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युग परिवर्तन का शाश्वत संकल्प

युग परिवर्तन का शाश्वत संकल्प

by अमोल पेडणेकर
in संघ
2

राजनीति या सत्ता परिवर्तन की बजाए संघ ने समाज परिवर्तन को प्राथमिकता दी है। इसी कारण संघ की विचारधारा में समाज परिवर्तन के मुद्दे प्रथम होते हैं और राजनीति के मुद्दे उसके लिए सहायक होते हैं। संघ का परिवर्तन केवल युगीन नहीं बल्कि शाश्वत और स्थाई है। यही कारण है कि 100 वर्षों के उपरांत भी संघ पहले से अधिक सशक्त और प्रभावी दिखाई देता है।

यदि बालक युवा न बने और युवा वृद्ध न हो तो जीवन का कोई अर्थ ही न रह जाए। इसी प्रकार समाज यदि स्थिर होकर अतीत की परम्पराओं में ही जकड़ा रहे तो वह कालबाह्य हो जाएगा। इसलिए परिवर्तन को न केवल स्वीकार करना बल्कि उसे सही दिशा देना ही राष्ट्र और समाज के विकास का मूल आधार है। व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन का अर्थ है… आत्मचिंतन, आत्मसुधार और परिस्थितियों के अनुसार अपने आचरण में नवीनता लाना। एक छात्र से विद्वान और विद्वान से समाजसेवी बनने की यात्रा परिवर्तन के बिना सम्भव नहीं। यदि कोई व्यक्ति अपने विचारों और कर्मों में बदलाव न करे तो वह जड़ता का शिकार होकर प्रगति से वंचित रह जाएगा।

सामाजिक जीवन में परिवर्तन और भी व्यापक रूप से आवश्यक है। समय के साथ समाज की आवश्यकताएं, चुनौतियां और मूल्य बदलते हैं। यदि समाज पुराने ढर्रे पर ही अड़ा रहे तो वह अन्य समाजों की तुलना में पिछड़ जाएगा। भारत में कई बार ऐसे निर्णायक क्षण आए जब निर्णय लेना पड़ा कि, ठहराव या परिवर्तन किसका चुनाव करें? तब परिवर्तन को अपनाकर समाज ने स्वयं को नए युग के लिए तैयार किया। उदाहरण के लिए, जब संत परम्परा ने अंधविश्वास और रूढ़ियों के विरुद्ध आंदोलन किया तब समाज में जागृति आई। इसी प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के समय समाज को सक्रिय कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। इसलिए व्यक्ति और समाज के जीवन में परिवर्तन केवल विकल्प नहीं बल्कि अस्तित्व और प्रगति की अनिवार्यता है।
मानव सभ्यता का इतिहास वस्तुतः परिवर्तन का इतिहास है। प्रारम्भिक काल में जब मनुष्य शिकार पर आश्रित था तब कृषि क्रांति के परिवर्तन ने मानव की जीवनशैली ही बदल दी। यही परिवर्तन गांवों और नगरों की स्थापना का कारण बना। बाद में औद्योगिक क्रांति ने उत्पादन, व्यापार और अर्थव्यवस्था की तस्वीर बदल दी। आधुनिक युग में सूचना प्रौद्योगिकी और डिजिटल क्रांति ने पूरे विश्व को एक वैश्विक गांव बना दिया। भारत के संदर्भ में देखें तो परिवर्तन की प्रक्रिया और भी अद्वितीय रही है। वैदिक काल में आध्यात्मिक चिंतन से परिवर्तन ने भारतीय संस्कृति को दिशा दी। महाभारत काल में धर्म, नीति और आदर्शों का स्वरूप स्पष्ट हुआ। मध्यकाल में संतों ने समाज को अंधविश्वास और जातिगत बंधनों से मुक्त करने का प्रयास किया। आधुनिक काल में शिक्षा और राष्ट्रवाद ने स्वतंत्रता संग्राम को गति दी।

