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संघ शाखा लोकतंत्र का आधार

संघ शाखा लोकतंत्र का आधार

by हिंदी विवेक
in संघ
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26 नवम्बर संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। 26 नवंबर 1949 को स्वतंत्र भारत का संविधान स्वीकार किया गया। भारत स्वतंत्र, सार्वभौम एवं लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में स्वाभिमान से विश्व के राष्ट्र समूह में खड़ा हो गया।
संविधान की प्रस्तावना “हम भारत के लोग” इन शब्दों से प्रारंभ होती है। भीड़ को “लोग” यह संज्ञा प्राप्त नहीं होती। “लोग” याने एक दिशा में अपने स्वभाव के अनुसार चलने वाला समूह।

संविधान के अनुसार हमारा देश लोकतांत्रिक हुआ है, ऐसा न होकर हम प्राचीन काल से ही लोकतांत्रिक मानसिकता के होने के कारण हमारा संविधान लोकतांत्रिक राज्य स्थापित करने वाला हुआ। लोकतंत्र याने निरंतर विचार विमर्श, चर्चा, मत प्रदर्शन की पूर्ण स्वतंत्रता, उपासना पद्धति की पूर्ण स्वतंत्रता, दूसरे का मत सुनने की मानसिकता, केवल दूसरे के मत के प्रति सहिष्णुता ही नहीं वरन दूसरे के मत का आदर करना, ऐसा वर्णन किया जाता है। भारतीय लोक जीवन में यह लोकतांत्रिक जीवन मूल्य गहराई तक समाये हुए दिखते हैं।

वेद काल से भारत में “लोक सभ्यता” विकसित हो रही है। इस काल में असंख्य मत मतान्तरों का जन्म हुआ। अनेक पंथ, उपपंथ, संप्रदाय निर्माण हुए। अलग-अलग दर्शन निर्माण हुए। अनेक भाषाओं का तथा कलाओं का विकास हुआ। यह सब हमारे हैं ऐसा हमें लगता है। तीर्थ यात्रा करते समय यह विविधता बाधा नहीं बनती।

भारतीय समाज हजारों वर्षों से “लोकतांत्रिक जीवन मूल्य जीने वाला समाज है।“ इस समाज का लोकतांत्रिक जीवन, संविधान बनाने वालों ने शब्दबद्ध किया। गुलामी के लंबे कालखंड के बाद भारतीय जीवन मूल्य संविधान के रूप में विश्व के सामने प्रकट हुए। यह युग प्रवर्तक काम है। संविधान समिति के सभी विद्वान भाई-बहनों ने इसके लिए सामूहिक बुद्धिमत्ता दांव पर लगाई।

हमारा संविधान स्वतंत्रता, समता और बंधुता इन तीन सूत्रों पर आधारित है। भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हो इसके लिए अथक परिश्रम करने वाले डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विस्तार व विकास करते समय इन तीनों जीवन मूल्यों को संगठन में रोपने का प्रयत्न प्रारंभ से ही किया, ऐसा नजर में आता है।

1. स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय अनेक नेताओं से विचार विमर्श करने के बाद ही संघ स्थापना का निर्णय उन्होंने लिया।

2. संगठन कार्य का नाम 6 महीने बाद निश्चित हुआ। 26 लोग बैठक में उपस्थित थे। बैठक में तीन नामो का सुझाव आया। (1) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, (2 जरीपटका मंडल), (3) भारतोद्धारक मंडल। मुक्त चर्चा हुई, विचार विमर्श हुआ, मतदान हुआ, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” इस नाम को 20 लोगों ने अपनी सहमति दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तीन शब्दों का विस्तार से बताने वाले दो-तीन लोगों के भाषण हुए। इस नाम का चुनाव होने के बाद डॉक्टर जी का छोटा भाषण हुआ।

3. नामकरण होने के बाद डॉक्टर जी ने एक प्रयोग किया। कुछ प्रमुख स्वयंसेवकों को संघ का ध्येय, नीति क्या होना चाहिए, नियमावली क्या होना चाहिए, संघ में किसे प्रवेश देना चाहिए, हमें ही संघ बड़ा करना है, इन विषयों पर लेख लिखकर लाने को कहा।

4. रामटेक की यात्रा में व्यवस्था के लिए जाना चाहिए ऐसा कुछ स्वयंसेवकों का मत था। यात्रा की सुव्यवस्था करना यह केवल संघ का विषय नहीं है। डॉक्टर जी ने अनाथ विद्यार्थी गृह के संचालक, बजरंग मंडल के पदाधिकारी, संघ के स्वयंसेवक ऐसी संयुक्त बैठक का आयोजन किया। रामटेक यात्रा की व्यवस्था में ध्यान देना आवश्यक है, ऐसा सबका एक मत था। उसके लिए कुछ वेश भी निश्चित किया गया।

