ईरान एक कट्टर इस्लामी देश है। ईरान से शांति को खतरा हो सकता है। अगर ईरान परमाणु हथियार बनाने में यशस्वी होता हैतो वह हमास जैसे आतंकी संगठनों को परमाणु हथियार दे सकता है।
इसराइल ने ईरान के ‘परमाणु कार्यक्रम ठिकानों’ पर हमला कर दिया है। इसराइल ने अपनी इस कार्रवाई को ऑपरेशन राइजिंग लायन नाम दिया है। इस हमले पर अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए इसराइल के प्रधान मंत्री ने कहा है कि ईरान के परमाणु खतरे को खत्म करने के लिए यह हमला किया, क्योंकि यह इसराइल के अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा है। इसराइल ने ईरान की न्यूक्लियर साइट्स को निशाना बनाया। पिछले कुछ वर्षों में ईरानी नेता बार-बार साफतौर पर इसराइल को नष्ट करनेवाली बातें करते रहे हैं। ईरान की सरकार गुपचुप तरीके से परमाणु हथियारों का एक बड़ा कार्यक्रम चला कर दुनिया को धोखा दे रही थी। इसलिए हमारे पास कार्रवाई करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। इसराइल ने कहा कि ईरान ने इतनी मात्रा में इनरिच्ड युरेनियम जमा कर लिया है, जिससे 90 से ज्यादा परमाणु बम बनाए जा सकते हैं। इसरायल ने कहा कि हमारी खुफिया एजेंसी ने पता लगाया कि ईरान के अधिकारी और वैज्ञानिक एक भूमिगत सेंटर में इकट्ठा हुए थे। ये इसराइल पर हमले की योजना बना रहे थे। ईरानी सरकार इसराइल को मिट्टी में मिलाने की बार-बार धमकी दे रही थी, इसलिए हमने ईरान पर हमला किया।
युद्ध के पहले चरण में ईरान की राजधानी तेहरान में इसराइल ने हाईराइज बिल्डिंग में सिर्फ टारगेटेड फ्लैट्स को ही निशाना बनाया। इस हमले में कुछ ईरानी प्रमुख परमाणु वैज्ञानिक, वरिष्ठ सैन्य अधिकारी और धार्मिक एवं सेना के अधिकारी मारे गये हैं। विश्लेषकों का कहना है कि इन हमलों के पीछे शीर्ष नेतृत्व को निशाना बनाकर ईरान की सिस्टम को तहस-नहस करने की रणनीति है। एक्सपर्ट मान रहे हैं कि इसराइल का यह हमला सिर्फ परमाणु कार्यक्रम को खत्म करना नहीं, बल्कि परमाणु कार्यक्रम यशस्वी करने का प्रयास कर रहे ईरान की कमर को तोड़ना भी है। शुरू में परमाणु कार्यक्रमों के स्थलों तक सीमित दिखाई देने वाला यह इसराइल और ईरान का युद्ध अब नागरी क्षेत्र तक फैल गया है। परमाणु कार्यक्रमों से जुड़े वैज्ञानिक और सेना के प्रमुख अधिकारी मारे गए हैं, साथ में पद के विकल्प बनने वाले को भी मारा जा रहा है। इस कारण इसराइल को धूल में मिलाने की कसम खाने वाले ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता आयतुल्लाह खामनेई अब कहीं गायब हो गए हैं। यह बड़ी आश्चर्य की बात है।