समय-समय पर हुए इन सभी परिवर्तनों ने व्यक्ति और समाज को समय की चुनौतियों का सामना करने योग्य बनाया। आज भारत विज्ञान, तकनीक, अंतरिक्ष और वैश्विक राजनीति में अपना प्रभाव छोड़ पा रहा है तो उसके पीछे हजारों वर्षों की परिवर्तनशील यात्रा का योगदान है।

व्यक्ति और समाज के जीवन में समय-समय पर आए हुए विविध परिवर्तनों को जब हम समझने का प्रयास करते हैं तो हमें महसूस होता है कि विज्ञान और तकनीक की उपलब्धियों से लेकर इंटरनेट तक, हर खोज ने जीवन को सुविधाजनक और प्रगतिशील बनाया। शिक्षा और ज्ञान की प्रगति ने तथा शिक्षा के प्रसार ने समाज को अज्ञानता से मुक्त किया और व्यक्तित्व को निखारा। सामाजिक सुधार ने जाति-व्यवस्था में सुधार, स्त्री-शिक्षा, मानवाधिकार और लोकतंत्र की स्थापना, ये सभी परिवर्तन के ही परिणाम हैं।

भारतीय परम्परा में परिवर्तन को केवल बाहरी परिवर्तन के रूप में नहीं माना गया बल्कि उसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों तक हमें यह स्पष्ट संदेश मिलता है कि जीवन में परिवर्तन अनिवार्य है। उपनिषद कहते हैं ‘नेह नानास्ति किंचन’ – अर्थात इस जगत में विविधता और परिवर्तन ही वास्तविकता है। सनातन संस्कृति ने परिवर्तन को विविध स्तरों पर परखा है, पर सत्य, अहिंसा, करुणा, आत्मानुशासन जैसे मूल्य कभी नहीं बदलते। समयानुसार समाज ने अपनी व्यवस्था बदली, रीति-नीतियों को नया रूप दिया और नूतन प्रयोग किए। उदाहरण के लिए, वैदिक यज्ञकर्म से लेकर भक्ति आंदोलन तक धार्मिक आचरण में बदलाव हुए, परंतु आध्यात्मिक मूल भावना ईश्वर की खोज और आत्मा की शुद्धि ही रही। यही दृष्टि भारत को जड़ता से बचाकर निरंतर प्रगतिशील बनाए रखती है।

कोई संस्था जब राष्ट्र या समाज को संगठित करती है और उसमें अनुशासन, सेवा और त्याग का संस्कार भरती है तब इन तीनों आयामों का संगम ही स्थाई और शाश्वत परिवर्तन का कारण बनता है, तभी दीर्घकालीन परिवर्तन सम्भव होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसका सर्वोत्तम उदाहरण है।

लम्बे दासत्व ने भारतीय जनमानस के अंतर्मन में समाज और राष्ट्र की चेतना को कमजोर बना दिया था। देश का वातावरण अस्थिरता, सामाजिक विघटन और शौर्य परम्परा एवं सांस्कृतिक विस्मरण से भरा हुआ था। विदेशी विचारधाराओं के प्रभाव ने भारतीय संस्कृति की आत्मा को गौण बना दिया। ऐसे समय में रा. स्व. संघ के आद्य प. पू. सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने समाज को उसकी जड़ों की ओर लौटाने का प्रयास किया। डॉक्टर जी ने महसूस किया कि समाज में स्वतंत्रता का आंदोलन तो जोर पकड़ रहा है। आने वाले कुछ वर्षों में भारत को स्वतंत्रता तो मिलना ही है, किंतु स्वतंत्रता मिलने के बाद ‘आत्मा’ खोया हुआ समाज राष्ट्र को सामर्थ्यवान नहीं बना सकता। केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है, व्यक्ति और समाज धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से, मानसिक रूप से भी स्वतंत्र होना भी अत्यंत आवश्यक है।

