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भीड़ में कैसा हो सामूहिक व्यवहार !

भीड़ में कैसा हो सामूहिक व्यवहार !

by हिंदी विवेक
in संघ
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एक भीड़ के रूप में हिन्दू इकट्ठा होना तो जानता है मगर सामूहिक व्यवहार करना नहीं जानता।
लगभग सवा सौ वर्ष पहले लोकमान्य तिलक जी की एक सभा में कुछ लोग जेब में लाये मेंढक उछालकर सांप सांप चिल्लाए और लोग उठकर भागने लगे। भगदड़ मची और सभा बिगड़ गई। बाद में पूज्य डॉक्टर हेडगेवार जी ने आयोजकों की क्लास ली। लगभग हरेक का उत्तर था “मै अकेला क्या करता?” हजारों लाखों की भीड़ में भी हिन्दू “अकेला” ही होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के पीछे उक्त घटना का बहुत बड़ा हाथ है। सामूहिक आचरण और नागरिक शिष्टाचार ही भीड़ को अनुशासित संगठन के रूप में बदलता है।

आरम्भ में संघ में भीड़ बढ़ाने वाले कार्यक्रम नहीं होते थे। जो आ रहे हैं, उनकी व्यवस्था कैसे करनी यह महत्त्वपूर्ण होता है। चाहे दस लोग आ रहे हों या दस लाख, एक एक बात पर विचार किया जाता है। आज भी सामान्य कार्यकर्ता को यह पता होता है कि 100 व्यक्ति आ रहे हैं तो बैठने के लिए कितनी जगह चाहिए, मंच कितना बड़ा होगा, उसकी ऊंचाई क्या रहेगी, यदि कुर्सी पर बैठ रहे है तो कितनी जगह चाहिए। सोने हेतु, स्नान का पानी, टॉयलेट्स, भोजन सबका कैलकुलेशन टिप्स पर रहता है।

बाकायदा एक प्रबंध विभाग रहता है और उसमें प्रबंधक होते है जो रोज रात्रि में और सुबह बैठकर निरन्तर समीक्षा करते हैं तब जाकर कार्यक्रम सुव्यवस्थित हो पाते है।
इधर मेले आदि में भी जब व्यवस्था हेतु बैठक होती है तो संख्या के अनुसार संघ कार्यकर्ताओ से राय ली जाती है। एक लोकल मेले में ऐसा हुआ कि प्रतिवर्ष हरबार भोजन व्यवस्था लड़खड़ा जाती थी। एक साथ इतनी भीड़ उमड़ती कि छीना झपटी जैसा माहौल बन जाता था। हारकर आयोजकों को भोजन रद्द ही करना पड़ा।

लेकिन बाद में वहां शिशुमन्दिर और सीमाजन मंच के विद्यार्थियों को यह काम दिया गया तो आज भी वह व्यवस्था चल रही है।
हिन्दू समाज का संगठन मतलब यह भी है कि एक भीड़ के रूप में उसका सामूहिक आचरण कैसा है? Vip पना गया है कि नहीं? कहीं मै पीछे न रह जाऊं, यह आशंका और अपनों पर अविश्वास उसके धैर्य को समाप्त कर देता है। प्रत्येक भीड़ में कुछ मनमौजी और अविवेकी होते है। मीडिया की भी भूमिका है। छोटे से कार्यक्रम में ही आयोजक की हालत पतली हो जाती है। थक हारकर भाड़े के इवेंट मैनेजमेंट वाले बुलाने पड़ते हैं। हर बार शादी में पनीर की शब्जी कम पड़ती है। बेरिकेटिंग में कतार बनानी पड़ती है। हादसे भी होते है।

पहली बात, भीड़ देखकर भीड़ नहीं बनना। मीडिया या प्रचार माध्यमों पर भरोसा कर कभी किसी कार्यक्रम में नहीं जाना। कई बार आयोजक भी औकात से ज्यादा लोगों को बुला लेते है। उतनी व्यवस्था होती नहीं। आपातस्थिति के लिए कोई तैयारी नहीं होती, बहुत सारी बातें है। प्रबंधन स्वयं में एक शास्त्र है। हिन्दू समाज जब तक दैनिक या साप्ताहिक मिलन का अभ्यास नहीं करता, यह बहुत बड़ा खतरा है कि कब वह संगठन से भीड़ बन जाये। हिन्दू यह भी जान लें कि उनके शत्रु किस प्रकार से दैनिक/साप्ताहिक मिलकर तैयारी कर रहे हैं।

– कुमार चरित

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