देवताओं के दिव्य दूत और संचार के अग्रणी साधक माने जाते रहे देवर्षि नारद लोकमंडल के पहले दिव्य संवाददाता हैं, जो एक लोक से दूसरे लोक में भ्रमण करते हुए संवाद-संकलन का कार्य कर एक सक्रिय एवं सार्थक संवाददाता की भूमिका निभाते रहे हैं। देवर्षि नारद तीनों लोकों पृथ्वी, आकाश और पाताल में यात्रा कर देवी-देवताओं तथा असुरों तक संदेश पहुंचाते थे, इसीलिए इन्हें ब्रह्माण्ड का पहला पत्रकार माना जाता है।
मान्यता है कि देवर्षि नारद का जन्म ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को हुआ माना जाता है, इसलिए हर वर्ष इसी दिन श्रद्धा के साथ ‘नारद जयंती’ मनाया जाता है। इस वर्ष नारद जयंती 13 मई को मनाई जा रही है। इस दिन भगवान विष्णु तथा माता लक्ष्मी का पूजन करने के पश्चात देवर्षि नारद की पूजा की जाती है। नारद मुनि को ब्रह्मा के मानस पुत्रों में गिना जाता है।
कुछ मान्यताओं के अनुसार नारद मुनि का जन्म सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी की गोद से हुआ था, जबकि कुछ पुराणों के अनुसार वे ब्रह्मा के कंठ से उत्पन्न हुए थे। नारद वेद, उपनिषद, ज्योतिष, खगोल, संगीत, योग, इतिहास, पुराण, व्याकरण, औषधि और वेदांग जैसे अनेक विषयों में पारंगत माने जाते हैं। उनके ज्ञान, भक्ति और संगीत की गहराई ने उन्हें ‘देवर्षि’ की उपाधि दिलाई। वे सदैव भगवान विष्णु की भक्ति में लीन रहते और ‘नारायण-नारायण’ का जाप करते हुए वीणा बजाते है। ऐसा माना जाता है कि नारद मुनि ने ही वीणा वादन का आविष्कार किया और संगीत शास्त्र की रचना की, इसलिए उन्हें संगीत का देवता भी कहा जाता है। उनका जीवन ज्ञान, भक्ति और संवाद की त्रयी का प्रतीक माना जाता है।
धार्मिक पुराणों के अनुसार अनेक कलाओं तथा विद्याओं में निपुण देवर्षि नारद को संगीत की शिक्षा स्वयं भगवान ब्रह्मा ने दी थी और भगवान विष्णु ने उन्हें माया के विविध रूप समझाए थे। भगवान विष्णु की कृपा से नारद सभी युगों और तीनों लोकों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। विभिन्न शास्त्रों में नारद को त्रिकालदर्शी माना गया है।
मान्यता है कि देवर्षि नारद ने ही भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, भक्त ध्रुव इत्यादि भगवान विष्णु के कई परम भक्तों को उपदेश देकर उन्हें भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया था। देवर्षि नारद का वर्णन कुछ स्थानों पर बृहस्पति के शिष्य के रूप में भी मिलता है। अपनी वीणा की मधुर तान से भगवान विष्णु का गुणगान करने और अपने श्रीमुख से सदैव नारायण-नारायण का जप करते हुए विचरण करने वाले देवर्षि नारद को महर्षि व्यास, महर्षि वाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव का गुरु माना जाता है। नारद जी ने ही महर्षि व्यास को महाभारत लिखने के लिए और महर्षि वाल्मीकि को रामायण की रचना करने के लिए प्रेरित किया था।
पुराणों में उल्लेख मिलता है कि राजा प्रजापति दक्ष ने नारद को श्राप दिया था कि वे दो मिनट से ज्यादा कहीं रुक नहीं पाएंगे, यही कारण है कि नारद अक्सर यात्रा करते रहते हैं। देवताओं के दिव्य दूत और संचार के अग्रणी साधक माने जाते रहे देवर्षि नारद लोकमंडल के पहले दिव्य संवाददाता हैं, जो एक लोक से दूसरे लोक में भ्रमण करते हुए संवाद-संकलन का कार्य कर एक सक्रिय एवं सार्थक संवाददाता की भूमिका निभाते रहे हैं। देवर्षि नारद तीनों लोकों पृथ्वी, आकाश और पाताल में यात्रा कर देवी-देवताओं तथा असुरों तक संदेश पहुंचाते थे, इसीलिए इन्हें ब्रह्माण्ड का पहला पत्रकार माना जाता है।