संघ ने समाज को वैभवशाली भारतीयता का पुनः स्मरण कराया। भारतीय समाज को यह संदेश दिया कि हमारी शक्ति हमारे संगठन और हमारी संस्कृति में है। संघ के कार्यकर्ताओं ने गांव-गांव, शहर-शहर जाकर समाज को जोड़ा, सेवा और राष्ट्रभक्ति का संस्कार दिया। यह राष्ट्रीय, धार्मिक एवं सामाजिक नैराश्यभाव से बाहर निकालकर आत्मविश्वास और पुनर्जागरण की दिशा में उठाया गया ऐतिहासिक एवं परिवर्तनकारी कदम था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का परिवर्तनशील कार्य केवल संघ शाखाओं तक सीमित नहीं रहा। पिछले 100 वर्षों में संघ ने समाज के विविध क्षेत्रों में परिवर्तन की एक विशाल श्रृंखला खड़ी की है। शिक्षा क्षेत्र में विद्या भारती जैसी संस्थाओं ने लाखों विद्यार्थियों को भारतीय संस्कारयुक्त शिक्षा दी। ग्राम विकास, सेवा भारती और अन्य संगठनों के माध्यम से हजारों गांवों में आत्मनिर्भरता और स्वच्छता के कार्य हुए। आर्थिक क्षेत्र में स्वदेशी आंदोलन और स्वरोजगार की दिशा में संघ ने लघु एवं ग्रामीण उद्योगों और उद्यमिता को बढ़ावा दिया। आपदा राहत का कार्य करते समय चाहे भूकम्प हो, बाढ़ हो या कोरोना महामारी, स्वयंसेवकों ने हर जगह सेवा और सहयोग का कार्य किया। सामाजिक समरसता के माध्यम से जाति और पंथ के भेदभाव को मिटाने का प्रयास करते हुए ‘हम सब भारतीय हैं’ का संस्कार स्थापित करने का प्रयास किया। वनवासी क्षेत्र में वनवासियों के लिए शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य एवं अन्य सभी क्षेत्रों में सेवा कार्य प्रारम्भ कर वनवासी क्षेत्र में विलक्षण सकारात्मक परिणाम संघ के कारण आया हुआ है। भारतीय मजदूर संघ के माध्यम से कर्मचारियों में श्रम की प्रतिष्ठा बढ़ाकर अपने अधिकारों के लिए आग्रह करने का राष्ट्रीय भाव निर्माण किया, इसका सकारात्मक परिणाम देश के प्रगति में दिखाई देने लगा है। इन जैसे सैकड़ों कार्यों का दीर्घकालीन परिणाम यह हुआ कि समाज में संगठन, आत्मविश्वास और जागरूकता बढ़ी। आज भारत का सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक ताना-बाना जिस दृढ़ता से खड़ा है, उसमें संघ का बड़ा योगदान है।

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी का व्यक्तित्व राष्ट्रद्रष्टा का था। उन्होंने यह भली-भांति समझ लिया था कि राजनीतिक दल और सरकारें 5 वर्ष के चुनावी चक्र तक सोचती हैं, परंतु राष्ट्र निर्माण के लिए 100 वर्षों की दृष्टि चाहिए। इसीलिए उन्होंने संघ की स्थापना किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए नहीं बल्कि समाज से लुप्त हो रहे मूल संस्कार एवं शौर्य भाव को जागृत करने के लिए की। उनकी दृष्टि थी- व्यक्ति का चारित्र्य निर्माण, समाज का संगठन, राष्ट्र की सांस्कृतिक आत्मा का पुनर्जागरण। आज जब हम सभी संघ शताब्दी वर्ष मना रहे हैं तब यह स्पष्ट दिखता है कि डॉ. हेडगेवार जी की दृष्टि केवल अपने समय तक सीमित नहीं थी। उन्होंने वास्तव में 100 वर्षों बाद के शक्तिशाली भारत के बारे में सोचा था और वही आज आकार ले रहा है।

