जिसे कथित प्रेम का वैलेंटाइन डे कहकर प्रचारित करते हो वह वास्तव में “वासना डे” ही है जिसका परिणाम तथा समापन अवैध गर्भपात या अवैध नवजात शिशुओं को किसी गटर में फेंकने से ही होता है।
आज की कथित….
‘बड़ी बिंदी वाली’, ‘अन्तःवस्त्र त्यागने वाली’, ‘कमोड पर स्थापित होने वाली’ नाली-याँ क्या शास्वत प्रेम समर्पण का अर्थ जान पाती हैं। जिनके पास प्रेम सम्बंध का अर्थ मात्र “A Piece of Tissue” तक ही सीमित है उनके लिए प्रेम समर्पण के लिए कोई महत्व नहीं है।
विशुद्ध प्रेम और समर्पण यह केवल सनातन संस्कृति में ही सम्भव है.!!
प्रेम और समर्पण की एक अद्भुत कथा देखें……❣
एक बहुत अदभुत घटना मैं आपसे कहती हूँ.!!
वाचस्पति मिश्र का विवाह हुआ। पिता ने आग्रह किया। वाचस्पति की कुछ समझ में न आया, इसलिए उन्होंने हाँ भर दी। सोचा, पिता जो कहते होंगे, ठीक ही कहते होंगे। वाचस्पति तो लगा था, परमात्मा की खोज में उसे कुछ और समझ में ही न आता था। कोई कुछ भी बोले, वह परमात्मा की ही बात समझता था। पिता ने वाचस्पति को पूछा, विवाह करोगे?
उसने कहा, हाँ। उसने कदाचित सुना होगा, परमात्मा से मिलोगे? जैसा कि हम सब के साथ होता है। जो धन की खोज में लगा है, उससे कहो, धर्म खोजोगे? वह समझता है, शायद कह रहे हैं, धन खोजोगे?
उसने कहा – हाँ.!!
हमारी जो भीतर खोज होती है, वही हम सुन पाते हैं। वाचस्पति ने कदाचित सुना; हाँ, भर दी।
फिर जब घोड़े पर बैठ कर ले जाया जाने लगा, तब उसने पूछा, कहाँ ले जा रहे हैं? उसके पिता ने कहा, पागल ! तूने हाँ भरा था। विवाह करने चल रहे हैं। तो फिर उसने ना करना उचित न समझा; क्योंकि जब हाँ भर दी थी और बिना जाने भर दी थी, तो परमात्मा की मर्जी होगी।
वह विवाह करके लौट आया। लेकिन पत्नी घर में आ गई, और वाचस्पति को खयाल ही न रहा।
रहता भी क्या! न उसने विवाह किया था, न हाँ भरी थी।
वह अपने काम में ही लगा रहा। वह ब्रह्मसूत्र पर एक टीका लिखता था। बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी रोज साँझ दीया जला जाती। रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती। दोपहर उसकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेता, तो चुपचाप पीछे से थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी का वाचस्पति को पता नहीं चला कि वह है। पत्नी ने कोई उपाय नहीं किया कि पता चल जाए;
बल्कि सब उपाय किए कि कहीं भूल-चूक से पता न चल जाए, क्योंकि उनके काम में बाधा न पड़े। बारह वर्ष जिस पूर्णिमा की रात वाचस्पति का काम आधी रात पूरा हुआ और वाचस्पति उठने लगे, तो उनकी पत्नी ने दीया उठाया–उनको राह दिखाने के लिए उनके बिस्तर तक। पहली बार बारह वर्ष में, कथा कहती है, वाचस्पति ने अपनी पत्नी का हाथ देखा। क्योंकि बारह वर्ष में पहली बार काम समाप्त हुआ था।
अब मन बंधा नहीं था किसी काम से।
हाथ देखा, चूड़ियाँ देखीं।
चूड़ियों की आवाज सुनी।
लौट कर पीछे देखा और कहा,
स्त्री, इस आधी रात अकेले में तू कौन है? कहाँ से आई?
