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प्राचीन भारतीय खेल 

प्राचीन भारतीय खेल 

by प्रशांत पोल
in खेल
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सामान्य रूप से हमारे देश में ऐसा माना जाता है कि विश्व मे खेले जाने वाले अधिकतर प्रसिद्ध खेलों का प्रारंभ, पश्चिम के देशों में, विशेषतः युरोप मे हुआ है। वही पर ये खेल विकसित भी हुए। प्राचीन काल मे ग्रीस मे ओलंपिक खेलों के आरंभ के साथ ही, खेल जगत के इतिहास का प्रारंभ हुआ।

किंतु अनेक लोगों को यह पता ही नही हैं कि विश्व का सबसे पहला, सबसे प्राचीन स्टेडियम भारत मे मिला है।

जी हां, विश्व का सबसे प्राचीन स्टेडियम भारत मे है। गुजरात के कच्छ मे, ‘खादीर’ इस द्वीपनुमा स्थान पर ‘धोलावीरा’ मे जब 1968 मे उत्खनन हुआ, तब यह सत्य सामने आया। वर्तमान मे यह ‘धोलावीरा’, युनेस्को के संरक्षित स्मारकों की सूची में है। इसकी विशेषता यह है कि यह कर्क रेखा पर स्थित है। धोलावीरा की नगर रचना देखकर इक्कीसवी शताब्दी के अनेक नगर रचनाकार भी आश्चर्यचकित हुए है।

उत्खनन मे मिले इस ‘धोलावीरा’ मे एक नही, दो स्टेडियम मिले है। इनमे से बडा स्टेडियम, 1 लाख 65 हजार स्क्वेअर फीट का है. इसकी क्षमता दस हजार से ज्यादा दर्शकों की है। इसमे दर्शक दीर्घा भी बनाई गई है, जिससे दर्शक आराम से मैदान पर चल रहे खेलों को देख सके।

ग्रीस मे ऑलिंपिक का प्रारंभ हुआ, इसा से पहले 776 वर्ष। परंतु उससे भी लगभग तीन हजार वर्ष पहले, अर्थात आज से 5,500 वर्ष पूर्व, भारत मे बडे पैमाने पर, सार्वजनिक रूप से अनेक खेल खेले जाते थे। धोलावीरा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, प्रमाण हैं।

This may contain: an elephant chess board with figurines on it

हमारे पूर्वजोंने अपनी जो जीवनशैली विकसित की थी, जो जीवनक्रम बनाया था, वह सर्वांगीण विकास का था। इसीलिए विज्ञान, शस्त्र और शास्त्र के साथ कला को भी प्राधान्य था। मनुष्य का सर्वांगीण विकास होने के लिए, शरीर और मन, दोनो सुदृढ होने चाहिये, यह हमारे पुरखों को अच्छी तरह से पता था। इसीलिए उस समय मल्लयुद्ध (कुश्ती), रथों की प्रतियोगिताएं, घुडदौड, धनुर्विद्या (आज की भाषा मे ‘आर्चरी’) की प्रतियोगिताओं और खेलों के साथ ही, मानसिक एकाग्रता बढाने के लिए अनेक बैठे – बैठे खेलने वाले खेल (indoor games) भी होते थे।

विश्व मे सबसे ज्यादा प्रचलित और लोकप्रिय, बैठकर खेलने वाले दो इनडोअर खेलों का उद्गम भारत मे हुआ हैं। ये खेल हैं, शतरंज (चेस) और लुडो.

जी हां..! ये दोनो खेल पाश्चात्य नही है। बिलकुल असली भारतीय खेल है। लूडो यह खेल, आजकल युवाओं मे ट्रेंडी है। आज के डिजिटल युग मे सर्वाधिक खेला जानेवाला यह बोर्ड गेम है। यह ऑनलाईन खेले जाने के कारण विदेशो मे रहने वाले मित्रों के साथ भी खेला जाता है। विशेष रुप से कोरोना काल मे, लाॅकडाउन के बाद, इस खेल की जबरदस्त मांग है।