5. जैसे-जैसे संघ का काम बढ़ता गया वैसे-वैसे संगठन की व्यवस्था में भी कुछ बदल करना चाहिए यह आवश्यक हुआ। सरसंघचालक परम पूज्य डॉक्टर हेडगेवार तथा उनके सहायक के रूप में मा. सरकार्यवाह श्री बालासाहेब हुद्दार तथा सर सेनापति के रूप में मार्तंड राव जोग़, ऐसा उसे समय के संघ चालकों की बैठक में निश्चित हुआ।। शाखा में डॉक्टर जी को “सरसंघचालक प्रणाम” दिया गया। उस दिन की डॉक्टर जी की डायरी में जो लिखा है वह पढ़ने व सुनने लायक है।

* संघ का जन्मदाता मैं न होकर आप ही हैं, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं।
* आपकी इच्छा व आज्ञा रहेगी तब तक मैं यह काम करता रहूंगा।
* परंतु मैं इस काम के लायक न होकर मेरे कारण संघ का नुकसान हो रहा है, ऐसा यदि आपको लगे तो दूसरा कोई योग्य व्यक्ति इस पद के लिए निर्वाचित कर सकते हैं।

6. 1929 के समय शाखायें बढ़ती जा रही थी। तरुण कार्यकर्ताओं का उत्साह सतत बढ़ रहा था। कार्यकर्ता गण एक बड़ा सम्मेलन आयोजित करने के लिए डॉक्टर जी से आग्रह करने लगे। शिव राज्याभिषेक के दिन विराट शक्ति प्रदर्शन करें जिससे स्वयंसेवकों का आत्मविश्वास तथा उत्साह बढ़ेगा, ऐसा कार्यकर्ताओं का मानस था। परंतु डॉक्टर जी का मन कह रहा था “विदेशी अंग्रेज सरकार के ध्यान में आए ऐसा जल्दबाजी में कोई काम नहीं करना चाहिए” परंतु उन्होंने युवाओं को स्वतः मना नहीं किया। माननीय संघचालकों को पत्र लिखकर एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित करना कहां तक हितावह होगा इस बारे में विचार मांगे। अभी कोई बड़ा आयोजन नहीं करना चाहिए, ऐसा निश्चय हुआ।

7. डॉक्टर जी बीमार हुए, मृत्यु निकट आ गई है इसका आभास सभी को होने लगा। डॉक्टर जी को भी हुआ ही होगा! पास ही बैठे श्री यादव राव जोशी से उन्होंने पूछा, संघ के वरिष्ठ अधिकारी दिवंगत होने के बाद उनका अंतिम संस्कार सैनिकीय सम्मान के साथ करोगे क्या? संघ यह एक बड़ा परिवार है, परिवार प्रमुख का भी सादा व हमेशा का स्वरूप होना चाहिए।”

डॉक्टर जी के जीवन के सात चुनिंदा प्रसंग बताने का हेतु संगठन में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना में डॉक्टर जी ने कितनी सतर्कता रखी, यह हमारे ध्यान में आना चाहिए।

डॉक्टर जी ने निर्माण की हुई परंपरा के अनुसार संघ का संपूर्ण कार्य ऊपर से नीचे तक लोकतंत्रीय मूल्यों पर आधारित है। प्रत्यक्ष स्तर पर विचार विमर्श, चर्चा, मुक्तमत प्रदर्शन, व्यक्तिगत उपासना की पूर्ण स्वतंत्रता, सामूहिक निर्णय तथा उसका एक मत से अनुसरण, ऐसा कार्य पद्धति का स्वरूप होता है।

अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल तथा अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा, ऐसी दो बैठकें बिना भूले प्रत्येक वर्ष होती है। संपूर्ण कार्यवाही लिखित रूप में रखी जाती है। पिछले वर्ष के बैठक की कार्यवाही पढ़ी जाती है व उसका अनुमोदन कराया जाता है। प्रस्तावों पर मुक्त चर्चा होती है। किसी को भी रोका नहीं जाता। प्रस्ताव प्रसार माध्यमों को दिए जाते हैं। प्रत्येक 3 वर्षों में संगठन के चुनाव होते हैं।

1948 में महात्मा गांधी की हत्या में संघ का हाथ है ऐसा झूठा एवं गलत आरोप लगाकर स्वतंत्र भारत की सरकार ने संघ पर पाबंदी लगाई थी। कानून का पूर्णतः पालन करते हुए बंदी सहन की। सत्याग्रह किया गया। कहीं भी हिंसा की खबर अपवाद स्वरूप भी मिलने का उदाहरण नहीं है।