संयुक्त राष्ट्र की परमाणु देखरेख करने वाली संस्था IABA ने पिछले दिनों कहा था कि ईरान अपने परमाणु समझौते के दायित्वों का उल्लंघन कर रहा है। इसके बाद इसराइल और अमेरिका इस बात को लेकर चिंतित हो गए कि अगर ईरान को परमाणु हथियार मिला तो वह क्षेत्रीय शक्ति बन सकता है। ईरान एक कट्टर इस्लामी देश है। ईरान से शांति को खतरा हो सकता है। अगर ईरान परमाणु हथियार बनाने में यशस्वी होता है तो वह हमास जैसे आतंकी संगठनों को परमाणु हथियार दे सकता है। इसका परिणाम बहुत गंभीर हो सकता है। ईरान पर किए गए इमलों के संदर्भ में इजरायल ने अपने अस्तित्व पर बढ़ते परमाणु खतरे से निपटने की कार्रवाई कहा हैं। हालांकि ईरान के न्यूक्लियर प्लांट 80 मीटर यानी करीब 26 मंजिल की गहराई में है। ईरान की तकनीक बेहतरीन है। इसलिए माना जा रहा है कि फिलहाल उसके न्यूक्लियर प्लांट को बहुत नुकसान नहीं पहुंचा है। इजराइल ने ईरान पर हमला किया। ईरान ने इजराइल पर हमला किया। यह घातक युद्ध पश्चिम एशिया में बढ़ते तनाव का कारण बन रहा है।
इसराइल के प्रधान मंत्री नेतन्याहू ने अपने इस नए सैन्य अभियान को यह कहकर उचित ठहराया है कि ईरान उसके अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है। यूरेनियम एनरिचमेंट एटम बम बनाने की प्रक्रिया है, जिसके तहत यूरेनियम में कंसंट्रेशन को बढ़ाया जाता है। माना जा रहा था कि ईरान को कई एटम बम बनाने के लिए जरूरी सामग्री प्राप्त करने में बस कुछ ही सप्ताह बाकी थे, हालांकि बम बनाने और उन्हें डिलीवर करने के तरीके तक पहुंचने में अभी ईरान को बहुत समय लगता। सवाल यह है कि मध्य-पूर्व में बढ़ते तनाव को एक ऐसे बड़े युद्ध की ओर जाते देख सकते हैं, जिसे कोई नहीं चाहता। ट्रम्प के लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि वे अमेरिका को इस लड़ाई से दूर रखें। ट्रम्प ने अभी तक विदेशी संघर्षों में अमेरिका को उलझाने से दूरी रखा है।
भारत का रुख यह है कि ईरान और इसरायल के बीच युद्ध विराम होना चाहिए और तनाव कम करने के लिए बातचीत और कूटनीतिक माध्यम अपनाए जाने चाहिए। इसके जरिए भारत दोनों देशों के साथ अपने संबंधों में संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता नजर आ रहा है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रस्तुत प्रस्ताव पर मतदान के दौरान भारत ने भाग नहीं लिया। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ईरान के समक्ष स्पष्ट रूप से बताया है कि भारत इस पर अडिग है। इस मुद्दे को बातचीत और कूटनीतिक माध्यमों से सुलझाया जाना चाहिए। इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक कई देश इसके खिलाफ कड़ा रुख अपनाते नजर आ रहे हैं।
ईरान 25 साल से ज़्यादा समय से परमाणु ईंधन विकसित कर रहा है। शुरू में ईरान ने कहा था कि वह शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए यानी चिकित्सा, ऊर्जा, उर्वरक आदि के लिए परमाणु ईंधन विकसित कर रहा है। बाद में ईरान ने हथियारों के लिए यूरेनियम को संशोधित करना शुरू कर दिया। इसराइल, अमेरिका आदि देश यूरेनियम विकास के विरोधी थे। उनका मानना था कि ईरान के हाथ परमाणु हथियार लगना दुनिया के लिए ख़तरनाक हैं क्योंकि ईरानी नेतृत्व हिंसक और ख़तरनाक है। ईरान ने कहा कि उसे आत्मरक्षा के लिए और अपने दुश्मन इसरायल को रोकने के लिए परमाणु हथियार रखने का हमें अधिकार है। इस मुद्दे पर दुनिया भर में असहमति