द्वार भवन के बंद हैं,
कहाँ पहुँचना है तुझे, मैं पहुँचा दूँ!
उसकी पत्नी ने कहा, आप शायद भूल गए होंगे, बहुत काम था। बारह वर्ष आप काम में थे। याद आपको रहे, संभव भी नहीं है।
बारह वर्ष पहले, स्मृति में अगर आपको आता हो, तो आप मुझे पत्नी की तरह घर ले आए थे। तब से मैं यहीं हूँ। वाचस्पति रोने लगा।
उसने कहा, यह तो बहुत देर हो गई।क्योंकि मैंने तो प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिस दिन यह ग्रंथ पूरा हो जाएगा, उसी दिन घर का त्याग कर दूंगा।
तो यह तो मेरे जाने का वक्त हो गया।
भोर होने के करीब है; तो मैं जा रहा हूँ। पागल, तूने पहले क्यों न कहा?
थोड़ा भी तू इशारा कर सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो गई।
वाचस्पति की आँखों में आँसू देख कर पत्नी ने उसके चरणों में सिर रखा और उसने कहा, जो भी मुझे मिल सकता था, वह इन आँसुओं में मिल गया।
अब मुझे कुछ और चाहिए भी नहीं है। आप निश्चिंत जाएँ।
और मैं क्या पा सकती थी इससे ज्यादा कि वाचस्पति की आँख में मेरे लिए आँसू हैं!
बस, बहुत मुझे मिल गया है। वाचस्पति ने अपने ब्रह्मसूत्र की टीका का नाम “भामति” रखा है।
“भामति” का कोई संबंध टीका से नहीं है। ब्रह्मसूत्र से कोई लेना-देना नहीं है।
यह उसकी पत्नी का नाम है। यह कह कर कि अब मैं कुछ और तेरे लिए नहीं कर सकता, लेकिन मुझे चाहे लोग भूल जाएँ, तुझे न भूलें, इसलिए “भामति” नाम देता हूँ अपने ग्रंथ को। वाचस्पति को बहुत लोग भूल गए हैं; “भामति” को भूलना
असम्भव है। “भामति” लोग पढ़ते हैं। अद्भुत टीका है ब्रह्मसूत्र की। वैसी दूसरी टीका नहीं है। उस पर नाम “भामति” है।
फेमिनिन मिस्ट्री इस स्त्री के पास होगी। और मैं मानता हूँ कि उस क्षण में इसने वाचस्पति को जितना पा लिया होगा, उतना हजार वर्ष भी चेष्टा करके कोई स्त्री किसी पुरुष को नहीं पा सकती। उस क्षण में, उस क्षण में वाचस्पति जिस भांति एक हो गया होगा इस स्त्री के हृदय से, वैसा कोई पुरुष को कोई स्त्री कभी नहीं पा सकती। क्योंकि फेमिनिन मिस्ट्री, वह जो रहस्य है, वह अनुपस्थित होने का है।
छुआ क्या प्राण को वाचस्पति के? कि बारह वर्ष! और उस स्त्री ने पता भी न चलने दिया कि मैं यहीं हूँ। और वह रोज दीया उठाती रही और भोजन कराती रही। और वाचस्पति ने कहा, तो रोज जो थाली खींच लेता था, वह तू ही है? और रोज सुबह जो फूल रख जाता था, वह कौन है? और जिसने रोज दीया जलाया, वह तू ही थी? पर तेरा हाथ मुझे दिखाई नहीं पड़ा!