‘लूडो’ यह इस खेल का असली नाम नही है। पचीसी या चौसर / चौपड नाम से यह खेल हजारो सालों से भारत मे खेला जा रहा है। महाभारत मे कौरव और पांडवों मे जो द्युत हुआ था, वह भी इसी खेल के माध्यम से। अर्थात, प्राचीन काल मे यह खेल, ‘जुआ’ के रुप मे ही खेलते थे, ऐसा नही हैं। सामान्य लोग भी मनोरंजन के लिए यह खेल खेलते थे। लेकिन कई बार राज परिवारों मे जुआ खेलने के लिए चौसर / पचीसी का उपयोग होता था।

यह खेल कब से खेला जा रहा है, यह बताना कठीन है। महाभारत मे इसका उल्लेख जरूर आता है। परंतु विगत चार-पाच हजार वर्षों मे, अनेक ग्रंथो में, पचीसी / चौसर का उल्लेख है। हडप्पा और मोहन-जो-दडो के उत्खनन मे, पचीसी / चौसर खेलने के लिए जो पांसे लगते हैं, वह पांसे मिले है।

ऋग्वेद और अथर्ववेद मे भी चौसर जैसे खेलों का और उसे खेलने के लिए लगने वाले पांसो का उल्लेख मिलता हैं। वेरुळ (एलोरा) की गुफाएं, छठवी से आठवी शताब्दी मे निर्माण हुई हैं। इनमे से उनतीस नंबर की गुफा मे ‘भगवान शंकर और पार्वती चौसर खेल रहे हैं’, ऐसा दृश्य उकेरा गया है।

365Chess - Chess Games Database Online

चीन के सॉंग राज परिवार के (वर्ष 970 से 1279) कागज पत्रों मे स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि, चिनी खेल ‘चुपू’ (अर्थात अपना चौसर / पचीसी) का उद्गम पश्चिम भारत मे हुआ है। वर्ष 220 से 265, इस कालखंड मे चीन पर ‘वी’ नाम के राज परिवार की सत्ता थी। इसी समय यह खेल भारत से चीन मे आया और लोकप्रिय हुआ। इस खेल का पट, जिस पर खेल खेला जाता हैं, कपडे से बनता था। इस कपडे पर, खेलने के लिए, सुंदर नक्काशी बनाते थे। कम से कम दो और अधिकतम चार लोग यह खेल खेल सकते थे। प्रारंभिक अवस्था मे इस खेल को खेलने के लिए कौडियों का उपयोग किया जाता था। बाद मे पांसोंका चलन बढता गया।

वर्ष 1818 मे अंग्रेजों का राज, भारत के अधिकांश भूभाग पर कायम होने के बाद, अनेक अंग्रेज अधिकारी, भारतीयों की रुढी – परंपराएं समझने के लिए प्रयास करने लगे। उस समय उनको भारतीयों के पचीसी / चौसर इस खेल की जानकारी मिली। भारत मे रहने वाले अंग्रेज अधिकारी यह खेल खेलने लगे। धीरे – धीरे यह खेल इंग्लंड मे पहुंचा। वर्ष 1896 मे इस खेल का अंग्रेजी नाम ‘लूडो’ रखा गया। लूडो का लॅटिन भाषा मे अर्थ, ‘आय प्ले’ ऐसा होता है। और आज यह खेल, पूरी दुनिया मे ‘लूडो’ नाम से ही लोकप्रिय हुआ है।

शतरंज (चेस)

आज दुनिया मे प्रचलित जो ‘शतरंज’ खेल है, वह निर्विवाद रूप से भारत का है। सामान्यतौर पर हम लोग, अंग्रेजों ने यदी कोई बात की होगी, तो उस बात पर आंख बंद करके विश्वास कर लेते है। इसलिये इस विषय से संबंधित अंग्रेजी संदर्भ देखते है –

‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ यह मूलतः अंग्रेजो ने प्रारंभ किया हुआ समाचार पत्र हैं। इसके बुधवार, दिनांक 28 जुलै 1940 के अंक के संपादकीय में लिखा है, ‘According to Sir William Jones, the first President of Royal Bengal Aisatic Society, it was in India, that Chess first originated and developed. The latest discovery appears to fortyfy the theory.’
(रॉयल बंगाल एशियाटिक सोसायटी के पहिले अध्यक्ष, सर विल्यम जॉन के अनुसार, भारत मे ही चेस का उद्गम हुआ और वह विकसित हुआ। नए शोध के अनुसार, इस विधान का महत्व स्पष्ट होता है।)

