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देसी माल पर बिदेसी जाल

देसी माल पर बिदेसी जाल

by pallavi anwekar
in ट्रेंडींग
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विदेशी मल्टीनेशनल कम्पनियों सहित ग्लोबल मार्केट फोर्स के अनेक प्रकार के प्रयास, हथकंडे एवं दबाव के बाद भी भारत सरकार दृढ़ता से ‘राष्ट्रहित’ को प्राथमिकता दे रही है। अब सभी भारतीयों का यह दायित्व है कि वे ‘स्वदेशी’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘वोकल फॉर लोकल’ को अपनाकर आत्मनिर्भर भारत बनाने में अपना योगदान दें।

केनेडियाई प्रोफेसर और बुद्धिजीवी मार्शल मैक्लुहान ने वर्तमान विश्व को ‘ग्लोबल विलेज’ की संज्ञा दी है। संचार, सूचना प्रौद्योगिकी और व्यापार-उद्योग के कारण सम्पूर्ण विश्व किसी गांव की तरह हो गया है, जहां लोग, स्थान तथा संस्कृतियों का आदान-प्रदान अत्यधिक तीव्रता से होता है। व्यापार ने भी देशों की सीमाएं लांघ ली हैं और अपने माल (यहां माल का अर्थ केवल उत्पादों से ही नहीं बल्कि सर्विस इंडस्ट्री से लेकर बैंकिंग और तकनीक आदि सभी से है।) की खपत के लिए हर देश दूसरे देश को ग्राहक के रूप में देखता है। जिस देश में जितने अधिक ग्राहक होंगे अर्थात जितनी अधिक जनसंख्या होगी, उतना ही वह बाहरी बाजार को आकर्षित करेगा। कोई देश जितना माल बाहर से खरीदेगा अर्थात आयात करेगा उतना उसका व्यय अधिक होगा और जितना अपना माल बेचेगा अर्थात निर्यात करेगा उतनी उसकी आय अधिक होगी।

ग्लोबल मार्केट फोर्स
यह तो सामान्य लेन-देन या व्यापार की नीति है, परंतु वर्तमान में यह इतना सामान्य भी नहीं रह गया है क्योंकि अपने माल को खपाने और अपने देश को अधिक से अधिक धनी बनाने के लिए देशों ने विविध प्रकार के नियम बना रखे हैं, कर लगा रखे हैं। सर्वविदित है कि ये नियम भी वैश्विक महाशक्तियों ने अपने लाभ को देखकर ही बनाए हैं। दूसरा पैंतरा यह भी है कि वे अपने खरीदार देशों में ऐसा वातावरण तैयार करते हैं कि उनके माल की विक्री अधिक से अधिक हो।

यही अंतरराष्ट्रीय आर्थिक ताकतें जो स्थानीय बाजारों पर असर डालती हैं और धीरे-धीरे किसी देश की अर्थव्यवस्था, व्यापार और वित्तीय निर्णयों को प्रभावित करती हैं, ग्लोबल मार्केट फोर्स कहलाती हैं। ग्लोबल मार्केट फोर्स का सीधा अर्थ है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मांग और आपूर्ति, विदेशी निवेश, वैश्विक संकट, मुद्रा दरों का उतार-चढ़ाव और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की नीतियां, जो भारत जैसे देशों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं। भारत की अर्थव्यवस्था कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र पर आधारित है। इनमें से हर क्षेत्र किसी न किसी रूप में दुनिया से जुड़ा हुआ है, चाहे वह तेल का आयात हो, कपड़ों का निर्यात हो या विदेशी निवेश। इसलिए भारत को वैश्विक बाजार की लहरों के साथ तालमेल बिठाकर आगे बढ़ना पड़ता है।

इस फोर्स के कारण चाहे कोई घटना अपने देश से सात समंदर पार हुई हो, उसका असर सीधे हमारी जेब पर पडता है, जैसे युद्ध के कारण पेट्रोल-डीजल महंगा होना, यूरोप में मंदी का असर भारतीय बाजार पर पड़ना, अमेरिका में अधिक निवेश के कारण डॉलर के मजबूत होते ही भारत में वहां से आयात होने वाली वस्तुएं जैसे- मोबाइल, लैपटॉप आदि महंगा होना।