भामति ने कहा, मेरा हाथ दिखाई पड़ जाता, तो मेरे प्रेम में कमी साबित होती। मैं प्रतीक्षा कर सकती हूँ। तो जरूरी नहीं कि कोई स्त्री स्त्रैण रहस्य को उपलब्ध ही हो। यह तो लाओत्से ने नाम दिया, क्योंकि यह नाम सूचक है और समझा सकता है। पुरुष भी हो सकता है। असल में, अस्तित्व के साथ तादात्म्य उन्हीं का होता है, जो इस भांति प्रार्थनापूर्ण प्रतीक्षा को उपलब्ध होते हैं।
“इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत है।” चाहे पदार्थ का हो जन्म और चाहे चेतना का, और चाहे पृथ्वी जन्मे और चाहे स्वर्ग, इस अस्तित्व की गहराई में जो रहस्य छिपा हुआ है, उससे ही सबका जन्म होता है।
इसलिए मैंने कहा, जिन्होंने परमात्मा को माँ की तरह देखा, दुर्गा या अम्बा की तरह देखा, उनकी समझ परमात्मा को पिता की तरह देखने से ज्यादा गहरी है। अगर परमात्मा कहीं भी हैं, तो वह स्त्रैण होंगे। क्योंकि इतने बड़े जगत को जन्म देने की क्षमता पुरुष में नहीं है। इतने विराट चाँद तारे जिससे पैदा होते हों, उसके पास गर्भ चाहिए। बिना गर्भ के यह संभव नहीं है।
इसीलिए परमपिता शिव अर्धनारीश्वर हैं। जो सृजन करे वो प्रकृति नारी रूप और जो पोषण करे वो पुरूष रूप। एकाकार हो जाने के लिए स्व का त्याग कर दिया जाता है। तभी शास्वत प्रेम घटित होता है।
आख़िर भारत में वैलिंटाइन डे क्यों मनाया जाता है?
दुनिया भर में ये हर साल इस दिन का इंतज़ार करके मनाया जाता हैं। आख़िर इसके पीछे की सच्चाई कितने लोग जानते हैं तथा इस बारे में मालूम होना ज़रूरी है।
संत वेलिंटाइन ने तीसरी शताब्दी में रोम देश में प्रेम विवाह पर प्रतिबंध के विरोध में आवाज़ उठाई थी। दरअसल उस समय सम्राट क्लोडियस द्वितीय का शासन था।
उन्होंने सैनिकों के विवाह पर प्रतिबंध लगाया था, रोम के राजा का मानना था के प्यार की वजह से सैनिकों का ध्यान भटकता है इसलिए उन्होंने सैनिकों की सगाई और शादी पर पाबंदी लगा दी थी।
ये बात संत वेलिंटाइन को पसंद नहीं आई और उन्होंने गुप्त रूप से बहुत जोड़ो की शादी करवाई, जिससे राजा ने उनको १४ फ़रवरी को मृत्युदंड की सजा दी, जिससे उस देश में यह दिन प्रेम का प्रतीक के रूप में मनाया जाने लगा।
अब सोचने की बात है कि वहाँ यह दिन सैनिकों के लिये था ना की हर किसी के लिये रोक था विवाह हेतु?
अपने देश में ऐसा कोई चलन नहीं है, सभी आजदी से रह रहे और प्रेम विवाह कर रहे है, फिर ये चलन मनाना स्कूल, कॉलेज आदि जगहों में ७ तारीख़ से भिन्न-भिन्न दिवस मनाना ये हास्यास्पद बाते लगती हैं।
दिन विशेष मनाने का कोई ठोस कारण हो तो और बात है।
यदि आपको मनाना ही है तो अपने देश के संतों के नाम से मनाइए।
सिर्फ़ ये दुकानों में ग्रीटिंग बेचना और महँगे-महँगे गुलदस्ते और तोफ़ा बेचने का ज़रिया है तथा इस बहाने दुकान चल पड़ती है, किंतु इन्ही दिनों में लड़के-लड़कियों की हरकतों पर भी नज़र रखना ज़रूरी होता है।
निवेदन है पालकों तथा टीचर्स से कि वे अनैतिकता को बढ़ावा देने के बजाय उस पर रोक लगाये और परिवार के साथ अपना वेलिंटाइन मनाये।
-डॉ. आनंदी सिंह रावत