नागपुर के मोहिते वाडा में 1925 में विजयादशमी के दिन स्थापित हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 100 वर्ष पूर्ण हुए हैं। रा.स्व.संघ ने शताब्दी के इस लम्बे मार्ग में अनेक बाधाओं का सामना किया। स्वतंत्रता के तुरंत बाद महात्मा गांधी की हत्या के पश्चात झूठे आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। यह संघ के लिए सबसे कठिन परीक्षा का समय था। इसके अतिरिक्त राजनीतिक दलों और विचारधाराओं ने समय-समय पर संघ को संदेह की दृष्टि से देखा और उसकी आलोचना की। विदेशी विचारधाराओं से प्रभावित राजनीतिक एवं सामाजिक समूहों ने संघ को संकीर्ण दृष्टि से परिभाषित करने का प्रयास किया। देश की ज्यादातर प्रभावकारी मीडिया उस समय संघ के विरोध में ही खड़ी थी। कई बार सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर संघ के कार्यों को रोकने का प्रयास किया गया, किंतु संघ ने हर बाधा का सामना धैर्य, संगठन और सेवा-भावना से किया। जब भी संघ पर प्रतिबंध लगा, स्वयंसेवकों ने अहिंसक और लोकतांत्रिक मार्ग अपनाकर अपना पक्ष रखा। सेवा और समाजकार्य को निरंतर जारी रखते हुए उन्होंने सिद्ध किया कि उनका उद्देश्य केवल और केवल राष्ट्र का उत्थान है। यही कारण है कि आलोचनाएं और बाधाएं समय के साथ स्वयं नष्ट हो गईं, पर संघ का समाज परिवर्तन का संकल्प अडिग रहा, चलता रहा और अनवरत चल रहा हैं।

संघ की सबसे बड़ी शक्ति उसके स्वयंसेवक हैं। करोड़ों स्वयंसेवक अपने जीवन को राष्ट्रकार्य के लिए समर्पित कर चुके हैं। वे बिना किसी प्रचार या प्रसिद्धि की अपेक्षा के सेवा और संगठन में लगे रहते हैं। भारत और विश्व के कई देशों में शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम विकास, आपदा राहत, पर्यावरण संरक्षण जैसे विविध क्षेत्र में संघ के स्वयंसेवक निरपेक्ष भाव से समिधा की तरह राष्ट्रीय यज्ञ में अपनी आहुति दे रहे हैं। वैश्विक स्तर पर प्रवासी भारतीय समाज तक संघ की विचारधारा पहुंची है। अमेरिका, ब्रिटेन, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, मध्य एशिया तक ‘हिंदू स्वयंसेवक संघ’ के माध्यम से भारतीय संस्कृति का संदेश फैलाया गया है। सांस्कृतिक योगदान के संदर्भ में सोचें तो योग, आयुर्वेद, भारतीय भाषा और साहित्य इन सभी का प्रचार-प्रसार स्वयंसेवकों ने विश्व भर में किया। इन करोड़ों समर्पित स्वयंसेवकों के कारण संघ केवल एक संगठन न रहकर एक विश्वव्यापी सांस्कृतिक आंदोलन बन गया है।

परिवर्तन अनेक प्रकार के होते हैं। कोई परिवर्तन क्षणिक होता है और कुछ समय बाद समाप्त हो जाता है, परंतु शाश्वत परिवर्तन तभी सम्भव है जब वह शाश्वत विचारों पर आधारित हो। संघ के पास ऐसा ही एक शाश्वत विचार है- भारतीय संस्कृति और सनातन जीवन-दृष्टि का पुनर्जागरण। यह विचार न तो किसी समय के लिए सीमित है और न ही किसी विशेष परिस्थिति के लिए। विश्व कल्याण का भाव रखकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ ये संघ का शाश्वत मूल्य है। संघ ने इन्हीं मूल्यों पर आधारित परिवर्तन को अपनाया है। राजनीति या सत्ता परिवर्तन के बजाए संघ ने समाज परिवर्तन को प्राथमिकता दी है। इसी कारण संघ की विचारधारा में समाज परिवर्तन के मुद्दे प्रथम होते हैं और राजनीति के मुद्दे उसके लिए सहायक होते हैं। इसलिए संघ का परिवर्तन केवल युगीन नहीं बल्कि शाश्वत और स्थाई है। यही कारण है कि 100 वर्षों के उपरांत भी संघ पहले से अधिक सशक्त और प्रभावी दिखाई देता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की हिंदू राष्ट्र की कल्पना, कोई प्रादेशिक राष्ट्रवाद की कल्पना नहीं है, वह सनातन काल से चली आ रही आदर्श जीवन पद्धति है। भारत कहो या हिंदू कहो, उसका अर्थ एक ही है। इसी सनातन विचारधारा की आज दुनिया को आवश्यकता होने के कारण भारत का महत्व पहले से भी ज्यादा बढ़ा है। हिंदू राष्ट्र की कल्पना अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की नहीं है। हिंदू बहुसंख्या में है, इसलिए नहीं है। ये तत्वज्ञान सारी दुनिया के कल्याण का है, वह दुनिया को देने की आवश्यकता है।

