बांग्लादेश में करीब तीन सप्ताह में हुई आरक्षण विरोधी हिंसा में सरकार की सख्ती के बाद 400 से भी ज्यादा लोगों की जान चली गई और एक हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका है। बांग्लादेश के इस संकट का प्रमुख कारण यही रहा कि लगातार चार बार प्रधानमंत्री बनने वाली शेख हसीना ने जनाक्रोश को बहुत हल्के में लिया, जिससे आम जनमानस में यही भाव पैदा हुआ कि वह उनकी आकांक्षाओं के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। इस मौके का भरपूर फायदा उठाया पाक सेना, आईएसआई और बांग्लादेश के पाकिस्तान परस्त राजनीतिक दलों ने। दक्षिणपंथी रुझान वाली बीएनपी और अन्य राजनीतिक दलों ने जनता में उपजे इस आक्रोश को अपने लिए सत्ता का रास्ता बनाने में इस्तेमाल किया।
5 अगस्त को प्रधानमंत्री शेख हसीना द्वारा बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देकर भारत आने के बाद से ही दुनियाभर के मीडिया में इन दिनों सबसे ज्यादा चर्चा बांग्लादेश की हो रही है। बांग्लादेश में एकाएक हुए इस तख्ता पलट से पूरी दुनिया हैरान रह गई। दरअसल किसी को उम्मीद नहीं थी कि 15 वर्षों से बंगाल की सत्ता पर एकछत्र राज कर रही बांग्लादेश की ‘आयरन लेडी’ को इस प्रकार सत्ता से बेदखल होकर देश छोड़कर भागना पड़ेगा। वैसे तो बांग्लादेश में तख्तापलट का इतिहास काफी पुराना है, 1971 में आजादी पाने के बाद बांग्लादेश में पांच वर्षों तक ही लोकतांत्रिक सरकार पूरी तरह नहीं चल पाई थी। 1975 में बांग्लादेश में पहला तख्तापलट हुआ था और सेना ने देश की सत्ता पर कब्जा कर लिया था, उसके बाद कई बार तख्ता पलट की नौबत आई और 1990 तक बांग्लादेश की सेना ने ही वहां पर सरकार चलाई। हालांकि इस बार का जो तख्ता पलट हुआ, उसके पीछे सबसे बड़ा कारण दो महीने पहले शुरू हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन को माना गया है, जिसने बांग्लादेश में लाखों युवाओं में रोष पैदा किया लेकिन छात्रों के इस आंदोलन को हिंसक बनाने में पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई तथा जमात-ए-इस्लामी द्वारा हिंसा भड़काने और विरोध प्रदर्शनों को राजनीतिक रंग देने की भूमिका भी बार-बार सामने आ रही है।
माना जा रहा है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई शेख हसीना सरकार को गिराकर विपक्षी दल ‘बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) को सत्ता में वापस लाना चाहती थी, आईएसआई पहले भी हसीना सरकार को कमजोर करने की कोशिश कर चुकी थी, इसीलिए बांग्लादेश में अचानक हुए तख्ता पलट में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की भूमिका पर निरंतर सवाल उठ रहे हैं। बांग्लादेश में हिंसा का दौर शुरू होने के चंद दिनों बाद ही पूर्व विदेश सचिव और ढ़ाका में उच्चायुक्त रहे हर्षवर्धन श्रृंगला ने कहा था कि ऐसी खबरें हैं कि बांग्लादेश के मौजूदा हालात के पीछे कट्टरपंथी तत्व हैं, जिनमें पाकिस्तान समर्थक जमात-ए-इस्लामी की स्टूडेंट विंग का नाम भी सामने आया था, इसके अलावा वहां की विपक्षी पार्टी बीएनपी भी विरोध प्रदर्शनों और आंदोलनों में शामिल थी, जिसने आंदोलन को एक राजनीतिक रंग दिया। आरक्षण विरोधी आंदोलन को हिंसक बनाने में पाकिस्तान परस्त कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी का सबसे प्रमुख योगदान रहा।
