भारत विरोधी खालिस्तानी अलगाववाद की चिंगारी को हवा देकर सिख और मुस्लिम वोट बैंक साधने की रणनीति जस्टिन ट्रूडो पर भारी पड़ती दिखाई दे रही है और अगले वर्ष के चुनाव में उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। जस्टिन ट्रूडो के सत्ता से पदच्युत होने के बाद ही भारत-कनाडा सम्बंध सामान्य हो सकते हैं।
दीपावली के वातावरण में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और कनाडा के बीच जमकर पटाखे फूटे हैं। जिसकी गूंज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब भी सुनाई दे रही है। कनाडा के हिंदू मंदिर में खालिस्तानी समर्थकों के हमले के दौरान कनाडा सरकार जिस तरह मूकदर्शक सी बनी रही, उससे यही बात सामने आई है कि कनाडा सरकार भारत विरोधी तत्वों का साथ दे रही है। अमेरिकी नागरिकता प्राप्त खालिस्तानी आतंकी गुरपतवंत सिंह पन्नू ने कुछ दिनों पहले यह धमकी दी थी कि कनाडा के हिंदुओं को दीवाली नहीं मनाने दी जाएगी। इस धमकी के बाद भी यदि खालिस्तानी हिंदू मंदिर में धावा बोलने आ गए तो इसका यही अर्थ निकलता है कि कनाडा सरकार का उन पर लगाम लगाने का कोई भाव नहीं था। घटना के बाद कनाडा के प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो और वहां के प्रमुख विपक्षी दल के नेता हिंदू मंदिर को निशाना बनाए जाने की निंदा की, परंतु इनमें से किसी ने भी खालिस्तान समर्थकों का उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा। कनाडा में पिछले कुछ समय से खालिस्तान समर्थक हिंदू मंदिरों और हिंदुओं को लगातार निशाना बना रहे हैं। कनाडा सरकार द्वारा उनके विरुद्ध कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जा रही है। कनाडा में हिंदू मंदिर पर हमले की सम्पूर्ण विश्व में निंदा होने के कारण वहां की सरकार द्वारा आनन-फानन में अब तक एकाध अपराधियों को पकड़कर दिखावे मात्र की कार्रवाई की गई है।
जब भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ऑस्ट्रेलिया दौरे पर थे तब वहां एक पत्रकार वार्ता में उनसे मंदिर पर हुए हमले को लेकर प्रश्न पूछा गया। इसका प्रसारण मीडिया हाउस ‘ऑस्ट्रेलिया टुडे’ ने किया था, तब उनके सोशल मीडिया अकाउंट्स को कनाडा सरकार ने ब्लॉक कर दिया था। ऐसा बताया जाता है कि इसका मूल कारण कनाडा के प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो की राजनीति और उनकी घटती घरेलू लोकप्रियता है। ट्रूडो कनाडा की लिबरल पार्टी के नेता है और वह 2015 से वहां के प्रधान मंत्री हैं। ऐसा माना जाता है कि अगले कुछ वर्षों में उनकी अपनी पार्टी और देश के भीतर उनके स्वयं के राजनीतिक पतन के कारण लिबरल पार्टी ट्रूडो को किनारे कर देगी। ऐसा कयास लगाया जा रहा है कि अगले वर्ष के आम चुनाव से पहले एक नए नेता के लिए पार्टी प्रयास करेगी। विदित हो कि पिछले महीने साप्ताहिक इकोनॉमिस्ट ने ट्रूडो की आलोचना करते हुए ‘कनाडा को ट्रूडो का ट्रैप’ शीर्षक नाम से एक लेख प्रकाशित किया था। वास्तव में ट्रूडो उन नेताओं की सूची में शामिल हो सकते थे जिन्हें यह साप्ताहिक पसंद करेगा, परंतु