“अध्यात्म याने क्या?” इस प्रश्न का उत्तर स्वामी विवेकानंद ने सरल भाषा में दिया है। “दूसरों की चिंता करना याने अध्यात्म।” संघ शाखा में दूसरों की चिंता करने के संस्कार ही होते हैं। जैसे-जैसे गटनायक, गणशिक्षक, मुख्य शिक्षक, कार्यवाह इन पदों पर काम करते हुए स्वयंसेवक बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसका दूसरों की चिंता करने का दायरा भी बढ़ता जाता है। शिशु, बाल, तरुण, प्रौढ़, इस प्रकार प्रत्येक स्वयंसेवक की चिंता करने का स्वभाव संघ शाखा में तैयार होता है।
——————————————————————————————————————————————————–
शाखा जहां लगती है उसे हम “संघ स्थान” कहते हैं, खेल का मैदान नहीं कहते। संघ स्थान तैयार करना पड़ता है। शाखा यानी भारत माता की आराधना है। जहां भारत माता की प्रार्थना होती है तथा जहां अज्ञान का अंधकार दूर करने वाले भगवा ध्वज की स्थापना करनी है वह स्थान कैसा होना चाहिए? मंदिर के समान स्वच्छ, पानी सींचकर साफ किया हुआ, रेखांकन (रंगोली) किया हुआ होना चाहिए।
मंदिर में जहां मूर्ति होती है, उसे “गर्भ गृह” कहते हैं। मंदिर कितना भी बड़ा हो फिर भी गर्भगृह छोटा होता है। गर्भगृह में देव पूजा करने वाला पुजारी ही जा सकता है। अन्य सभी को निश्चित दूरी से दर्शन लेना पड़ता है।
संघस्थान यानी भारत माता का मंदिर। साफ स्वच्छ ध्वज मंडल (गर्भ गृह), संपत रेखा (स्वयंसेवकों को खड़े रहने की सीमा रेखा), मुख्य शिक्षक, कार्यवाह के खड़े रहने का स्थान, जूते चप्पल रखने की तथा वाहन खड़े करने का स्थान सब निश्चित करना पड़ता है। नए आए हुए व्यक्ति को यह रचना देखकर नियम पालन करने की इच्छा होती है।
देव पूजा करने के लिए पूजा साहित्य तैयार करना पड़ता है, वैसे ही यहां भी सीटी, रिंग, दंड, वॉलीबॉल, योगदरी, (मैट) इत्यादि, कबड्डी तथा खो-खो का रेखांकन, यह उत्साह बढ़ाने वाला पूजा साहित्य ही है।
शाखा का समय होने पर मुख्य शिक्षक एक लंबी और एक छोटी (—-0—-0) सीटी बजाता है। सीटी बजाने में मुख्य शिक्षक की कुशलता प्रकट होती है। पूर्ण शांति स्थापित हो जाती है, आपस में बातचीत बंद हो जाती है। सभी प्रकार की हलचल बंद हो जाती है। सभी स्वयंसेवक सावधान होकर अगली सूचना (आज्ञा) सुनने को तैयार हो जाते हैं। अग्रेसरों का शान से चलना, संपत रेखा पर संपत होना, मुख्य शिक्षक का उन्हें निश्चित अंतर पर खड़ा करना, यह सब बातें नवागत पर परिणाम करने वाली होती है। उसे तुरंत समझ में आता है, वह एक विशेष स्थान पर आया है, केवल खेल के मैदान पर नहीं।
प्रारंभ में ध्वज मंडल में भगवा ध्वज लगाया जाता है। ध्वज लगाने वाला ध्वज मंडल में जा सकता है। सभी स्वयंसेवक भगवाध्वज को प्रणाम करते हैं। संघ ने भगवा ध्वज को गुरु माना है। श्री गुरु यानी अंधकार दूर कर सत्य की पहचान कराने वाला। श्री गुरु की महिमा बताने वाले अनेक श्लोक धार्मिक ग्रंथो में मिलते हैं। एक श्लोक की शुरुआत ही “ज्ञान मूलम गुरु मूर्ति” ऐसी होती है। श्री गुरु के केवल दर्शन मात्र से ही सत्य का ज्ञान होता है। असत्य की सारासार जानकारी को कोई ज्ञान नहीं कहता।