वैसे बांग्लादेश में हिंसा के पीछे शुरूआत से ही आरक्षण विरोधी आंदोलन को प्रमुख कारण माना जा रहा है। दरअसल बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई में शामिल लोगों के परिवारों को वहां 30 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा था, जिसे जनता के विरोध के बाद शेख हसीना सरकार द्वारा 2018 में खत्म कर दिया गया था लेकिन सरकार के उस फैसले के खिलाफ कुछ लोग अदालत चले गए और बांग्लादेश में हिंसा का यह दौर शुरू होने से ठीक पहले बांग्लादेश हाईकोर्ट ने इस 30 प्रतिशत आरक्षण को फिर से बहाल कर दिया, जिसके बाद वहां छात्र संगठन इसके विरोध में लगातार लामबंद होते गए और देखते ही देखते यह ऐसा आंदोलन बन गया कि जनता के विद्रोह के बाद शेख हसीना को बांग्लादेश छोड़कर ही भागना पड़ा। 1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान के दमनकारी शासन से आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की तीसरी पीढ़ी के रिश्तेदारों के लिए उच्च सरकारी पदों वाली नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण का विरोध करने वाले छात्रों का तर्क था कि उनकी कई पीढ़ियां आरक्षण का लाभ उठा चुकी हैं और इसी कारण अन्य बेरोजगारों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं।
आरक्षण विरोधी आंदोलन पर सिलसिलेवार तरीके से नजर डालें तो बांग्लादेश में आरक्षण विरोधी आंदोलन की शुरूआत 5 जून को स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों और अन्य को कुल 56 प्रतिशत आरक्षण देने के हाइकोर्ट के आदेश के बाद हुई थी। धीरे-धीरे इसके साथ विपक्षी दल और कट्टरपंथी संगठन भी जुड़ते गए और 15 जुलाई को इस आंदोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया, जिसमें दर्जनभर लोगों की मौत हो गई। 19 जुलाई को उग्र हुए आंदोलन में 66 लोगों की मौत हो गई, जिसके बाद आंदोलन पर काबू पाने के लिए सेना की तैनाती की गई। हालांकि प्रबल विरोध के कारण 21 जुलाई को वहां सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 56 प्रतिशत से घटाकर 7 प्रतिशत कर दी और 23 जुलाई को सरकार ने बदलाव से जुड़ा परिपत्र भी जारी किया, जिसे आंदोलनकारियों ने ठुकरा दिया। 4 अगस्त को आंदोलन में मारे गए लोगों के लिए न्याय और शेख हसीना के इस्तीफे की मांग को लेकर ‘स्टूडेंट्स अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन’ प्लेटफॉर्म ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया, जिसमें करीब 100 लोगों की मौत हो गई। हसीना सरकार द्वारा आंदोलन को सही ढ़ंग से संभालने के बजाय आंदोलनकारियों से निबटने के लिए जिस प्रकार की सख्ती की गई, उससे आंदोलन लगातार उग्र होता गया, जिसका विपक्षी राजनीतिक दलों ने भरपूर लाभ उठाया। आखिरकार 5 अगस्त को प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस्तीफा दिया और देश छोड़कर भारत आ गई।
बांग्लादेश में करीब तीन सप्ताह में हुई आरक्षण विरोधी हिंसा में सरकार की सख्ती के बाद 400 से भी ज्यादा लोगों की जान चली गई और एक हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका है। बांग्लादेश के इस संकट का प्रमुख कारण यही रहा कि लगातार चार बार प्रधानमंत्री बनने वाली शेख हसीना ने जनाक्रोश को बहुत हल्के में लिया, जिससे आम जनमानस में यही भाव पैदा हुआ कि वह उनकी आकांक्षाओं के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। इस मौके का भरपूर फायदा उठाया पाक सेना, आईएसआई और बांग्लादेश के पाकिस्तान परस्त राजनीतिक दलों ने। दक्षिणपंथी रुझान वाली बीएनपी और अन्य राजनीतिक दलों ने जनता में उपजे इस आक्रोश को अपने लिए सत्ता का रास्ता बनाने में इस्तेमाल किया। हालांकि करीब सात महीने पहले शेख हसीना लगातार चौथी बार सत्ता में लौटने में तो कामयाब हो गई थी लेकिन चूंकि उस दौरान आम चुनावों का बीएनपी और अन्य राजनीतिक दलों ने बहिष्कार किया था और वे जनता में यह संदेश स्थापित करने में सफल रहे कि चुनावों में जबरदस्त धांधली हुई है।
उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश में 7 जनवरी 2024 को आम चुनाव हुए थे, जिनका विपक्ष ने बहिष्कार किया था और चुनाव में शेख हसीना की पार्टी आवामी लीग को 300 में से 224 सीटों पर जीत मिली थी। चुनाव में केवल 40 प्रतिशत ही वोटिंग हुई थी और विपक्ष ने चुनाव में धांधली का आरोप लगाया था। हालांकि आवामी लीग ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का दावा किया था। उसी के बाद से किसी न किसी बहाने शेख हसीना सरकार के खिलाफ रोष बढ़ता गया और 30 प्रतिशत आरक्षण वाले मामले ने इसे भड़काने में आग में घी का काम किया।
बांग्लादेश में आंदोलन को भले ही युवाओं की जीत मानकर जश्न मनाया जा रहा हो लेकिन सही मायनों में 53 साल पुराने बांग्लादेश के सामने असली चुनौतियां अब आने वाली हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों का मानना है कि बांग्लादेश में तख्ता पलट से उत्पन्न हुई राजनीतिक अनिश्चितता के लिए सारा ठीकरा भले ही छात्रों के सिर पर फोड़ा जा रहा हो किन्तु वास्तव में इसके पीछे कई दिमाग काम कर रहे थे। एक ओर जहां कट्टरपंथी ताकतें अपना खेल खेल रही थी, चीन-पाकिस्तान जैसे बदनाम पड़ोसी देश षड्यंत्रों का ताना-बाना बुन रहे थे, वहीं पर्दे के पीछे से अमरीका भी अपनी चालें चल रहा था। जाने-माने अंतर्राष्ट्रीय विश्लेषक ब्रह्म चेलानी भी बांग्लादेश के मौजूदा घटनाक्रम में विदेशी भूमिका की बात कह चुके हैं, जिनका मानना है कि शेख हसीना ने तेजी से बांग्लादेश को आर्थिक विकास दिया लेकिन शक्तिशाली बाहरी ताकतें उनके खिलाफ खड़ी थी। भारत को तीस्ता परियोजना देने के हसीना के फैसले से चीन नाराज हो गया था और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी उनके पीछे पड़े थे।
शेख हसीना के बेटे सजीब वाजेद भी बांग्लादेश में हुए तख्तापलट के पीछे अमेरिकी हाथ होने का शक जाहिर कर चुके हैं। उनका साफतौर पर कहना है कि अमेरिका बांग्लादेश में मजबूत सरकार नहीं चाहता, वह बांग्लादेश में एक ऐसी कमजोर सरकार चाहता है, जिसे वह अपने नियंत्रण में रख सके। शेख हसीना ने स्वयं भी अमेरिकी दबाव के संकेत कुछ ही महीनों पहले तब दिए थे, जब उन्होंने एक मीटिंग में अमेरिका का नाम लिए बिना कहा था कि उनके ऊपर विदेश से दबाव बनाया जा रहा है। मई महीने में ही उन्होंने यह सनसनीखेज खुलासा भी किया था कि उन्हें एक विदेशी मुल्क से ऑफर मिला था कि अगर वो उसे बांग्लादेश में एयरबेस बनाने देती हैं तो चुनाव में उनकी आसानी से वापसी करवा दी जाएगी। कहा जा रहा है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की बांग्लादेश की आंतरिक सुरक्षा में सेंधमारी के कारण वहां तख्तापलट करना बेहद आसान हो गया। दरअसल बांग्लादेश की आंतरिक सुरक्षा पहले से ही कमजोर थी और ऐसे में पड़ोसी देशों की खुफिया एजेंसियों ने उसकी अंदरूनी राजनीति में गंभीर रूप से दखल देना शुरू कर दिया, जिसका खामियाजा शेख हसीना को तख्ता पलट के रूप में चुकाना पड़ा।