ट्रूडो ने निराश किया है। पत्रिका ने आगे लिखा है कि द इकोनॉमिस्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि ट्रूडो की राजनीति सुशासन का विकल्प नहीं है। ट्रूडो उनकी पार्टी के लिए बोझ बन गए हैं। इनके दस वर्षों के कार्यकाल के दौरान उनके देश में खालिस्तानियों का प्रभाव लगातार बढ़ा है। कनाडा सरकार ने इनके बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है। जब तक ट्रूडो कनाडा के सत्ता में हैं तब तक भारत और कनाडा के बीच तनाव कम होने की सम्भावना बहुत कम है।
भारत को इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि कनाडा में भारतीय मूल के लोगों को और धार्मिक स्थलों पर खालिस्तानी तत्वों द्वारा आगे भी निशाना बनाया जा सकता है क्योंकि वहां कुछ माह बाद ही आम चुनाव होना है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि इन चुनावों में अपनी राजनीतिक दशा सुधारने के लिए प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो भारत की एकता और अखंडता के लिए संकट बने खालिस्तानी समर्थकों का सहारा ले रहे हैं। ऐसा लगता है कि कनाडा में खालिस्तानियों ने अब भारत विरोधी नारे व हिंदू मंदिरों पर हमला करने की रणनीति अपना ली है। हिंदुओं ने भी ‘वंदे मातरम्’ का नारा लगाकर खालिस्तानियों को इस बार कड़ा उत्तर दिया है। हिंदुओं पर प्रहार करने वाले खालिस्तानी आतंकवाद को उत्तर देने के अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं है। कनाडा में हिंदू मंदिर पर हमले के विरोध में लोगों का क्रोध फूट पड़ा है। हजारों भारतीय-कनाडाई लोग सड़कों पर उतर आए थे। उन्होंने इस घटना के जिम्मेदार खालिस्तान समर्थक तत्वों के विरोध में रैली निकाली। कनाडाई पुलिस की ओर से इसे गैरकानूनी घोषित कर दिया गया, खालिस्तानियों के प्रति हिंदुओं में घृणा अपने चरम पर क्यों पहुंच गई है? इस पर भी सोचने की आवश्यकता है।
भारत को कनाडा के साथ-साथ अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड इन देशों के चाल चलन पर भी ध्यान देना होगा क्योंकि अमेरिका गुरपतवंत सिंह पन्नू को खुलेआम संरक्षण दे रहा है। ये पांचों देश एक-दूसरे के करीबी मित्र हैं और बहुत ही संवेदनशील गुप्त सूचनाएं एक-दूसरे से ‘साझा’ करते हैं। इन देशों में भी खालिस्तानी गतिविधियां फैलने की आशंका से अनदेखा नहीं किया जा सकता। भारत विरोधी खालिस्तानी समूह इन देशों के लोकतांत्रिक मूल्यों का उपयोग करके अपनी शक्ति बढ़ा रहे हैं, जो हमारे देश पर संकट की चेतावनी है। इसलिए भारत सरकार मात्र कनाडा को सामने रखकर इस मंडराते संकट के बारे में नहीं सोच सकती।
मालूम हो कि जून 2023 में कनाडा में खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के मामले में बिना किसी साक्ष्य के भारत का हाथ होने का आरोप लगाया गया था। जिसके बाद से भारत और कनाडा दोनों देशों के बीच विवाद शुरू हुआ। वह विवाद इस समय अपने चरम पर है। कनाडा ने संयुक्त राज्य अमेरिका की सहायता से अंतरराष्ट्रीय समर्थन प्राप्त करने की चेष्टा की। हालांकि किसी भी देश ने भारत पर लगे आरोप का