भगवा ध्वज जितना प्राचीन उससे ज्यादा प्राचीन हमारा भारत है। भारतीय मन को भगवा रंग का आकर्षण हमेशा से रहा है। भगवा रंग सूर्य के आगमन का संदेश देने वाला रंग है। भारत हमेशा ज्ञान का उपासक रहा है। ज्ञान का यानी सत्य का उपासक। स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र भारत में सरकारी मुद्रा के रूप में “सत्यमेव जयते” यह घोषवाक्य स्वीकार किया है।
भारत “हिंदू भूमि” होने के कारण हिंदुओं के स्वभाव अनुसार “सत्यमेव जयते” यह त्रिकाल बाधित सत्य स्वतंत्र भारत का घोषवाक्य हुआ, परंतु “भारत हिंदू भूमि है” ऐसा कहने पर कई लोग भ्रमित हो जाते हैं। यदि यह हिंदू भूमि है तो मुसलमान की, ईसाइयों की नहीं है क्या? ऐसा प्रश्न उत्पन्न होता है। “सत्यमेव जयते” जैसे सनातन सत्य पर जिनका विश्वास है उन सबका यह देश है। सत्य की अविरत खोज यह हिंदू भूमि की विशेषता है। यहां की ऋषि परंपरा महात्मा गौतम बुद्ध, महावीर, श्री गुरु नानक देव जी, महात्मा बसवेश्वर, नायनमार अलवरों ने सत्य की जानकारी शिष्यों को दी। सत्य खोजने का मार्ग दिखाया। स्वत: तप साधना कर सत्य का ज्ञान (साक्षात्कार) करने को कहा। महात्मा बुद्ध का प्रसिद्ध वचन है “अप्प दीपो भव”।
हिंदू ज्ञान प्रतिभा के दो ही उदाहरण लेते हैं। इनकी तुलना करने वाले विश्व के दूसरे सूत्र विद्वान दिखाएं –
1. एकम सत विप्रा: बहुधा वदन्ति।
2. ॐ दयौ शांतिरतरिक्षम शांति:,
पृथ्वी शांतिराप: शांति रोषधय: शांति।
वनस्पतय: शांतिविश्वे देवा: शांतिर्ब्रह्म शांति:,
सर्व:शांति, शांतिरेव शांति:, सा मा शांतिरेधि ।।
ओम शांति: शांति: शांति:।।
हिंदू, हिंदुत्व अखंड ब्रह्मांड की खोज करने वाले ज्ञान परंपरा का नाम है। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, बुद्ध त्रिपिटक, जैन आगम, थिरुक्कुरल आदि सभी ग्रन्थों में इसी ज्ञान परंपरा की महिमा का बखान है। साधु संत, प्रवचन कार, कीर्तनकार इसी ज्ञान को सामान्य लोगों तक लोक भाषा में पहुंचाने का काम करते हैं।
हिंदू भूमि के सामान्य व्यक्ति का भावविश्व यहां की ज्ञान परंपरा से जुड़ा हुआ है। उसे हम आध्यात्मिक ज्ञान परंपरा कह सकते हैं। उसे हिंदू, हिंदुत्व इन शब्दों से कोई बैर नहीं। समाज से कोई अलग है, ऐसा स्वत: मानने वाले कुछ अति बुद्धिमान लोगों के गले हिंदू, हिंदुत्व, हिंदू भूमि, हिंदू राष्ट्र ये शब्द उतरते ही नहीं हैं। उन्हें ‘हिंदू’ शब्द से ही एलर्जी है। संघ सामान्य लोगों को लेकर मार्गक्रमण कर रहा है। रेखांकन कर भारत नक्शे पर दिखाया जा सकता है, परंतु हिंदू राष्ट्र यह गुणवाचक शब्द है। उसे रेखा के माध्यम से कागज पर नहीं दिखाया जा सकता। भारत के नक्शे पर “भारत हिंदू राष्ट्र है” ऐसा लिखा जा सकता है।
भारत हिंदू राष्ट्र है इसलिए पुण्य भूमि है। विश्व में पुण्य भूमि कहने लायक कोई भूमि है तो वह एक ही, भारत! ऐसा स्वामी विवेकानंद ने विश्वासपूर्वक कहा था। विवेकानंद जी का ऐसा निश्चित मत था कि भारत यही आराध्य देवता है क्योंकि ज्ञान का सर्वप्रथम उदय भारत में ही हुआ था।
