कोई छोटा सा नियम भी तय किया और उसे जन्मभर निभाया तो वह एक प्रकार की तपस्या ही होगी। किसी ने राम नाम का जप करने का निश्चय किया, 108 मनको की माला रोज करने का निश्चय किया, समय निश्चित किया तथा नियमों का अक्षरश: पालन किया तो उसे तपस्या ही कहा जाएगा। चाहे परीक्षा हो, स्वत: का विवाह हो या कोई दुखद प्रसंग हो, यदि नियम किया है तो उसका पालन करना ही पड़ेगा।
वर्षों तक किसी नियम का पालन तपस्या ही कहलाता है। इससे मनुष्य का मनोबल बढ़ता है। जीवन में सुख-दुख के प्रसंग आते ही रहते हैं। जिस व्यक्ति का मनोबल ऊंचा होता है वह व्यक्ति ऐसे प्रसंगों को सहजता से पार कर लेता है।
प्रतिदिन शाखा जाना यह भी एक नियम ही है। शाखा कार्य पद्धति विकसित करने वाले डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार किसी काम से किसी गांव गए थे। काम समाप्त कर वहां से निकलने में उन्हें देर हो गई। नागपुर में उन्हें प्रभात शाखा में जाना था। नागपुर जाने वाली कोई भी बस नहीं थी। डॉक्टर पैदल ही निकले। बहुत देर चलने के बाद पीछे से एक ट्रक आया। ट्रक डॉक्टर जी के पास रुका। ड्राइवर डॉक्टर जी का परीचित था। उसने समय से डॉक्टर जी को नागपुर पहुंचाया और डॉक्टर जी समय से शाखा में जा सके।
डॉक्टर जी के चाचा आबाजी हेडगेवार की बहन (उनकी भी) बीमार थी, इसलिए डॉक्टर जी को कुछ दिनों के लिए इंदौर जाना पड़ा। इंदौर और देवास इन दो स्थानों पर उन्होंने शाखाएं प्रारंभ की।
बिहार में राजगीर में गर्म पानी के सोते हैं। डॉक्टर जी को उपचार हेतु कुछ दिनों के लिए वहां जाना पड़ा। डॉक्टर जी ने वहां एक विद्यार्थी शाखा प्रारंभ की।
विश्व हिंदू परिषद महाराष्ट्र का अधिवेशन पंढरपुर में था। सभा के अध्यक्ष परम पूजनीय धूंढा महाराज देगलूरकर थे। अनेक वक्ताओं में एक वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी थे। उन्होंने अध्यक्ष महोदय से अनुरोध किया कि मैं 7:00 बजे संघ शाखा में जाऊंगा। 7:30 बजे वापस आऊंगा। यह समय छोड़कर मेरा भाषण रखिए। पूजनीय धुंढा महाराज को श्री गुरु जी का शाखा में जाने का नियम मालूम था। तय समय के अनुसार पंढरपुर के नगर कार्यवाह मंच के पास कार लेकर आए। श्री गुरु जी शाखा में जाकर आए, निश्चित समय 7:30 बजे उनका भाषण हुआ।
पांचवें सरसंघचालक सुदर्शन जी पदमुक्त होने के बाद भोपाल के ‘समिधा’ कार्यालय में रहने आए। वहां उन्होंने संपर्क कर विद्यार्थी बाल शाखा प्रारंभ की। वे स्वत: नियमित बाल शाखा में जाते थे। उस समय उनकी उम्र 80 वर्ष थी।
परीक्षा हो या घर में कोई मंगल प्रसंग हो, मेरी शाखा में विघ्न नहीं आएगा, इसकी चिंता करने वाले कर्मठ कार्यकर्ता प्रत्येक राज्य में मिलेंगे।
एक जिला प्रचारक द्वारा बताया गया एक किस्सा!