प्रभाव
ग्लोबल मार्केट फोर्स शब्द भले ही व्यापार से सम्बंधित हो, परंतु इसका प्रभाव केवल बाजार तक सीमित नहीं है। यह किसी देश की राजनीति, चुनाव यहां तक कि संस्कृतियों को भी प्रभावित करता है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि राजनीति और बाजार को अलग-अलग देखना लगभग असम्भव हो गया है। भारत जैसा बड़ा लोकतांत्रिक देश भी इससे अछूता नहीं है। भारत की नीतियां, कूटनीतिक रिश्ते, विदेश नीति तक पर ग्लोबल मार्केट फोर्स का दबाव गहराई से झलकने लगा है। हालांकि पहले प्रभाव कम था और जाग्रति भी कम थी, परंतु अब धीरे-धीरे सामान्य लोगों को भी कुछ बातें समझ में आने लगी हैं।

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ग्लोबल मार्केट फोर्स का प्रभाव तब से देखने को मिला जब 1991 में भारत को आर्थिक उदारीकरण अपनाना पड़ा, जो कि आईएमएफ और विश्व बैंक की शर्तों पर हुआ था। उस समय भारत को पूंजी की अत्यधिक आवश्यकता थी जो विदेशों से निवेश के तौर पर ही मिल सकती थी, अत: भारत को अपनी नीति निर्माण प्रक्रिया में प्राय: वैश्विक आर्थिक ताकतों को ध्यान में रखना पड़ता था। डब्ल्यूटीओ के दबाव में दवाओं के पेटेंट कानून में बदलाव किए गए, जिसके कारण अमेरिकी फार्मा कम्पनियों को बहुत लाभ हुआ था। वॉलमार्ट जैसी कम्पनियों ने भारत में नीतिगत निर्णयों को प्रभावित करने के लिए लॉबिंग की। इसका परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन सरकार का झुकाव सामान्य जनता से हटकर बड़ी कम्पनियों के हितों की ओर हो जाता था। वर्ष 2014 के पूर्व तक भारतीय सरकारें ग्लोबल मार्केट फोर्स की अनुगामी दिखाई देती थीं।

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2014 में भारत में मोदी सरकार आई और धीरे-धीरे ग्लोबल मार्केट फोर्स की ओर देखने का भारतीय सरकार का दृष्टिकोण बदलने लगा। मोदी सरकार आने के बाद विदेशी मीडिया की फ्रंट लाइनों में ये उल्लेख होता था कि भारत से अंतिम अंग्रेजी सरकार चली गई और एक पूर्णत: भारतीय सोच का व्यक्ति प्रधान मंत्री बना है, भारतीय राजनीति का ‘पैराडाइम शिफ्ट’ हुआ है। स्पष्ट है कि ऐसा व्यक्ति ‘राष्ट्र प्रथम’ का भाव रखकर ही नीतियां बनाएगा और उस पर अमल भी करवाएगा। अत: भारत में मोदी सरकार के आने के बाद ग्लोबल मार्केट फोर्स के प्रति भारत की राजनैतिक और आर्थिक नीतियों में कई बड़े बदलाव आए। यह बदलाव भारत को वैश्विक निवेश, व्यापार और रणनीति के लिए अधिक आकर्षक बनाने की दिशा में सार्थक तो रहे, परंतु उससे यह भी ध्यान रखा गया कि इससे भारतीय व्यापारियों को घाटा न हो।

मोदी सरकार ने कई क्षेत्रों जैसे (रक्षा क्षेत्र में 26% से बढ़ाकर 74%) विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाई। रिटेल, बीमा और ई-कॉमर्स में भी निवेश नियमों को आसान किया गया। जिससे वैश्विक कम्पनियों के लिए भारत का बाजार खुला, परंतु साथ ही ‘मेक इन इंडिया’ जैसे अभियान भी शुरू किए, जिनसे भारतीय उद्योगों तथा उद्यमियों को अधिक अवसर प्राप्त हो सके। 2014 में लॉन्च हुआ यह कार्यक्रम भारत को वैश्विक उत्पादन केंद्र बनाने का प्रयास है। इसके बाद एप्पल और सैमसंग ने भारत में मोबाइल फोन बनाने की यूनिट लगाई और वैश्विक बाजार की सप्लाई चेन में भारत की हिस्सेदारी बढ़ी। जीएसटी लागू करना मोदी सरकार का बड़ा कदम था। इससे भारत का बाजार एकीकृत हुआ और विदेशी कम्पनियों के लिए व्यापार आसान हुआ और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस रैंकिंग में भारत 2014 में 142वें स्थान से 2020 में 63वें स्थान पर पहुंच गया।