थी। बीच के रास्ते के रूप में अमेरिका ने ईरान पर इस समझौते में शामिल होने का दबाव बनाया। उसने आर्थिक प्रतिबंध लगाए। ओबामा के कार्यकाल में आर्थिक प्रतिबंधों में ढील देकर ईरान को अंतरराष्ट्रीय निगरानी में लाने का प्रयास किया गया। यह प्रयास बायडेन के कार्यकाल में भी जारी रहा। जिसमें ईरान के परमाणु कार्यक्रम को काफी हद तक नियंत्रित किया गया था। लेकिन ईरान के बढ़ते खतरनाक मंसूबों का एक प्रमुख कारण ईरान के साथ अपने व्यवहार में नेतन्याहू और ट्रम्प द्वारा अतीत में की गई भारी गलतियां भी थीं। नेतन्याहू के मजबूत समर्थन के चलते ट्रम्प ने 2018 में ओबामा द्वारा किए परमाणु समझौते से खुद को अलग कर लिया था, ट्रम्प को उम्मीद थी कि इसके बाद ईरान घुटनों पर चलकर उनके पास आएगा और रियायतों की मांग करेगा। लेकिन ईरान ने इसके उलट अपने यूरेनियम एनरिचमेंट में तेजी ला दी।
अमेरिका ने मई में ईरान के साथ बातचीत शुरू की थी। उसने ईरान को प्रस्ताव दिया कि अगर वह यूरेनियम संवर्धन बंद कर दे तो उस पर लगे आर्थिक प्रतिबंध हटा दिए जाएंगे। इसरायल ट्रंप के इस प्रस्ताव के खिलाफ था। इसराइल का मानना था कि आर्थिक विकास होने पर ईरान अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा। अमेरिका के इसरायल के साथ प्राचीन काल से ही घनिष्ठ संबंध रहे हैं। लेकिन, ट्रंप एक व्यवसायी हैं, एक सौदागर है। ट्रंप ने इसरायल को नजरअंदाज किया और ईरान के साथ स्वतंत्र रूप से बातचीत शुरू की। जब ईरान-अमेरिका वार्ता चल रही थी, तब इसरायल ने ईरान पर हमले की तैयारी शुरू कर दी थी। ट्रंप को इस बात का पता था। उन्होंने नेतन्याहू को संदेश भेजा, “लड़ाई मत करो, कूटनीतिक रास्ता अपनाओ।” इसराइल की हालिया बमबारी का मकसद ईरान के साथ मूल परमाणु समझौते को कुछ हद तक बहाल करने के ट्रम्प के हालिया कूटनीतिक प्रयासों को कमजोर करना भी हो सकता है।
सऊदी अरब, कतर, ओमान, अमीरात और जॉर्डन ने इसरायली हमले की निंदा की। उन्होंने ईरान को ‘ इस्लामी देश’ बताया। गाजा और ईरान युद्ध को लेकर यूरोपीय देश, चीन, रूस और खाड़ी के मुस्लिम देश भी इसरायल से नाराज हैं। इसराइल-ईरान संघर्ष विश्व में पूर्व-पश्चिम संघर्ष को और तीव्र कर रहा है। यदि और अधिक देश इसमें शामिल हो जाते हैं, तो वैश्विक स्तर पर जोखिम बढ़ सकती है। ईरान- इसराइल के बीच लंबे समय से दुश्मनी है, दोनों देश एक-दूसरे को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। ईरान भविष्य में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा, यह मानकर ईरान पर हमला करना अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप नहीं है। एहतियात के तौर पर हमला करने का तर्क बहुत ही दोषपूर्ण और खतरनाक है और दुनिया का कोई भी देश यह दावा करके किसी दूसरे देश पर हमला कर सकता है? इस प्रकार की दलीलें रखकर इसराइल की कार्रवाई को गलत मानने वाले कई देश है।