ध्वज प्रणाम के बाद शाखा में शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रमों की रचना होती है। सहभागी घटकों में स्वयंसेवकत्व विकसित हो, इसका प्रयत्न होता है। सत्यनिष्ठा एवं राष्ट्रनिष्ठा ये दो गुण आग्रहपूर्वक स्वयंसेवकों में होना ही चाहिए। (सत्यनिष्ठा याने सत्य क्या है यह जानने की इच्छा) स्वयंसेवक में समाज से अपने को जोड़ने की कला होनी चाहिए। सबके साथ मिलकर और सबको साथ लेकर काम करना आना चाहिए। भारत माता के प्रति अव्यभिचारी निष्ठा होना चाहिए, ऐसा परम पूजनीय गुरु जी कहा करते थे। व्यभिचार नहीं। कोई अपेक्षा नहीं। इदम् राष्ट्राय। इदं न मम।। भारत माता सब की कुल देवता है। वक्तृत्व, मान सम्मान, सत्कार, पुरस्कार, सब भारत माता के चरणों में अर्पण। स्वामी विवेकानंद कहते थे,” भारत माता की बलिवेदी पर बलि देने के लिए ही आपका जन्म हुआ है।”
स्वयंसेवक याने संघ शाखा का आधार। संघ शाखा चलाने का उद्देश्य ही है कि स्वयंसेवकों की संख्या में सतत वृद्धि हो। वर्तमान में देश में 80000 संघ शाखाएं लगती हैं। उन सबका प्रयत्न ही यह होता है कि नए स्वयंसेवक निर्माण हों। शरीर में रक्त कोशिकाओं का जो स्थान होता है वही स्थान राष्ट्र रुपी शरीर में स्वयंसेवक का है। एक निश्चित प्रमाण में रक्त कोशिकाएं शरीर में होना चाहिए, जिससे शरीर आरोग्य संपन्न, सुदृढ़ और कार्यक्षम रहता है। राष्ट्र शरीर में स्वयंसेवकों का निश्चित प्रमाण यदि हो तो राष्ट्र शरीर (आरोग्य संपन्न) स्वस्थ, सुदृढ़ तथा कार्यक्षम रहेगा। समृद्धि तथा सुख (परम वैभव) प्राप्त कर सकेगा। स्वयंसेवकों की निश्चित प्रमाण में आवश्यक संख्या को संघ प्रार्थना में ‘विजेत्री च न: संहता कार्य शक्ति’ ऐसा कहा गया है। स्वयंसेवकों की संगठित, विजयशालिनी कार्यशक्ति, खड़ी करने के प्रयत्न निरंतर चालू हैं। शाखा विस्तार, स्वयंसेवक विस्तार, यही काम संघ को करना है।
संघ शाखा याने भक्ति, ज्ञान और कर्म का त्रिवेणी संगम है। रोज एक बार इस त्रिवेणी संगम में स्नान करना चाहिए। भारत माता की अनन्य भक्ति, भारत हिंदू राष्ट्र है इसका ज्ञान तथा “विजेत्री च न: संहता कार्य शक्ति:” खड़ी करना यह कर्म।
स्वतंत्रता के लिए चलने वाले सभी आंदोलनों में डॉ. हेडगेवार जी की सहभागिता प्रमुख रूप से दिखाई देती है। वेंकटेश थिएटर में उनके सम्मान में हुई सभा बहुत प्रसिद्ध हुई। पंडित मोतीलाल नेहरू, विट्ठल भाई पटेल, हकीम अजमल खान, डॉ. अंसारी, राजगोपालाचारी इत्यादि हस्तियां मंच पर उपस्थित थी।
“ब्रिटिशों के संत्रास से देश स्वतंत्र होना चाहिए” यह विषय सार्वजनिक हो गया था, परंतु स्वतंत्रता याने क्या? राष्ट्रीयता याने क्या? राष्ट्र याने क्या? इस पर चर्चा में गंभीरता कहीं नहीं थी। राष्ट्र तथा राष्ट्रीयत्व के स्तंभों पर स्वतंत्रता आंदोलन खड़ा करना चाहिए, ऐसा उन्हें लगने लगा। इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम से एक नवीन कार्य उन्होंने प्रारंभ किया।