समस्त युगों, कालों, विधाओं और वर्गों में सम्मान के पात्र रहे नारद जी को सभी लोकों के समाचारों की जानकारी रखने वाले कवि, मेधावी नीतिज्ञ तथा एक प्रभावशाली वक्ता के रूप में स्मरण किया जाता है। हालांकि तात्कालीन हास्य के अग्रदूतों ने नारद मुनि की छवि को एक चुगलखोर अर्थात् इधर की उधर करने वाले और आपस में भिड़ाकर क्लेश कराने वाले पौराणिक चरित्र के रूप में गढ़ दिया है, लेकिन वास्तव में उनका प्रमुख उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना ही परिलक्षित होता रहा है। वे एक लोक से दूसरे लोक में भ्रमण करते हुए संवाद-संकलन का कार्य कर एक सक्रिय एवं सार्थक संवाददाता की भूमिका निभाते रहे हैं। संवाद के माध्यम से वे तोड़ने का नहीं बल्कि जोड़ने का कार्य करते हैं और इसीलिए उन्हें ‘पत्रकारिता के प्रथम पितृ पुरुष’ कहा गया है। देवताओं के ऋषि होने के साथ-साथ वे ब्रह्माण्ड के प्रथम दिव्य पत्रकार के रूप में लोकमंडल के संवाददाता हैं।
रामायण के एक प्रसंग के अनुसार नारदजी को अहंकार आ गया था कि उन्होंने ‘काम’ पर विजय प्राप्त कर ली है। उनके अहंकार को तोड़ने के लिए भगवान विष्णु ने अपनी माया से एक नगर का निर्माण किया, जिसमें एक सुंदर राजकन्या (स्वयं लक्ष्मी) का स्वयंवर चल रहा था। स्वयंवर में नारदजी भी पहुंच गए और उस त्रिलोक सुंदरी राजकन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठे। नारदजी ने तब भगवान से ऐसा सुंदर रूप मांगा ताकि राजकुमारी उन्हें पसंद कर ले, लेकिन अपने परम भक्त नारद की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने उन्हें बंदर का रूप दे दिया और स्वयंवर में स्वयं राजकन्या रूपी लक्ष्मी जी को वर लिया। स्वयंवर के बाद जब नारद मुनि ने अपना मुंह पानी में देखा तो अपना बंदर जैसा चेहरा देखकर क्रोध की अग्नि में भड़क उठे और भगवान विष्णु को श्राप दे डाला कि उन्हें भी पत्नी वियोग सहना पड़ेगा और तब वानर ही उनकी मदद करेंगे। कहा जाता है त्रेतायुग में नारद जी के श्राप के कारण ही भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम को माता सीता का वियोग सहना पड़ा था और लंका विजय के अभियान में तब वानरों ने उनकी मदद की थी।
पौराणिक कथाओं के अनुसार नारद मुनि की पहुंच ब्रह्मलोक से देवलोक और दानवों के राजमहलों से लेकर मृत्युलोक तक है। नारद मुनि उन देवताओं में से हैं, जिनके हाथ में किसी भी प्रकार का कोई अस्त्र नहीं है बल्कि इनके एक हाथ में वीणा है और एक हाथ में वाद्य यंत्र है। देवर्षि नारद को समस्त देवताओं और असुरों के बीच संदेशवाहक का स्थान प्राप्त है। वह ब्रह्मलोक में वास करते हैं और सभी लोकों में विचरण करने में सक्षम हैं। बादल को उनकी सवारी माना जाता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के 10वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारद के लिए कहा था:-
देवर्षीणाम् च नारदः अर्थात ‘मैं देवर्षियों में नारद हूं’। वास्तव में देवर्षि नारद एक ऐसे पौराणिक चरित्र हैं, जो तत्वज्ञान में परिपूर्ण हैं। सद्गुणों के अथाह भंडार और समस्त शास्त्रों में प्रवीण देवर्षि नारद को शास्त्रों में मन का ऐसा भगवान कहा गया है, जो किसी भी होनी-अनहोनी को समय रहते पहचान लेते हैं। उन्हें वेदों और उपनिषदों का मर्मज्ञ, न्याय तथा धर्म का तत्वज्ञ, शास्त्रों का प्रकांड विद्वान, इतिहास और पुराण विशेषज्ञ, औषधि ज्ञाता, योगनिष्ठ, ज्योतिष एवं संगीत विशारद, भक्ति रस का प्रमुख तथा अतीत की बातों को जानने वाला माना गया है।
25 हजार श्लोकों वाला प्रसिद्ध ‘नारद पुराण’ देवर्षि द्वारा ही रचा गया है, जिसमें उन्होंने भगवान विष्णु की भक्ति महिमा के साथ-साथ मोक्ष, धर्म, संगीत, ब्रह्मज्ञान, प्रायश्चित इत्यादि कई विषयों की मीमांसा प्रस्तुत की है। इसके अलावा संगीत का एक उत्कृष्ट ग्रंथ ‘नारद संहिता’ भी है। विभिन्न पौराणिक कथाओं के अनुसार देवर्षि नारद ने देवताओं के साथ-साथ असुरों का भी सही मार्गदर्शन किया और इसीलिए सभी लोकों में उन्हें सदैव सम्मान की दृष्टि से देखा जाता रहा है।
– योगेश कुमार गोयल