समर्थन नहीं किया। इस व्यवहार ने भारत-कनाडा सम्बंधों को बहुत नुकसान पहुंचाया है। कनाडा, जिसे हम लोकतांत्रिक मित्र देश मानते हैं, उसने भारत की पीठ में छुरा घोंपा है। मुट्ठी भर खालिस्तान समर्थकों को अपने राजनैतिक स्वार्थ का साधन बना दिया क्योंकि ऐसे कट्टरपंथी स्थानीय नेताओं के लिए वोट बैंक होते हैं। बाद में अक्टूबर 2024 को जस्टिन ट्रूडो ने इस बात को स्वीकार कर लिया कि निज्जर हत्याकांड को लेकर भारत पर लगाए आरोप उन्होंने बिना किसी ठोस प्रमाण के दिए थे।
कनाडा के प्रधान मंत्री जस्टिन ट्रूडो को देश में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। कनाडाई लोगों की जस्टिन ट्रूडो के प्रति नाराजगी बढ़ रही है, वहीं पार्टी में भी उनके विरुद्ध असंतोष बढ़ रहा है। इन्हीं कारणों से ट्रूडो की ‘लिबरल पार्टी’ की लोकप्रियता पिछले कुछ समय के दौरान तेजी से घटी है। ट्रूडो अपनी खोई हुई लोकप्रियता को वापस पाने के लिए कनाडा के मुसलमान और सिख जनसंख्या को साधने के प्रयास में हैं। कनाडा की 3.9 करोड़ से अधिक की जनसंख्या में 8.30 लाख हिंदू, 7.70 लाख सिख और 18 लाख के लगभग मुसलमान हैं। मुस्लिम जनसंख्या में से अधिकांश का सम्बंध पाकिस्तान से है। अतीत का अनुभव बताता है कि कनाडा में जब कोई पार्टी मुसलमानों के साथ सिख वोट बैंक को साध लेती है तो चुनाव में उसकी जीत की सम्भावना बढ़ जाती है। ऐसे में जस्टिन ट्रूडो मुसलमान व सिख मतदाताओं के वोट साधने के लिए भारत विरोधी रणनीति अपनाए हुए है। इससे यह स्पष्ट है कि अपनी नीतियों के कारण ट्रूडो ने भारत जैसे देश के साथ अनावश्यक विवाद पैदा किया है। भारत की द़ृष्टि से कनाडा और खालिस्तान के बीच पुराने रिश्ते एक बार फिर उछलकर सामने आ रहे हैं। जब भारत में खालिस्तानी आतंकवाद चरम सीमा पर था तब 1980 के दशक से खालिस्तानी प्रवृत्ति के लोगों ने कनाडा में शरण ली है। वर्ष 1985 में ‘कनिष्क एयर इंडिया’ के विमान को खालिस्तानियों ने उड़ा दिया था। उस समय भारत सरकार के साक्ष्य देने के बाद भी कनाडा ने उसे गम्भीरता से नहीं लिया।
पंजाब में सिखों का स्वतंत्र देश का आंदोलन बहुत पुराना नहीं है, परंतु सिखों की इस मांग ने 1970 और 1980 के दशक में आतंकवाद और हिंसा का रूप ले लिया। भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी, पंजाब के तत्कालीन मुख्य मंत्री बेअंत सिंह, जनरल अरुण वैद्य जैसे कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इस आतंकवाद का शिकार बने। 1986 के बाद पंजाब पुलिस ने इन खालिस्तानी आतंकवादियों के विरुद्ध बड़े स्तर पर कार्रवाई की। इस प्रकार खालिस्तानी और इससे जुड़े आतंकवाद पर अंकुश लगा। यह आंदोलन मुख्य रूप से ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों में रहने वाले कुछ सिख समुदाय तक ही सीमित था, परंतु वर्तमान में इसके प्रबल समर्थक पूरे भारत और भारत के बाहर भी फैल गए हैं। पाकिस्तान बनने के बाद राष्ट्र के अंदर ही एक नया राष्ट्र रचने की बात शुरू की थी। पहली बार भारतीय सेना को अपने ही देश के लोगों के विरुद्ध लड़ना पड़ा। देश के अंदर विभिन्न राजनैतिक मंशाओं या कूटनीतियों ने जनता को बरगलाकर अपने धर्म, जाति, वर्ग, भाषा और जनसंख्या के आधार पर अलग राष्ट्र, अलग ध्वज, अलग प्रधान मंत्री यहां तक कि अलग संविधान और अलग सत्ता तक की मांग करना शुरू कर दी। इसकी हिंसक प्रदर्शन की शुरुआत तो वैसे पंजाब के भिंडरावाला से हुई, परंतु तत्कालीन नेतृत्व ने उस मांग को अधिक पनपने नहीं दिया।