एक स्वयंसेवक के बहन की अचानक मृत्यु हो गई। उसकी आयु 28 वर्ष थी। बस में बैठने के बाद अचानक सीट पर ही उसकी मृत्यु हो गई। जब उसका पार्थिव शरीर घर लाया गया तो उसके मां-बाप के शोक का पारावर नहीं था। दूसरे दिन अंतिम संस्कार हुआ, परंतु उस दिन शाम को स्वयंसेवक शाखा में था।
हजारों लाखों स्वयंसेवक रोज “पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते” यह भारत माता की प्रार्थना कहते हैं। यह प्रार्थना सामूहिक होती है। इसमें व्यक्तिगत लाभ का लवलेश भी नहीं होता। राष्ट्र कल्याण के हेतु से चलने वाली सामूहिक ‘ तपस्या’ याने संघ की शाखा! तपस्या से मनोबल बढ़ता है। जैसे व्यक्ति का वैसे ही समाज का भी।
पराभूत मानसिकता से बाहर आकर विजय की आकांक्षा से हिंदू समाज खड़ा होना चाहिए।
द्वितीय सरसंघचालक परम पूजनीय श्रीगुरुजी कहा करते थे, स्वयंसेवक ‘ शाखा’ चालू रखें तो विजय ही विजय है।
“एकात्म मानव दर्शन” के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा है कि समाज का विराट रूप हमेशा जागृत होना चाहिए। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक तथा कच्छ से लेकर कामरूप तक फैला हुआ विशाल हिंदू समाज एक महत्वाकांक्षा से एक ही समय खड़ा हुआ, इसका अनुभव राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के समय सब ने किया है। लाखों गांवों से ग्रामवासियों ने शिला पूजन कर वे शिलाएं अयोध्या भेजी थी। रामभक्ति के कारण यह संभव हुआ, ऐसा कहा जा सकता है। उसी समय श्री रामानंद सागर निर्मित रामायण धारावाहिक शुरू हुआ था। श्रीराम इन तीन अक्षरों का जनमानस पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अनुभव सारे देश को हुआ। समाज के विराट स्वरूप का वास्तविक दर्शन दोनों कार सेवा में हुआ। सभी प्रांतों के, सभी जाति वर्णों के, सभी भाषा-भाषियों के, सभी पंथ-संप्रदायों के स्त्री-पुरुष, हमारे पूर्वज श्री राम ही हैं, ऐसा कहने वाले कुछ मुसलमान एवं ईसाई कारसेवक भी शामिल थे। इसमें सभी दलों के लोग भी शामिल हो सकते हैं।
500 वर्षों पूर्व लगा कलंक धो डालने की अदम्य इच्छा (will power) कार सेवकों के मन में थी। अपमान धो डालने की थी। 5 घंटो में गुलामी की निशानी कहलाने वाला बाबरी ढांचा जमीन पर था।
राजा सुहेलदेव से लेकर 1992 तक बहुत से युद्ध हुए। लाखों लोगों का बलिदान हुआ, परंतु उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम, सारा हिंदू समाज एक ही इच्छा लेकर खड़ा हुआ। ऐसी दैदीप्यमान घटना हमारे देश के इतिहास में शायद पहली ही हो। राजे रजवाड़ों के काल में “यथा राजा तथा प्रजा” ऐसा सिखाया जाता था। अब “यथा प्रजा तथा राजा” ऐसा सिखाना आवश्यक है।
समाज का ‘विराट’ रूप जागृत है, इसका अनुभव दूर-दूर से आए हुए कार सेवकों को हुआ। तमिल, मलयालम, तेलुगू, कन्नड़, उत्तर भारत के लोग कौन है, यह जानना पहचानना कठिन था। दक्षिण के कारसेवक हिंदी नहीं बोल सकते थे। केवल प्रांत एवं कारसेवक कहने के साथ ही जो आत्मीयता प्रकट होती थी, उससे दक्षिण के कारसेवक गदगद हो जाते थे। घर में बुलाना, मालिश के लिए तेल देना, गर्म पानी, पेट भर भोजन एवं यदि रात भर रुकना हो तो बिस्तर की व्यवस्था। ना जान ना पहचान, राम कार्य के लिए जा रहे हैं, यही अपनी पहचान!
न्यायालय में 30 वर्ष का समय चला गया। एक पीढ़ी बदल गई, परंतु मंदिर के लिए निधि देने में उतना ही उत्साह था। प्राण प्रतिष्ठा के दिन जनता का उत्साह कुछ और ही था।
श्री राम सेतु रक्षा आंदोलन में यही अनुभव हुआ। अरुणाचल से लेकर एर्नाकुलम तक निश्चित किए हुए स्थान तथा निश्चित समय पर 2 घंटे का रास्ता रोको आंदोलन किया गया।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड जमीन विवाद के संबंध में जम्मू के सभी नागरिकों और बच्चों ने ‘शंकर, पार्वती एवं गणेश’ का स्वांग धर कर आंदोलन किया था।
महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज, दशमेश श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज, लचित बडफुकन, हरिहर बुक्क इत्यादि अभी-अभी के काल में हुए वीर पराक्रमी महापुरुषों के कारण विराट हिंदू समाज की जागृति का प्रत्यय आया, परंतु वह विशिष्ट भौगोलिक इकाई तक मर्यादित था तथा कुछ काल तक उसका प्रभाव दिखता रहा। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, सब ओर हिंदू समाज जागृत है, ऐसा अनुभव स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक समाज रचना में पहली बार देखने को मिला।