टाईम्स ऑफ इंडिया के इस संपादकीय में जिस सर विल्यम जोन का उल्लेख हैं, वे सज्जन वर्ष 1783 से 1789 तक, कलकत्ता हायकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। वे स्वयम् संस्कृत और भारतीय संस्कृती के प्रगाढ अभ्यासक थे।

This may contain: a chess board with several figurines on it

प्रोफेसर डंकन फोर्ब्स (28 अप्रैल 1798 से 17 अगस्त 1868) यह स्कॉटिश सज्जन, भाषाशास्त्रज्ञ और पौर्वात्य विषयों के तज्ञ के रूप मे जाने जाते थे। 1823 मे वह कलकत्ता अकादमी मे जॉईन हुए, और तीन वर्ष तक वे वहां थे। उनका भारतीय संस्कृती का गहन अध्ययन था। आगे चलकर जब वह इंग्लंड मे गए, तब उन्होने एक पुस्तक प्रकाशित की – ‘हिस्टरी ऑफ चेस’ (शतरंज का इतिहास). इस ग्रंथ मे उन्होने, ‘शतरंज का उद्गम भारत मे ही हुआ है, और साधारणतः दोन से तीन हजार वर्षों से यह खेल भारत मे खेला जा रहा हैं’, ऐसा अनेक प्रमाणों के साथ प्रतिपादित किया।

परंतु उसके बाद, इस संदर्भ मे जो शोध हुए उनमे, यह खेल चार से पांच हजार वर्ष पुराना होगा, ऐसा निर्णय शोधकर्ताओं ने दिया। शतरंज का पुराना नाम ‘अष्टपद’ था. बादमे उसे ‘चतुरंग’ कहने लगे।

‘शूलपाणी’ नाम के एक बंगाली विद्वान थे। उन्होंने पंद्रहवी शताब्दी मे लिखे हुए ‘चतुरंग दीपिका ‘ इस ग्रंथ मे, शतरंज जिससे निर्माण हुआ, ऐसे ‘चतुरंग’ का विस्तार से वर्णन किया है। इस ग्रंथ मे दी हुई जानकारी के अनुसार, ‘चतुरंग’ का पहले का नाम ‘अष्टपद’ था। इस अष्टपदका उल्लेख, हिनायन बुद्ध साहित्य मे इसा पूर्व 500 वर्ष, (अर्थात आजसे ढाई हजार वर्ष पूर्व) मे मिलता है. ‘ब्रह्मजाल सूत्त’ और ‘विनय पिटका’ इन ग्रंथों मे भी इसका उल्लेख आता है। इसा पूर्व 300 वर्ष मे गोविंद राजने लिखे हुए रामायण के बाल कांड मे अष्टपदका उल्लेख है।

वर्ष 200 मे लिखे हुए हरिवंश मे अष्टपदका श्लोक है –

स रामकरमुक्तेन निहतो द्युत मंडले।
अष्टापदेन बलवान राजा वज्रधरोपमः।।
(दुसरा अध्याय 61 / 54)

यह खेल बहुत पहले द्युत के रूप में खेला जाता था। ‘अश्विन माह की पूर्णिमा की रात मे ‘अष्टपद’ खेलने से धनलाभ होता है’, ऐसे माना जाता था। इसे ‘चतुरंग बल’ भी कहते थे। इसमे ‘बल’ यह शब्द, ‘खेलने की गोटी’ के रूप मे कहा गया है। इसमे पांसे का उपयोग किया जाता था। अर्थात, खेलने वाले के ‘नसीब’ का हिस्सा अधिक होता था। बादमे पांसे का उपयोग बंद हुआ। अब यह खेल पूर्ण रूप से ‘बुद्धी’ के आधार पर खेला जाता हैं।

शतरंज पर एक पुस्तक खूब चलती है – ‘द लॉज अँड प्रॅक्टिसेस ऑफ चेस’। हॉवर्ड स्टुंटन (Howard Staunton) ने इसमे शतरंज खेल के नियम और विशेषताएं विस्तार से बताई है। इस पुस्तक के पृष्ठ 5 पर उन्होने लिखा है, ‘हिंदूओंका यह खेल अरबस्तान जिस रुप में पहले गया, उसके पहले अनिश्चित काल मे हिंदूओंने ही इसका रूपांतर किया था।’