RSS Volunteers Aid Disaster Victims

इतने वर्षों के विदेशी आक्रमण, गुलामी के बाद भी यह समाज अपनी जड़ों से जुड़ा रहा, इसके कारण हमारी संस्कृति बची हुई है। इसे देखते हुए कुछ बातें हमें ध्यान में रखनी चाहिए वर्तमान को ध्यान में रखकर आज हमारे सामने जितनी भी समस्या या चुनौती है, उसका भारतीय दृष्टिकोण से ही उत्तर देना चाहिए। हमारी जो प्रत्यक्ष मान्यता है उसके आधार पर ही हम समाधान निकालेंगे। अपनी कार्यपद्धति को एक विशिष्ट प्रकार का स्वतंत्र एवं गहन विचार करके संघ ने अपनाया है। किसी की नकल करके कार्यपद्धति को नहीं अपनाया है। संघ ने जो पद्धति अपनाई है, वह है ‘व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण’। कुछ भी करना है तो ‘व्यक्ति’ सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए संघ ने मनुष्य निर्माण में अपनी सर्वाधिक शक्ति लगाई है। संघ गुणों से युक्त गुणवान व्यक्ति तैयार करता है, उसको एक दृष्टि देता है। ऐसा स्वयंसेवक तैयार करना, ऐसा व्यक्ति तैयार करना, यह काम संघ शाखा के माध्यम से हो रहा है।

समाज के समक्ष जो अनेक प्रश्न हैं, हर प्रश्न का उत्तर संघ नहीं देता है, उसके लिए अनेक संगठन संघ के स्वयंसेवकों ने खड़े किए हैं। वह उन प्रश्नों के हल निकालने का प्रयास करते है। वहीं उसको एक दिशा देने का प्रयास करेंगे। वह विविध संगठन व्यवस्था परिवर्तन के लिए सभी विविध क्षेत्रों में प्रयास कर रहे हैं। समाज को तैयार करना और समाज का मानस बदलना, समाज को जागृत करना। इसलिए हर व्यक्ति को जागृत करने का काम, समाज परिवर्तन से देश परिवर्तन तथा समाज परिवर्तन से सत्ता परिवर्तन। यह जो हमारी भारतीय रचना है या भारतीय पद्धति है, उसी के आधार पर आगे जाने की रचना करके एक-एक कदम हम आगे बढ़ा रहे हैं। संघ के इसी बढ़ते कदमों के आधार पर भविष्य के उज्जवल भारत की यानी ‘विश्व मित्र भारत’ की नींव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रख रहा है।

अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मंदिर में भारत का सम्मान निहित है

मानव जीवन, समाज और राष्ट्र इन तीनों का आधार परिवर्तन है। इसी मार्गदर्शन पर चलते हुए संत ज्ञानेश्वर से लेकर छत्रपति शिवाजी महाराज, स्वामी विवेकानंद, लोकमान्य तिलक, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर, वीर सावरकर और अनेक महापुरुषों ने समाज को जागृत किया। जब समाज शिथिल हो गया था, तब डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना कर समाज और राष्ट्र के जीवन में एक दीर्घकालीन परिवर्तन का बीजारोपण किया। आज संघ के शताब्दी कार्य का परिणाम हमारे सामने हैं। करोड़ों स्वयंसेवक, हजारों संस्थाएं समाज के प्रत्येक क्षेत्र में भारतीयों के पुनर्जागरण से समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। अनेक बाधाओं और विरोधों के बावजूद संघ का संकल्प कभी टूटा नहीं। इसका कारण यही है कि संघ ने अपने विचार शाश्वत मूल्यों पर टिकाए रखे हैं।