ग्लोबल मार्केट फोर्स के प्रति बदले दृष्टिकोण से भारत की भू-राजनैतिक स्थिति में भी सुधार हुआ। मोदी सरकार ने क्वाड जैसे अंतरराष्ट्रीय गठबंधनों में सक्रिय भूमिका निभाई। पश्चिम एशिया, अफ्रीका व यूरोप में व्यापारिक रिश्ते मजबूत करने एवं अमेरिका और जापान के साथ तकनीकी सहयोग बढ़ाने के कारण भारत वैश्विक राजनीति में मार्केट तथा स्ट्रैटेजी दोनों दृष्टि से अहम खिलाड़ी बन गया।

कोविड के बाद मोदी सरकार ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान शुरू किया। यह व्यापार की दोहरी नीति है। इसमें एक ओर घरेलू उद्योग को बढ़ावा दिया जा रहा है और दूसरी ओर वैश्विक कम्पनियों को भारत में उत्पादन केंद्र बनाने के लिए प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है। यह केवल उत्पादन तक ही सीमित न होकर टेक्नोलॉजी से भी सम्बद्ध है। डिजिटल इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसे अभियानों से भारत को वैश्विक टेक्नोलॉजी बाजार से जोड़ा गया, जिससे विदेशी कम्पनियों जैसे गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, एमेजॉन ने भारत में भारी निवेश किया जिसके कारण भारत ग्लोबल डिजिटल इकोनॉमी का महत्वपूर्ण हिस्सा बना।

अंतरराष्ट्रीय दबावों के बीच भारत ने नीति संतुलन को बनाए रखा। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने अमेरिकी दबाव के बाद भी रूस से तेल खरीदना जारी रखा था और आज भी यह प्रक्रिया जारी है। चीन के साथ सीमा पर तनाव होने के बाद भी व्यापारिक सम्बंध बनाए रखे हैं और अब जबकि अमेरिका ने टैरिफ में बढ़ोत्तरी की है तो भारत ने रूस और चीन के साथ मिलकर अमेरिका के मार्केट फोर्स को टक्कर देने हेतु चुनौती देना भी स्वीकार किया है।

सांस्कृतिक प्रभाव
ग्लोबल मार्केट फोर्स का आर्थिक, राजनैतिक और भू- राजनैतिक प्रभाव तो हमने देखा, परंतु अब इसका सांस्कृतिक प्रभाव अधिक गहरा है, सीधे सामान्य जनता से सम्बंधित है और अधिकतम लोग इससे अनभिज्ञ हैं क्योंकि यह प्रभाव सीधे तौर पर दिखाई नहीं देता। इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि किराने की दुकान या डिपार्टमेंटल स्टोर से महीने का राशन मंगाते समय बहुत कम लोग यह देखते हैं कि वह ब्रांड स्वदेशी है या विदेशी। कई बार विदेशी सामानों की कीमत कम होने के कारण भी (कीमत कम होेने के पीछे का आर्थिक गणित अन्य लेख का विषय है) उन्हें प्राथमिकता दी जाती है, परंतु इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि जनता द्वारा इन विदेशी सामानों को खरीदने के कारण पैसा भारत से बाहर उन कम्पनियों के पास जा रहा है जो आगे जाकर अपने स्वार्थ के लिए भारत की नीतियों में परिवर्तन कर सकती हैं।

पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबल मार्केट फोर्स भारत की उपभोक्ता संस्कृति को गहराई तक प्रभावित करने में सफल रही है। आवश्यकतानुसार सामान खरीदना भारतीय मानसिकता रही है। हमने कभी आवश्यकता से अधिक नहीं खरीदा, बचत हमारा मुख्य केंद्र रहा, परंतु वर्तमान में वस्तुओं और ब्रांड को ‘स्टेटस सिंबल’ के रूप में देखा जाता है। कपड़े, घड़ी, जूते, बैग से लेकर मोबाइल, गाड़ी तक के ब्रांड के हिसाब से यह तक किया जाने लगा है कि व्यक्ति की स्थिति क्या है। वह क्या पहन रहा है, के साथ-साथ यह भी देखा जाता है कि वह क्या खा रहा है। यदि विदेशी महंगी वस्तुएं पहनकर कोई ‘वीक-एंड’ पर डॉमिनोज, स्टारबक्स या मैकडोनाल्ड्स में नहीं जाता तो वह आउटडेटेड कहलाता है।