ट्रम्प चाहते थे कि इजरायल ईरान पर हमला न करे, लेकिन कहां जा रहा है कि यह युद्ध नेतन्याहू की जरूरत थी। पर ऐसे हमले इतनी जल्दबाजी में नहीं किए जा सकते, यह सही है कि इसके लिए पहले से तैयारी करनी पड़ती है। पिछले साल से ही यह साफ था कि इसरायल कभी भी ईरान पर भीषण हमला कर सकता है।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप विश्व के किसी भी समस्या को तुरन्त हल करने का दावा करते हैं। अब देखना यह है कि क्या अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इजरायल-ईरान में युद्धविराम भी करवाएंगे। अमेरिका इन दोनों में युद्ध नहीं चाहता था। ईरान को झुकाने की कवायद अमेरिका कर रहा था। लेकिन ईरान-इजरायल दोनों ने अमेरिका को महत्व नहीं दिया। दोनों का व्यवहार निश्चित रूप से अमेरिका का मजाक उड़ाता है। ऐसे में सवाल यह है कि इसरायल-ईरान के बेकाबू युद्ध के घोड़ों पर लगाम कौन लगाएगा? इसका जवाब हमले के प्रारंभ में दिए हुए नेतन्याहू के वक्तव्य में मिलता है, नेतन्याहू ने कहा था कि जब तक ईरान की सभी परमाणु प्रोजेक्ट नष्ट नहीं हो जातीं, तब तक वे नहीं रुकेंगे। हालांकि ईरान द्वारा जवाबी कार्रवाई में इसराइल पर मिसाइलें दागे जाने के बाद हमले की तीव्रता और ईरानी बम की तुलना में इसराइल की मिसाइल रोधी ढाल (डोम) अप्रभावी साबित हुई है।
इसराइल और ईरान की लड़ाई शुरू हुए अभी हफ्ता भी नहीं गुजरा है, लेकिन युद्धों के इतिहास में इसका मुकाम कुछ अलग ढंग का ही लगने लगा है। आबादी और क्षेत्रफल में ईरान से बहुत छोटा होने के बावजूद इसराइल का पलड़ा तकनीक, युद्ध कौशल, पूंजी और बाहरी समर्थन की दृष्टि से बहुत भारी है, लेकिन अचानक हमले के सारे फायदे लेकर भी नुकसान इसराइल को भी इस लड़ाई में बराबर का हो रहा है। लड़ाई का एकमात्र स्वरूप हवाई युद्ध का ही बचा है, जिसमें ईरान की वायुसेना हमले और बचाव, दोनों दृष्टि से कुछ खास काम की नहीं है। दोनों देशों की जमीनी दूरी इतनी ज्यादा है कि युद्धक विमान बीच में ही दोबारा तेल भरे बिना दूसरे देश पर बमबारी करके घर वापसी नहीं कर सकते। ईरानी जहाज यह काम न तो कहीं रुककर कर सकते हैं, न ही उनके पास एयर टैंकरों का इंतजाम है। जबकि इसराइल के पास दोनों सुविधाएं मौजूद हैं। बात हवाई हमलों से बचाव की करे, तो ईरानी लड़ाकू विमान लड़ाई के लिहाज से बहुत पुराने हैं। ऐसे में अचानक हमले से तीन मकसद इसरायल को साधने थे। इरान की सेना और एटॉमिक रिसर्च के शीर्ष ढांचे को खत्म करना, बची-खुची एंटी-एयरक्राफ्ट बैटरीज को नष्ट करना और परमाणु बम बनाने की संभावना वाली सभी जगहों को बम मारकर कुछ साल पीछे धकेल देना। इसराइल के इस योजना के बावजूद ईरान के सभी परमाणु ठिकाने सुरक्षित हैं। रही बात लड़ाई के भविष्य की, तो ईरान ने जवाबी तौर पर इसराइल के फौजी और रिहाइशी ठिकानों पर घातक मिसाइलें दागकर और इसराइल ने ईरान के तेल-गैस ठिकानों पर बम मारकर इसके लड़ाई लंबी खिंचने का इंतजाम कर दिया है।