Fact Check: The RSS Had No Role in India's Freedom Struggle | SabrangIndia

परिवर्तन के प्रकार अनेक हो सकते हैं, परंतु स्थाई परिवर्तन वही है जो सजगता और संगठनात्मक शक्ति पर आधारित हो। संघ का यह योगदान केवल भारत तक सीमित नहीं है बल्कि आज विश्वभर में भारतीय संस्कृति का संदेश पहुंच रहा है। इसलिए आज जब हम परिवर्तन की चर्चा करते हैं तो हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि क्षणिक परिवर्तन लहरों की तरह होते हैं, पर शाश्वत परिवर्तन वही होता है जो दूरदृष्टि, संस्कार और समाज के संगठन का विचार प्रसारित करता है। डॉ. हेडगेवार की दूरदर्शिता और संघ का कार्य यही सिखाता है कि परिवर्तन केवल आज के लिए नहीं बल्कि आने वाली शताब्दियों के लिए होना चाहिए। राष्ट्र निर्माण के इस 100 वर्षों के प्रवास में व्यक्ति एवं समाज जीवन में विविध प्रकार के परिवर्तन हुए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने समाज में होनेवाले कालानुरूप सभी परिवर्तनों को स्वीकार किया है।

इसीलिए संघ निरंतर प्रवाहित रहा है, परंतु हिंदू हित और राष्ट्र हित इन दो मुद्दों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों में कभी परिवर्तन नहीं आया हैं। इसका कारण यही है कि संघ की परिवर्तन की व्याख्या सनातन से चली आ रही गौरवशाली हिंदू शाश्वत मूल्यों पर आधारित हैं। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के जीवन में परिवर्तन आते हैं, परंतु उनके शाश्वत मूल्यों में कभी परिवर्तन नहीं आता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने 100 वर्षों के प्रवास में इस बात को कभी अपनी आंखों से ओझल होने नहीं दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विविध क्षेत्रों में किए जा रहे कार्यों से हो रहे परिवर्तन को हम सभी महसूस कर रहे हैं और साथ ही पूरा विश्व महसूस कर रहा है। यह परिवर्तन अपने सनातन शाश्वत मूल्यों के आधार पर ही किया है। आने वाले भविष्य में कितने भी प्रकार से परिवर्तन हो, परंतु इन्हीं शाश्वत मूल्यों के आधार पर संघ भारत को ‘विश्व मित्र’ होने के पथ पर मार्गक्रमण करते समय दिशादर्शन करता रहेगा। यही वास्तविक राष्ट्र निर्माण की प्रभावी प्रक्रिया है और यही परिवर्तन का शाश्वत संदेश है।

 

यह आलेख को पॉडकास्ट में सुनने के लिए, दिए गए लिंक पर क्लिक करें. 

Podcast link –https://open.spotify.com/episode/5LIJMSaDXmfGG9mBrekzTf?si=O5NP8n_3S1-qQul3CxTNug

 

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अमोल पेडणेकर

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Comments 2

  1. Anonymous says:
    2 days ago

    वाह जी वाह बहुत खूब प्रिय अमोल जी, हम सभी जानते हैं कि परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है और इस प्राकृतिक नियम को आधार बनाकर आपने अपने विशेष लेख में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक सौ वर्षों की गौरवशाली यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ावों, उपलब्धियों एवं सामाजिक उद्देश्यों का बहुत ही सटीक और सार्थक विश्लेषण किया है। सृजनात्मक उत्कृष्टता की कसौटी पर इस विशेष लेख की गणना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वर्णिम इतिहास में एक अप्रतिम दस्तावेज़ के रूप में की जायेगी। इसके लिए आपकी अद्भुत सृजनशीलता का हार्दिक अभिनन्दन..!

    Reply
    • Anonymous says:
      2 days ago

      गजानन महतपुरकर जी अंतर्मन से धन्यवाद.

      Reply

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