1980 और 1990 के दशक में पंजाब में फैली खालिस्तानी प्रवृत्ति और उससे देश को हुई हानि की यादें बहुत पुरानी नहीं हैं। ऐसे में यदि खालिस्तान की मांग दोबारा सामने आती है तो समय रहते इसका प्रतिकार किया जाना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। भारत सरकार के लिए असली चुनौती कनाडा में रहने वाले अपने 17 लाख नागरिकों को आवश्यक राजनयिक सुविधाएं प्रदान करना और भारत-कनाडा व्यापार सम्बंधों को बनाए रखना होगा। भारत की घरेलू राजनीति में इन आरोपों से मोदी सरकार को लाभ हुआ है। मोदी सरकार के संदर्भ में एक भाव भारतीयों में बना है कि मोदी सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों पर सख्त हैं और इसके लिए देश की सीमा के बाहर भी ऑपरेशन कर सकती हैं। वर्तमान वातावरण में कनाडा और जस्टिन ट्रूडोे जितना अधिक आरोप लगाते हैं, उतना अधिक तनाव बढ़ता है और उतना ही सत्तारूढ़ दल को लाभ होता दिख रहा है।
कनाडा में हिंदुओं पर हुए कई आतंकी हमलों के लिए खालिस्तानी जिम्मेदार है और कनाडाई सरकार उनका व्यापक समर्थन करती है। भारत ने इन सभी तत्वों के विरुद्ध कनाडा सरकार को बार-बार पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध कराए हैं। कनाडा में हिंदुओं को डराना-धमकाना भी हाल ही में बढ़ा है। हिंदुओं को कनाडा छोड़कर अपने देश वापस जाने की धमकी दी जा रही है और कनाडा सरकार इसके विरुद्ध कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। वहां हिंदू सुरक्षित नहीं हैं, कनाडा की कमजोर ट्रूडो सरकार खालिस्तानियों के विरुद्ध कार्रवाई करने का नैतिक साहस नहीं दिखा पाई है, अब हिंदुओं की जीवन पर खालिस्तानी हावी हो रहे हैं। इसीलिए कनाडा से अपेक्षा की जाती है कि वह खालिस्तान के इस उपद्रव को समय रहते रोके अन्यथा भारत की ओर से कनाडा में अन्य खालिस्तानी आतंकवादी भी ‘अज्ञात’ शक्तियों द्वारा ‘निस्तेज’ कर दिए जाएंगे! कही कनाडा द्वारा निर्माण किया जा रहा खलिस्तानी आग का धुआं उनके ही देश में और फैल न जाए। इस बात का संज्ञान कनाडा के प्रधान मंत्री पद पर विराजमान जस्टिस ट्रूडो को होना आवश्यक है।
दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय राजनीति का लाभ उठाकर इस तनाव को कम करने का अवसर भारत को मिल सकता है। अमेरिका के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी विजयी हुई है। कुछ दिनों में वह अमेरिका के राष्ट्रपति बन सकते हैं। उनकी नीति भारत को सहयोग देने की है। कनाडा में अगले वर्ष होने वाले चुनाव में यदि ट्रूडो सत्ता से पदच्युत होते हैं तो खालिस्तान मुद्दे पर दोनों देशों को सकारात्मक कदम उठाने का अवसर मिल जाएगा।
वास्तव लेख आहे…