बांग्लादेश में जनता की गंभीर नाराजगी और तख्ता पलट का प्रमुख कारण यह भी रहा कि वहां शेख हसीना की सरकार ने आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी लेकिन जनता के बुनियादी मुद्दों की लगातार अनदेखी होती रही, जो अंततः उन्हें बहुत भारी पड़ा। बांग्लादेश की जनता शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे आमजन से सीधे जुड़े मुद्दों को लेकर असंतुष्ट थी और इसी असंतोष ने विपक्ष को सरकार के खिलाफ माहौल बनाने का अवसर प्रदान किया। जनता के असंतोष को नजरअंदाज करना ही शेख हसीना की सरकार के लिए इस कदर भारी पड़ा कि तख्तापलट की स्थिति लगातार पुख्ता होती चली गई।
बांग्लादेश के भविष्य के लिए निसंदेह यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि जो बांग्लादेश शेख हसीना के नेतृत्व में आर्थिक पायदान पर दक्षिण एशिया में तेजी से आगे बढ़ने वाले देश के रूप में पहचान बना रहा था, वह आज एक बार फिर दोराहे पर आकर खड़ा हो गया है। बांग्लादेश की जीडीपी वृद्धि दर लगातार 6 प्रतिशत से ऊपर थी, इसके बावजूद वहां लोगों की नाराजगी इस कदर बढ़ी कि आर्थिक प्रगति और राजनीतिक स्थिरता के बावजूद वहां तख्तापलट हो गया और कट्टरपंथी ताकतें अब उसे उसी स्थिति में ले जाने पर आमादा हैं, जहां वह अपनी आजादी के समय खड़ा था। हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी ही होगी कि बांग्लादेश किस रास्ते पर आगे बढ़ेगा और यह काफी हद तक इस पर निर्भर करेगा कि यदि वहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार सत्तासीन होती है तो उसमें कौन-कौनसे दल होंगे?
अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकारों के अनुसार यदि सरकार में ‘जमात-ए-इस्लामी’ जैसे कट्टरपंथी दल भी शामिल होते हैं तो बांग्लादेश की हालत भी तालिबान शासन जैसी ही हो सकती है और यदि ऐसा होता है तो इसका भारत और बांग्लादेश के संबंधों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। शेख हसीना के भारत के साथ रिश्ते हमेशा दोस्ताना रहे और 2009 में ढ़ाका में उनकी वापसी के बाद से ही दोनों देशों के आपसी संबंध सुदृढ़ होते रहे। यही कारण है कि बीते वर्षों में दोनों देशों के बीच आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में एक नई तरह की साझेदारी विकसित हुई, जो समस्त दक्षिण एशिया के लिए एक आदर्श उदाहरण भी बनी। सड़क, रेलवे, पारगमन का अधिकार, आम नागरिकों को दोनों देशों में आने-जाने की अनुमति, रक्षा क्षेत्र में मदद इत्यादि हर क्षेत्र में दोनों देशों की जुगलबंदी बरकरार रही।
पिछले डेढ़ दशकों में शेख हसीना के प्रधानमंत्रित्व काल में बांग्लादेश में रहने वाले हिंदू स्वयं को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करते थे लेकिन बांग्लादेश में हुए तख्ता पलट के बाद हालात पूरी तरह बदल चुके हैं, जगह-जगह हिंदुओं और मंदिरों पर हमले हो रहे हैं। बहरहाल, बांग्लादेश में अस्तित्व में आने वाली सरकार का स्वरूप ही अब यह तय करेगा कि आने वाले दिनों में बांग्लादेश के भारत के साथ संबंध कैसे रहते हैं। बांग्लादेश की कुल आबादी करीब 17 करोड़ है, जहां करीब सवा करोड़ हिंदू भी रहते हैं। ऐसे में भारत की सबसे बड़ी चिंता वहां रहने वाली करीब 8 प्रतिशत हिंदू आबादी की है। बांग्लादेश के हिंसा और अस्थिरता के माहौल में वहां रह रहे हिंदुओं में भय है। 1975 में बांग्लादेश में हुए सैन्य तख्ता पलट के समय भी कुछ ऐसा ही माहौल था। वैसे भी बांग्लादेश का कोई भी राजनीतिक घटनाक्रम हर हाल में भारत और भारतीयों को तो प्रभावित करेगा ही। यही कारण है कि भारत सरकार इस मामले में सतर्कता और पूरी संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ रही है।
– योगेश कुमार गोयल