जब समय की आंधी किलों को ढहा देती है और सत्ता के सिंहासन राख हो जाते हैं, तब कुछ युगपुरुष इतिहास को हथेली पर उठाकर नवयुग की दिशा दिखाते हैं। ऐसे ही एक दीप-पुरुष थे, महाराणा उदय सिंह द्वितीय, जिनकी दृष्टि में दूरगामी रणनीति थी, भुजाओं में स्वराज्य का संकल्प था और हृदय में मातृभूमि के लिए अमिट श्रद्धा। वे केवल एक राजा नहीं थे, संस्कृति के संरक्षक, आत्मगौरव के अभियंता और प्रजा के विश्वास-पुरुष थे। चित्तौड़ की राख से जिन्होंने उदयपुर के सूर्य को जन्म दिया और इतिहास को यह सिखाया कि पराजय की धूल में भी नवनिर्माण की चेतना अंकुरित हो सकती है।
चित्तौड़ की छाया से उदयपुर के प्रकाश तक
16वीं शताब्दी का भारत निरंतर मुगलिया हमलों और आंतरिक कलह से त्रस्त था। चित्तौड़ पर जब एक नहीं, कई बार विध्वंसकारी हमले हुए, तब मेवाड़ की रक्षा हेतु एक नई रणनीति की आवश्यकता पड़ी। यह महाराणा उदय सिंह ही थे, जिन्होंने दूरदर्शिता और साहस का परिचय देते हुए अरावली की गोद में उदयपुर नामक एक नए नगर की नींव रखी। यह कोई राजधानियों की अदला-बदली नहीं थी। यह था, स्वराज्य के विचार को फिर से सजीव करने का प्रयत्न, एक ऐसा नगर जो युद्ध नहीं, संस्कृति और निर्माण की भाषा बोले।
युद्धभूमि से युगनिर्माण की ओर
महाराणा उदय सिंह कोई केवल तलवार के धनी नहीं थे। वे भविष्य की भूमि पर आशा के बीज बोने वाले शिल्पी थे। चित्तौड़ की राख से वे केवल बदला नहीं, बदलाव ले आए। उन्होंने सिसोदिया वंश को केवल जीवित नहीं रखा, बल्कि उसे धर्मरक्षा, लोकसेवा और सांस्कृतिक चेतना का नेतृत्व सौंपा। उदयपुर की स्थापना मात्र एक नगर नहीं, बल्कि नव-आत्मगौरव की घोषणा थी। यह एक ऐतिहासिक उदाहरण है कि जब शत्रु दीवारें गिराता है, तब प्रबुद्ध राजा दुर्गों का स्थान आत्मबल में खोजते हैं।
मातृभूमि के लिए समर्पित एक सम्राट
चित्तौड़ के तीसरे साके की ज्वाला कोई साधारण इतिहास नहीं, वह अस्मिता की अग्निपरीक्षा थी। जब अकबर के आक्रमण में चित्तौड़ की प्राचीरें गिरीं, महलों की मीनारें राख हुईं और स्त्री-शिशु-सैनिकों की आंखों में धधकते धुएं का धुंधलका छा गया, तब महाराणा उदय सिंह ने केवल अपने कुल की रक्षा नहीं की, बल्कि समूचे मेवाड़ की आत्मा को नया आश्रय, नया आकार और नया अभिप्राय दिया।
वे जानते थे कि कोई भी शासन केवल प्रासादों और परकोटों से नहीं, बल्कि प्रजा के विश्वास, नेतृत्व की दृष्टि और आत्मगौरव के बीजों से खड़ा होता है। उदयपुर, आज जो ‘झीलों का शहर’ कहलाता है, उसकी नींव केवल पत्थरों से नहीं, बलिदान और बुद्धिमत्ता से रखी गई थी। महाराणा प्रताप जैसे अमर पुत्र को जन्म देने वाले इस राजपुरुष की सबसे बड़ी उपलब्धि यह नहीं थी कि उन्होंने नगर बसाया, बल्कि यह थी कि उन्होंने एक ऐसे राज्य की पुनर्रचना की जिसने पराजय की नहीं, पुनर्निर्माण की राजनीति बोली। उदयपुर उस कालखंड में एक सांस्कृतिक प्रतिरोध की रचना थी, जहां नगर एक भूगोल नहीं, एक वैचारिक घोषणा बना। उन्होंने यह सन्देश दिया कि जो राजा केवल युद्धभूमि पर नहीं, सांस्कृतिक संघर्षों में भी दिशा देता है, वही राष्ट्र की धरोहर बनता है। मेवाड़ का अस्तित्व उस दिन मिटा नहीं था, उदय सिंह की दूरदृष्टि और प्रजाधर्म की शक्ति से वह एक नए स्वरूप में उदित हुआ था। विदित हो कि जिस हाथ ने प्रताप को झूला झुलाया, उसी हाथ ने आने वाली पीढ़ी को मातृभूमि के लिए संघर्ष का संस्कार दिया। एक पिता, एक राजा, एक राष्ट्रभक्त उदय सिंह ने इतिहास को न केवल जीवित रखा, उसे पुनः जीवंत किया। वे जानते थे, एक पराजय अंतिम नहीं होती, परन्तु पराजय को स्वीकार कर लेना इतिहास का अंतिम अध्याय बन सकता है।
महाराणा के मेवाड़ी मंत्र
आज जब हम महाराणा उदय सिंह द्वितीय की जयंती मना रहे हैं, यह केवल श्रद्धांजलि का क्षण नहीं, बल्कि स्मृति से संकल्प तक की एक ऐतिहासिक यात्रा है। यह वह अवसर है, जब अतीत की राख से भविष्य की चिंगारियों को पहचानने का संकल्प लेना होगा। महाराणा उदय सिंह हमें सिखाते हैं कि रणनीति में धैर्य और विपत्ति में दृष्टि ही एक सच्चे सम्राट की पहचान होती है। पराजय केवल अंत नहीं, नवसर्जन का बीज भी हो सकती है और यह कि भूमि और संस्कृति की रक्षा के लिए विलंब विनाश बन सकता है।आज का भारत जब विकसित राष्ट्र की ओर द्रुत गति से अग्रसर है, तब यह स्मरण अत्यंत आवश्यक है कि विकास महज कांक्रीट का खेल नहीं, आत्मगौरव का अभियान है। शहरों की नींव और संस्कारों की धारा साथ-साथ चलनी चाहिए। ऐसे समय में महाराणा उदय सिंह की स्मृति हमें चेताती है कि विकास केवल ईंट और पत्थर से नहीं, आत्मा, अभिप्राय और दृष्टि से होता है। श्रद्धा-सुमन उस युगदृष्टा को, जिसने उजाड़ की धूल में उजाले की नगरी बसाई, जिसने पराजय में पराक्रम का बीज बोया, और जिसके एक निर्णय ने मेवाड़ को मिटने नहीं, अमरता का आशीर्वाद दिया।