संघ में सहभागी होने वाले प्रत्येक घटक की भूमिका स्पष्ट हो, इसलिए एक प्रतिज्ञा 15 वर्ष से ऊपर के स्वयंसेवकों को लेनी पड़ती है। “सर्वशक्तिमान श्री परमेश्वर तथा अपने पूर्वजों का स्मरण कर मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि हमारा पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति और हिंदू समाज का संरक्षण कर हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूं।” इसमें उन्होंने कहीं भी अस्पष्टता नहीं रखी। हिंदू राष्ट्र यह शब्द प्रयोग किसी की प्रतिक्रिया के रूप में प्रयोग में नहीं लाया गया। हिंदू संस्कृति इस राष्ट्र का प्राण है। ‘भारत हिंदू राष्ट्र है’ ऐसा कहते समय भारत की तुलना इस्लामी, इसाई तथा ज्यू देशों से नहीं की जा सकती।
वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता, आगम, त्रिपिटक, श्री गुरु ग्रंथ साहब, इन सब ज्ञान के भंडार को अपना कहने वाला एक भी हिंदू यदि जिंदा रहेगा, तब तक यह हिंदू राष्ट्र कहलाएगा। मुसलमान रहें या ना रहें, इसका हिंदू राष्ट्र से कोई संबंध नहीं है। हिंदू यहां की सनातन ज्ञान परंपरा का नाम है, जो सब की मंगल कामना करता है।
डॉक्टर साहब ने ‘हिंदू’ इस शब्द के बारे में कहीं भी वाद-विवाद नहीं किया। वे अपने शुद्ध, निर्मल अंतःकरण तथा प्रेम से सब से मिलते थे। उन्होंने बड़े-बड़े लोगों के हृदय जीते। 1940 तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक को डॉक्टर जी के देखते-देखते अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त हो चुका था। डॉ. हेडगेवार संतहृदयी महापुरुष थे, इसलिए यह संभव हो सका। सबके प्रति मंगल भावना रखने वाला व्यक्ति ही ऐसा युग प्रवर्तक कार्य कर सकता है। डॉक्टर जी ने हिंदू राष्ट्र पर किसी भी प्रकार का पांडित्यपूर्ण ग्रंथ नहीं लिखा। भक्ति, ज्ञान तथा कर्म की निरंतर साधना करने के लिए संघ शाखा की रचना की। सत्य की पहचान सबको हो यह ईश्वरीय कार्य हम कर रहे हैं।
“अध्यात्म याने क्या?” इस प्रश्न का उत्तर स्वामी विवेकानंद ने सरल भाषा में दिया है। “दूसरों की चिंता करना याने अध्यात्म।” संघ शाखा में दूसरों की चिंता करने के संस्कार ही होते हैं। जैसे-जैसे गटनायक, गणशिक्षक, मुख्य शिक्षक, कार्यवाह इन पदों पर काम करते हुए स्वयंसेवक बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसका दूसरों की चिंता करने का दायरा भी बढ़ता जाता है। शिशु, बाल, तरुण, प्रौढ़, इस प्रकार प्रत्येक स्वयंसेवक की चिंता करने का स्वभाव संघ शाखा में तैयार होता है। “मैं शाखा में जाने के कारण राष्ट्र सामर्थ्य संपन्न होगा”, इस धारणा से स्वयंसेवक शाखा में आता है। किसी भी स्वार्थ का विचार उसके मन को स्पर्श नहीं करता। अध्यात्म साधना का सहज मार्ग याने संघ शाखा है।
संघ शाखा के संबंध में जारी लेखमाला का समारोप संत तुकाराम के वचनों से करना उचित लगता है।
जगाच्या कल्याणा संतांच्या विभूति।
देह कष्टविति उपकारे।।
भूतांची दया हे भांडवल संता।
आपुली ममता नाही देही।।
अर्थात संत विश्व के कल्याण हेतु बहुत कष्ट करते हैं। प्राणी मात्र पर दया यही संतों की पूंजी है इसलिए वे अपने देह की भी चिंता नहीं करते।
-मधु भाई कुलकर्णी
संघ शाखा का स्वरूप, पवित्रता, संघ का चिंतन, कार्यपद्धति, स्वयंसेवकों का सदाचरण इत्यादि महत्वपूर्ण बिन्दुओं को बहुत सुबोध तरीके से समझाया गया है।
ऐसे ही बातें बार-बार लानी चाहिए।
हिंदी विवेक का कार्य स्तुत्य है।
साधुवाद।
मस्त