“वर्तमान सरसंघचालक माननीय क्षेत्र संघचालकों से चर्चा कर नए सरसंघचालक का नाम निश्चित करते हैं। अधिकारी एवं स्वयंसेवक (बाल शिशु स्वयंसेवक भी) ऐसा भेद संघ में नहीं होता, सभी स्वयंसेवक होते हैं।

शाखा, संघ का प्रतिनिधिक स्वरूप है। संघ शाखा को दरवाजा नहीं है। Open nationl school. शाखा के 8-10 सेवकों की कार्य समिति होती है। संघ में उसे शाखा टोली कहते हैं। कार्य समिति की साप्ताहिक तथा पाक्षिक बैठकें होती हैं। चर्चा में, विचार विमर्श में तथा निर्णय प्रक्रिया में सभी शामिल होते हैं। पिछले बैठक की समीक्षा एवं आगामी योजना का विचार होता है। नए स्वयंसेवक कौन बने, इसकी जानकारी दी जाती है।

बस्ती के घरों में संपर्क करना व उन्हें संघ की जानकारी देना, यह काम सहज रूप से होता रहता है। प्रत्येक शाखा अपना वार्षिक उत्सव करती है। वर्ष भर का वृत्त सबके सामने रखा जाता है।

लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के अनुसार संघ स्वयंसेवकों का आचार विचार सहजता से होता रहता है, इसका परिणाम आपातकाल में देखा गया। लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों पर आधारित सभी मानवीय अधिकार रद्द कर दिए गए थे। अन्याय के विरुद्ध शिकायतों के लिए न्यायालयों के दरवाजे भी बंद कर दिए गए। आपातकाल समाप्त हो तथा लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना हेतु इसके लिए “लोक संघर्ष समिति” के नेतृत्व में सत्याग्रह प्रारंभ हुआ। सत्याग्रह में भाग लेना यानी अंधेरे कुएं में छलांग लगाने जैसा था। आगे क्या होगा? कुछ भी कहा नहीं जा सकता था। ऐसी अनिश्चित स्थिति में भी एक लाख से अधिक स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह में भाग लिया। इस कारण आपातकाल को समाप्त करना पड़ा। सभी लोगों को कारागृह से मुक्त कर दिया गया। लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों की पुनः स्थापना हुई। कुछ लोगों की जेल में ही मृत्यु हो गई। कहीं भी सरकारी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुंचा।

स्वतंत्रता समता और बंधुत्व इन तीनों तत्वों के बारे में डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर के विचार, विचार करने योग्य हैं।( संदर्भ – बोल महा मानव के, पृष्ठ क्रमांक 125)

“मेरे तत्वज्ञान में स्वतंत्रता और समता के अतिक्रमण से संरक्षण मिले इसलिए केवल कानून का स्थान परिकल्पित किया गया है। परंतु इसे मैं बहुत गौण मानता हूं। कारण स्वतंत्रता और समता के उल्लंघन के विषय में कानून निश्चित रूप से समर्थ होगा, ऐसा मुझे विश्वास नहीं है। मैं बंधुत्व को सर्वोच्च स्थान देने की इच्छा करता हूं, कारण स्वतंत्रता और समता को यदि
नकार दिया जाए तो बंधु भाव यही सच्चा रक्षक होता है। सहभाव यह बंधुत्व का दूसरा नाम है और बंधुत्व या मानवता यह धर्म का दूसरा नाम है। कानून धर्म के परे होने के कारण कोई भी उसका उल्लंघन कर सकता है। इसके विपरीत सहभाव या धर्म यह पवित्र होने के कारण उसका सम्मान करना प्रत्येक का कर्तव्य समझा जाता है”।

बंधु भाव यह धर्म तत्व है, ऐसी श्रद्धा प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण में निर्माण करना यह एक बड़ा राष्ट्रीय कार्य है। “व्यक्ति की प्रतिष्ठा राष्ट्र की एकता तथा एकात्मता का आश्वासन देने वाली बंधुता प्रवर्धित करने का संकल्प” संविधान के प्रास्तावित में व्यक्त किया गया है।

बंधु भाव का विकास ही स्वतंत्रता तथा समता इन जीवन मूल्यों का आश्वासन दे सकता है।

संघ शाखा चलाने का उद्देश्य हिंदू समाज में बंधु भाव जागृत तथा मजबूत करने का है। “सभी हिंदू सहोदर हैं यह जन-जन को कहना” शाखा में गाए जाने वाले गीत की ऐसी एक पंक्ति है। सामुहिक रूप से भारत माता की जय कहना इसमें भातृत्व भावना का विकास ही है।

 

-मधु भाई कुलकर्णी

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