हैं, जिनको डर होता है, जो बलशाली है वो लड़ने की भाषा नहीं करते है बल्कि समझाने की भाषा करते है। साथ बुलाकर चलने की बात कहते हैं और यदि वह सबको अपना मानते हैं तो दुर्बलों को बलशाली बनाते हैं। इस प्रकार अहिंसा का आचरण भगवान महावीर का आदर्श है। उन्होंने उपदेश दे कर नहीं, ‘जी’ कर बताया है।
एक बार महाश्रमण जी ने एक वाक्य कहा था कि अहिंसा और संयम ये भगवान महावीर की सीख के दो बहुत महत्वपूर्ण हिस्से है। श्रमण परम्परा में महावीर जी ने ये जो तत्व दिए अनेकांतवाद हो या स्यादवाद हो, ये हमको एक दूसरे के साथ मिलजुलकर रहना सिखाते हैं और आगे बढ़ना सीखाते हैैं। सबको अपना बनाना सिखाते हैं और अपने ऊपर संयम रखते हुए जड़ पदार्थों के परे जाकर वास्तविक व शाश्वत सुख तक पहुंचाते हैैं।
वो क्या है, कैसे है, इसके वर्णन के बारे में सबके अलग-अलग मत हो सकते हैं, लेकिन जो कुछ है वो ‘एक’ ही है, ऐसा उनका जीवन संदेश है। अपने भारत की परम्परा का विचार करते हैं तो हमारे सारे तत्वदर्शी, सारे धर्म, सम्प्रदाय सब यही कहते है। दर्शन अलग-अलग है लेकिन प्रस्थान बिंदु एक है और व्यवहार एक है। इसलिए हम कहते है कि विविधता में एकता हमारे देश में है। कभी-कभी मैं कहता हूं कि विविधता में एकता क्या, एकता की ही विविधता हमारे देश में ध्यान में आती है। हम सब एक हैं और जब हम एक हैं तो हम बड़े प्रतापी बन जाएंगें तो क्या सारी दुनिया को जीतेंगे? ऐसा नहीं है। हमको दुनिया को जीतना नहीं है बल्कि सारी दुनिया को जोड़ना है। हम सम्पूर्ण विश्व को एक जीव के रुप में देखते है और उसमें किसी प्रकार का विभाजन नहीं करते।
जो मानने वाले हैं वो हमारे हैैं और जो न मानने वाले है वो भी हमारे हैैं। उनको भी जोड़ना है और इसलिए हम बने तो हम और लोगों को बनाने के लिए उसका उपयोग करेंगे। उनको बांधने के लिए उसका उपयोग नहीं करेंगे। एक ऐसा उच्च जीवन दर्शन हमारे यहां मिला है, इसलिए हमारा कर्तव्य है कि सारी दुनिया को रास्ता बताना है। अब उसका सही समय आ गया है क्योंकि 2 हजार वर्षों में अनेक प्रकार के प्रयोग करके विश्व अब ठोकर खा रहा है, लड़खड़ा रहा है और भारत को आशा से देख रहा है। भारत से उपाय मिलेगा, ऐसा विश्व क्यों सोचता है? क्योंकि विश्व को पता है कि ऐसे दर्शनों के आधार पर, ऐसे शाश्वत तत्वों के आधार पर और ऐसे व्यवहारों के आधार पर एक समय बीत गया। हजारों वर्षो तक हमने दुनिया को सुंदर, शांतिपूर्ण और एक बनाए रखा। लोग क्रांति की बात करते हैं हमने विश्व के जीवन में संक्राति लाई है। कर्तव्य के पालन का समय आ गया है इसलिए भगवान महावीर के उपदेश को, उनकी तपस्या को, उनके आचरण को स्मरण करना होगा और उसको अपने जीवन में भी उतारना पड़ेगा।
जब हमारे जैन बंधुओं ने तय किया कि 2250 वां वर्ष मनाएंगे तभी सरकार्यवाह जी ने प्रेस को एक निवेदन दिया और स्पष्ट तौर पर कहा कि महावीर जी का 2550 वां वर्ष मनाने में संघ सहयोगी और सहभागी है। हमारी 70 हजार शाखाओं में शाखा सहकार्यवाह द्वारा इस दिशा में प्रयत्न शुरु हो गए हैैं। हमारे बौद्धिक पाठयक्रम में भगवान महावीर की कहानी और तत्वज्ञान सबको समझ में आए ऐसी सरल भाषा में छोटा सा परिचय समाविष्ट हो गया है।
प्रवर्तक आचार्य हमारे आचार्य है। उन्होंने हमको जीवन की राह का दर्शन समय-समय पर देशकाल परिस्थिति, सुसंगत भाषा में कराया है। हमारा समाज भी अपनी रूचि के अनुसार उसके लिए अलग-अलग रास्तों को पकड़ता है, निष्ठा से चलता है, लेकिन उसको भी समझना चाहिए कि रास्ते अलग है लेकिन जाना सभी को एक ही जगह है, निकले एक ही जगह से है। जितनी मेरी शक्ति है, वैसा रास्ता मैंने लिया है। इसका मतलब यह नहीं कि दूसरा गलत है, वो भी उतना ही समर्थ है।
भगवान महावीर बनना सभी के वश की बात नहीं लेकिन उन्होंने कितने ही वर्षों तक तपस्या की। हम एक-एक कदम तो बढ़ा सकते हैैं। हम कहेंगे कि बहुत दूर है, हम वहां कैसे जाएंगे तो जहां हैं वहीं रहेंगे। कैसे जाएंगे सोचने की बजाए चलना प्रारंभ करेंगे तो कैसे जाना है, यह भी पता चलेगा और एक दिन पहुंच भी जाएंगे।
इसलिए इस वर्ष में हम संकल्प लें कि अगले वर्ष 2551वां वर्ष जब आएगा तब तक हम अपने जीवन में महावीर के सभी सिद्धांतों का विचार करके उनकी दो नई अच्छी बातें जोड़ेंगे और उसके स्थान पर दो पुरानी बुरी बातें छोड़ेगें। इस तरह हम स्वयं का निरीक्षण करके छोटे-छोटे परिवर्तन करेंगे तो सकरात्मक बदलाव अवश्य आएगा। कर्म तो हमारे हाथ में हैं। हमारे सभी धर्मो में एक समानता और विशेषता है। सभी इस बात पर सहमत हैं कि कर्म करने के बाद उसके परिणाम भोगने पड़ते हैं। इसलिए हम ऐसा कर्म करें, जिस कर्म से हमारा भविष्यकाल ठीक हो जाए। चाहे वह अगला वर्ष हो, अगला जन्म हो। हम सब ये मानते हैं कि मनुष्य की प्रगति थमती नहीं है, वह सदैव चलती है। व्यक्ति जन्म-जन्मांतर की यात्रा में उसको पूर्ण कर लेता है और एक दिन इस अंदर के परम सुख को पाकर एक छोटा महावीर वो भी बन जाता है। ये यात्रा हम प्रारम्भ करें, इस यात्रा का संकल्प हम सब लें। उस यात्रा में बढ़ने वाले आप सभी को आपके प्रगति की अनेक शुभकामनाएं। उस यात्रा में हमारे मुनि, आचार्य, संतों का ऐसा ही मार्गदर्शन हमें नित्य प्राप्त होता रहे, उनके यही चरणों में प्रार्थना और आपके लिए भी शुभकामना।
पू . सरसंघचालक डॉ. मोहनजी भागवत