ऐसे माना जाता है कि, ‘चतुरंग’ की रचना रावण की पत्नी मंदोदरीने की है। ऐसा भी माना जाता है की हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाली, सीरिया देश की रानी ‘सेमिरामिस’ ने, इस खेल के सबसे बलशाली प्रधान को (बादमे यह वजीर कहलाया जाने लगा) ‘रानी’ बनाया, तबसे, पाश्चात्य देशो मे प्रधान (वजीर), यह ‘रानी’ (क्वीन) बन गया।

पहले यह खेल चार लोग मिलकर खेलते हैं, इसलिये केवल इसे ‘चतुरंग’ नही कहा जाता है, तो इस खेल मे प्रधान (वजीर या क्वीन), हाथी, घोडे और पैदल सेना रहती हैं, अर्थात ‘चतुरंग सेना’ होती हैं, इसलिये भी इसे चतुरंग कहा जाता था।

शतरंज का कालानुक्रमसे सफर ऐसा रहा हैं –

1. अष्टपद, चतुरंग का काल – पुराण काल से लेकर इसवी सन की पाचवी सदी तक।
2. शतरंज के उत्क्रमण का काल – इसवी सन की पाचवी सदी से पंद्रहवी सदी तक, लगबग 1,000 वर्ष।
3. शतरंज के आधुनिक स्वरूप का काल – इसनी सन की पंद्रहवी सदी से अठारहवी सदी के अंत तक, चार सौ वर्षों का कालखंड।
4. अब तक का काल – युरोपियन शास्त्रीय पद्धती का कालखंड, इसमे ‘चेस’ यह नाम दुनिया मे लोकप्रिय हुआ।

पुणे मे उत्तर पेशवाई मे पेशवा बाजीराव (दुसरा) के राज्य मे, पंडित त्रिवेगंडाचार्य थे। ये मूलतः तिरुपती के थे, लेकिन साधारण तीस वर्षों तक महाराष्ट्र मे ही रहे। उन्होने बाजीराव पेशवा के अनुरोध पर शतरंज की समर्पक जानकारी देने वाली ‘विलासमणी मंजिरी’ यह पुस्तक लिखी। यह पुस्तक संस्कृत मे है। बादमे यही पुस्तक, गणेश रंगो कुलकर्णी हल्देकरने प्रकाशित की। इस पुस्तक को मराठी के प्रख्यात साहित्यकार, साहित्याचार्य न. चिं. केळकर जी की प्रस्तावना है।

इस पुस्तक में पंडित त्रिवेगंडाचार्यजीने शतरंज इस खेल के बारे मे विस्तार से जानकारी और उसका इतिहास दिया हैं। मनुष्य के बुद्धिविकास मे इस खेल का महत्व भी विस्तार से लिखा है।

उन्नीसवी शताब्दी मे मराठी मे पुस्तकें प्रिंट होने लगी, प्रकाशित होने लगी। इसी क्रम मे अनेक पुस्तके शतरंज पर भी लिखी गई। जैसे –
• बुद्धिबळ खेळणारा चा मित्र – हरिश्चंद्र चंद्रोबा जोशी (वर्ष 1854)
• बुद्धिबळ क्रीडा – विनायक राजाराम टोपे (वर्ष 1892)
• बुद्धिबळाचे 1000 डाव – विष्णू सदाशिव राते (वर्ष 1893)

संक्षेप मे कहे तो, आज के युग मे बुद्धी के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ समझे जानेवाले शतरंज (चेस) इस खेल का जन्म भारत मे हुआ है, और यह भारत मे ही विकसित हुआ है। बुद्धी को चालना देने के लिए हमारे पुरखोंने इसका अत्यंत कुशलता से उपयोग किया। इसी खेल मे, भारत के डी. गुकेश ने विश्व शतरंज की चैंपियनशिप हासिल कर, अपना श्रेष्ठत्व सिद्ध किया हैं।

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Tags: #old #game #india #sports #india #hindu #world

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