भारत उत्सव प्रिय देश है। भारतीय उत्सवों पर पैसा खर्च करने से नहीं चूकते और ग्लोबल मार्केट फोर्स इस अवसर को भुनाने से नहीं चूकता। उत्सवों के ठीक पहले विज्ञापनों का बाजार गर्माने लगता है और तीज-त्योहारों पर ‘कुछ मीठा हो जाए’ के नाम पर केडबरी और अन्य कम्पनियों की चॉकलेट्स बिकने लगती हैं, जबकि भारत जैसे विशाल खाद्य परम्परा वाले देश में मिठाइयों की कोई कमी नहीं है। अब तो गणपति को भी चॉकलेट के मोदक का भोग लगाया जाता है, कहीं कुछ वर्षों बाद ये कम्पनियां उन्हें भी न पूछें कि आपके दातों में चॉकलेट खाने से कैविटी दिख रही ‘क्या आपके टूथपेस्ट में नमक है?’ क्योंकि कुछ दशक पहले इन्हीं टूथपेस्ट बनाने वाली कम्पनियों ने नींबू-नमक से दांत साफ करने वाले भारतीयों को उसके दोष दिखाकर टूथपेस्ट पकड़ाई थी। उपहारों की जगह अब गिफ्ट हैम्पर्स ने ले ली है जिनमें उतना ही स्नेह होता है जितने कुरकुरे के पैकेट में कुरकुरे, बाकी दोनों में हवा ही होती है। घर बनी मिठाई-नमकीन की सौंधी सुगंध अब प्राचीन सी लगती है।

चाय पीने से ताजगी आती है यहां तक हम भारतीयों ने पचा लिया था, परंतु ‘कुछ तूफानी करें’, ‘डर के आगे जीत है’ या ‘दिल, दोस्ती डॉमिनोज’ के नाम पर हमारी युवा पीढ़ी को जो खिलाया-पिलाया जा रहा है, वह उनके शरीर में कितना तूफान मचाता है यह कुछ वर्षों बाद डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट ही बताएगी और वहां से शुरू होगा विदेशी दवाइयों का चंगुल जो ‘लाइफस्टाइल डिजीज’ के नाम पर दिन के तीन डोज शुरू कर देगा।

विवाह में डेस्टिनेशन वेडिंग और विदेशी थीम्स का चलन बढ़ा है। सगाई ने ‘रिंग सेरेमनी’ का रूप ले लिया है और भारतीय परिधान पहने शरमाते-सकुचाते दूल्हा-दुल्हन अब गाउन और थ्री पीस पहने बॉल डांस करते दिखते हैं। भारतीय संस्कृति में घुलता वैश्विक फैशन का यह रंग हमारी परम्पराओं और उनके पीछे के वैज्ञानिक-सामाजिक कारणों को अनदेखा कर रहा है तथा हमारी विवाह संस्था को भी खंडित कर रहा है। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार और अब उससे भी आगे व्यक्तिवादी विचारों को बढ़ावा दिए जाने के कारण लिव-इन रिलेशनशिप जैसी विकृतियां समाज में आम होते दिखाई दे रहे हैं।

इस करेले पर नीम चढ़ाने का रहा सहा काम सोशल मीडिया और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री कर रही है। दूरदर्शन से शुरू हुआ सकारात्मक और ज्ञानवर्धक मनोरंजन की श्रृंखला अब नेटफ्लिक्स-डिज्नी तक पहुंच चुकी है और उसमें जो मनोरंजन परोसा जा रहा है उसे परिवार के साथ बैठकर देख भी नहीं सकते, परंतु तथाकथित रूप से फ्री में बांटा जा रहा यह तथाकथित ज्ञानवर्धक मनोरंजन युवा पीढ़ी का दिमाग खराब कर रहा है। परिणाम यह हो रहा है कि पारिवारिक और सामाजिक मूल्य बदल रहे हैं। रिश्तों और विवाह सम्बंधी परम्परागत सोच भी बदल रही है। ऑनलाइन डेटिंग, लिव-इन रिलेशन और अंतरराष्ट्रीय विवाह सामान्य होते जा रहे हैं। परिणामत: भारतीय संस्कृति के सामूहिक और पारिवारिक मूल्य चुनौती के दौर से गुजर रहे हैं।