ईरान और इसराइल के बीच आज जो तनातनी चल रही है, उसकी जड़ें 1979 की ईरानी क्रांति में हैं, जिसने शिया धर्मतंत्र को जन्म दिया। इस नए इस्लामी गणराज्य ने न केवल ईरान को नया रूप देने की कोशिश की, इसकी महत्वाकांक्षा इस्लामी दुनिया का नेतृत्व करने की भी रही। इसने प्रतिद्वंद्विता को जन्म दिया और सऊदी अरब जैसी सुन्नी ताकतें ईरान के क्षेत्रीय प्रभाव को चुनौती देने के लिए एकजुट होने लगीं। उसी समय अरब राज्यों ने इसराइल के हाथों बार-बार सैन्य पराजय झेलने के बाद अपने कट्टरपंथी रुख में नरमी लाना शुरू किया। ईरान ने अपनी सीमाओं से परे जाकर ताकत दिखाने के लिए हिजबुल्ला, हमास, हुतियों जैसे सशस्त्र आतंकवादी संगठनों को समर्थन दिया। आज ईरान अरब देशों की तुलना में कहीं अधिक आक्रामक रूप से इसराइल विरोधी हो गया है। ईरान का परमाणु कार्यक्रम केवल न्यूक्लियर-डिटरेंट के सिद्धांत पर आधारित नहीं है, यह इसराइल की अघोषित परमाणु क्षमता के खिलाफ एक रणनीतिक बचाव भी है। आज ईरान का घोषित शत्रु भले ही इजराइल हो, लेकिन अगर ईरान ने परमाणु बम बना लिया तो यह पश्चिम एशिया और मध्य एशिया में हिंसक मुस्लिम शक्ति के रूप में उभर कर आएगा और यहां के शक्ति संतुलनों को भी बदल देगा।
इसरायल-ईरान युद्ध का असर विश्व के आर्थिक व्यवहार पर गंभीर रूप में होने लगा है। जंग और बढ़ी तो दुनिया की इकॉनमी और हिल सकती है। तीन सप्ताह से अधिक समय तक यह युद्ध चला तो वैश्विक व्यवहार एवं उद्योग की श्रृंखलाओं को गंभीर रूप से बाधित कर सकता है।
यूक्रेन के साथ युद्ध में फंसा रूस इस लड़ाई में अब तक किसी भी प्रत्यक्ष भागीदारी से बचना चाहता है। चीन अपने स्वार्थ के चलते दोनों को सिर्फ संयम बरतने का आह्वान करेगा। तुर्किये, पाकिस्तान, फिलिस्तीन, समर्थक बयानबाजी करते रहेगा। अमेरिका ने अपने आप को इस युद्ध से सुरक्षित रखा हुआ है। इसके बावजूद विश्व का नेतृत्व करने की ट्रंप की आंतरिक इच्छा इस संकट के समय में सकारात्मक योगदान दे सकती है? लेकिन अमेरिका की किसी के बाप के न होने की पद्धति, साथ में ट्रंप के सनकी व्यवहार के कारण दुनिया अमेरिका और ट्रंप दोनों पर 100% विश्वास नहीं रखती। वर्तमान स्थिति में भारत मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है। कारण किसी पर आक्रमण न करने की भूमिका भारत की सदियों से रही है। भारत ने परम सीमा तक शांति के मार्ग को अपनाया है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व शैली को विश्व के सभी देश पसंद करते हैं। इससे आगे बढ़कर नरेंद्र मोदी की क्षमता दुनिया के सामने स्पष्ट करने का शायद यह अवसर साबित हो सकता है। इस कारण वर्तमान की वैश्विक समस्या के समय भारत की भूमिका भी बहुत बड़ी अहमियत रखती है। किसी भी महामानुभव के योगदान से यह समस्या सुलझनी अत्यंत आवश्यक है। ऐसा होना अत्यंत आवश्यक है, यह गंभीर प्रश्न आज सभी के सामने है, इसरायल-ईरान का यह घातक युद्ध कब तक चलेगा? क्या इस युद्ध से विश्व युद्ध की संभावना है? पश्चिम एशिया में बढ़ते तनाव पर चिंता और कितनी बढ़ेगी? पूरे विश्व के मन में अब जो चिंताजनक प्रश्न है, उन प्रश्नों का उत्तर आने वाले समय के गर्भ में छुपा हुआ है…।