किसी प्रसंग में जागृत होने वाला समाज राष्ट्रों की आपस की स्पर्धा में बहुत अधिक काल तक नहीं टिक सकता। समाज का विराट स्वरूप हमेशा जागृत रहना चाहिए। इसीलिए राष्ट्र कल्याण का संकल्प कर डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। राष्ट्र का विराट स्वरूप जागृत रहना यह स्वाभिमान का लक्षण है। राष्ट्र रक्षा की गारंटी है। प्रगति पथ पर चलने का विश्वास है।
संघ कार्य का व्यावहारिक रूप यानी रोज लगने वाली संघ शाखा। राष्ट्र कल्याण का सामूहिक संकल्प स्मरण करने का स्थान।
रोज राम नाम का यह व्यक्ति का स्वत: का संकल्प। राष्ट्र कल्याण का संकल्प सामूहिक ही हो सकता है। संकल्प का रोज स्मरण करना ही तपस्या कहलाती है। राष्ट्र कल्याण का सामूहिक संकल्प याने संघ शाखा अर्थात राष्ट्रीय तपस्थली। वर्तमान में सब दूर 80000 तप स्थानों पर लाखों नागरिक राष्ट्र कल्याण का संकल्प “परम वैभवं नेतुमेतत स्वराष्ट्रम”, इन शब्दों से करते रहते हैं।
रोज शाखा में कही जाने वाली प्रार्थना में इसका उल्लेख है। परम सुख देने वाला परम वैभव ऐसा भी कहा जा सकता है। परम सुख की व्याख्या सूत्र रूप से प्रार्थना में दी गई है। समुत्कर्ष तथा नि:श्रेयस इन दोनों की प्राप्ति याने परम सुख। समाज के प्रत्येक घटक को यह प्राप्त होना चाहिए। समुत्कर्ष याने भौतिक संपदा और नि:श्रेयस याने ज्ञानसंपदा।
‘परम वैभव’, सबका कल्याण करने वाला, सर्व समावेशक, एकात्म दृष्टिकोण देनेवाला विचार है। वर्ग संघर्ष तथा राक्षसी स्पर्धा यह उसका आधार नहीं है। बंधुत्व की भावना यह उसका आधार है। बंधुत्व की भावना यह आध्यात्मिक तत्व है। तत त्वम असि इस वैश्विक सत्य को व्यवहार में उतारने का वह आचरण है। लिबर्टी, इक्वलिटी फ्रेटरनिटी का वह वैज्ञानिक आधार है। इसीलिए शायद डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर ने कहा होगा कि ये तत्व भगवान गौतम बुद्ध के धम्म से लिया गया है। (भौतिकवादी क्रांति से नहीं)
‘तत्वमसी’ यह सत्य समझ में आ गया, हमारे व्यवहार में पूरी तरह आ गया तो बंधुभाव का विस्तार व विकास कितना भी हो सकता है। अपना परिवार, अपना गांव, अपना देश ये सारे विश्व एवं उसके आगे भी चराचर की सृष्टि तक उसका विस्तार हो सकता है। “वसुधैव कुटुंबकम” इसी सत्य का विशाल रूप है।
‘तत्वमसी’ इस वैश्विक सत्य पर आधारित ज्ञान परंपरा को धर्म कहते हैं। तप तथा संगठन शक्ति का अहंकार होकर या दुनिया की चकाचौंध से भ्रमित होकर हम ध्येय से विचलित ना हो इसलिए प्रार्थना की एक पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण है। उसका भावार्थ है, ‘हमारी विजय शालिनी संगठित कार्य शक्ति’ इस धर्म की (भारत में उत्पन्न ज्ञान परंपरा) रक्षा करने में तथा अपने राष्ट्र को परम वैभव के शिखर पर पहुंचाने में समर्थ हो।
विजेत्री च न: संहता कार्यशक्ति:
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम।।
1940 में डॉक्टर साहब की मृत्यु हो गई। 1939 में सिंदी में प्रमुख पदाधिकारीयों की एक बैठक डॉक्टर साहब की उपस्थिति में हुई। 10 दिन यह बैठक चली। उस बैठक में यह प्रार्थना संघ की प्रार्थना के रूप में सर्वसम्मति से स्वीकार की गई। 1940 से आज तक सभी शाखा स्थान पर अर्थात राष्ट्रीय तप स्थानों पर यह प्रार्थना कही जाती है। इतने वर्षों की तपस्या के बाद इस संघ प्रार्थना को अब मंत्र का सामर्थ्य प्राप्त हो गया है।
स्वतंत्रता आंदोलन की व्यस्तता के समय में भी परम पूजनीय डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार की दूरदृष्टि ने संगठन शास्त्र का मंत्र अर्थात संघ की शाखा देश को दी तथा ‘प्रार्थना’ के रूप में राष्ट्र कल्याण का पूर्णदर्शन देश को दिया, इसी में उनका असामान्यत्व प्रकट होता है।
चलिए, हम आज से ही अपने घर के पास की संघ शाखा में जाना शुरू करें तथा राष्ट्र कल्याण के उद्देश्य से चलने वाली तपस्या में सहभागी हों।
-माधव (मधु भाई) कुलकर्णी