संतुलन
‘ग्लोबल मार्केट फोर्स’ जैसा कि शब्द में ही फोर्स है, अत: स्वाभाविक है कि वह अपनी ताकत भारत पर हर प्रकार से लगाएगा ही। उसके फोर्स को किस सीमा तक सहना है और उसका कितना प्रतिकार करना है, यह केवल केंद्रीय सत्ता को नहीं सामान्य नागरिक को भी सोचना होगा। हमें अपनी दिनचर्या में उन चीजों, सामानों का अधिकतम उपयोग करना होगा जो भारत में निर्मित है। शुरू में अपनी आदतों को बदलने में असुविधा हो सकती है, परंतु धीरे-धीरे हम इसके आदी हो जाएंगे। रक्षा जैसे महत्वपूर्ण और बडे क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर बन रहा है, अपने रॉकेट, ड्रोन, मिसाइल स्वयं बना रहा है तो क्या भारतीय कम्पनियां अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकती? अवश्य कर सकती हैं और कर रही हैं, बस ग्राहकों का दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है। यह सोचने की आवश्यकता है कि सुबह उठते ही साथ दांत साफ करने के ब्रश-टूथपेस्ट से लेकर, अपने कपडे, रसोई का सामान, बैग, जूते-चप्पल, वाहन, मोबाइल यहां तक कि रेडीमेड सोफा, आपके घर की सजावटी वस्तुएं और अन्य सभी जिस कम्पनी का है, वह भारतीय है या नहीं। कई बार नामों के कारण भी ग्राहक धोखा खा जाते हैं कि कम्पनी स्वदेशी है या विदेशी। जैसे हिंदुस्तान यूनिलीवर स्वदेशी नहीं है भले ही नाम में हिंदुस्तान हो और ब्यूटी प्रोडक्ट बनाने वाली लेक्मे और रेने भारतीय हैं, भले ही उनके नाम फैंसी या विदेशी हों। बाबा रामदेव का भले ही उनके विरोधी मजाक उडाएं या उनकी कम्पनी पर जो केस चल रहे हैं, उन्हें अनदेखा किया जाए तो इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उन्होंने ‘पतंजलि’ के माध्यम से लगभग हर वह उत्पाद बाजार में उतारा जिस पर कभी विदेसी कम्पनियों का एकाधिकार था। उनके उत्पादों का न सिर्फ स्वागत किया गया अपितु भारतीयों ने उन्हें जी खोलकर स्वीकार भी किया। आज के बदलते दौर में हम अपनी पुरानी आदतों को पुन: नहीं अपना सकते, हम दातून नहीं कर सकते, मिट्टी या राख नहीं रगड सकते परंतु हम अपने स्वदेशी उत्पादों का अधिकतम प्रयोग अवश्य कर सकते हैं।

वर्तमान में संयोग से भारत का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में है जो पूर्णत: भारतीय मिट्टी से गढ़े हैं और ग्लोबल मार्केट फोर्स का आवश्यकता के अनुरूप उपयोग करने में सक्षम है। वे जानते हैं कि भारत की कौन सी महत्वपूर्ण बातें विदेशों में स्वीकार्य होंगी। इसलिए योग, आयुर्वेद का प्रचार अधिक से अधिक किया जा रहा है। विदेशियों को उपहार में गीता के अंग्रेजी वर्जन की प्रतियां दी जा रही हैं। हमारे नैतिक मूल्यों का प्रचार किया जा रहा है, परंतु यदि भारत में ही ये नहीं होंगे तो विश्व उदाहरण के रूप में क्या देखेगा? आत्मनिर्भर भारत, स्वदेशी या वोकल फॉर लोकल, ये केवल राजनीतिक नारे नहीं हैं अपितु ये भारत को ग्लोबल फोर्स से बचाने वाली शील्ड (कवच) है। इन्हें बिना किसी राजनीतिक दृष्टिकोण के अपनाना होगा और स्वदेशी वस्तुओं का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा, जिससे भारत का पैसा भारत में रहे और पैसे के दम पर कोई देश भारत पर दबाव-प्रभाव डालने का साहस न कर सके।

 

यह आलेख को पॉडकास्ट में सुनने के लिए, दिए गए लिंक पर क्लिक करें. 

Podcast link – https://open.spotify.com/episode/33lRskEx0ZWTQvFbvXOmb6?si=El1ZaGSNRUex0h01AbvoWw

 

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