भारत के समक्ष स्वतंत्रता के बाद से अब तक जिन चुनौतियों ने निरंतर राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक विकास और लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रभावित किया है, उनमें नक्सलवाद सबसे जटिल, रक्तरंजित और बहुआयामी चुनौती रही है। आज गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में नक्सलवाद को जड़ों से उखाड़ने की मुहिम यशस्वी रूप में चल रही है, वह निर्णायक मोड़ का संकेत देती है। प्रारंभ में अमित शाह ने जब देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए मार्च 2026 तक नक्सलवाद का पूर्णतः खत्म करने का टारगेट भारतीय सुरक्षा दलों को दिया था, उस समय नक्सलवादियों के पांच दशकों का हिंसक प्रवास को देखते हुए अमित शाह की यह बात राजनीतिक घोषणा लग रही थी। लेकिन वर्तमान में जिस प्रकार से संपूर्ण देश में केंद्र सरकार, राज्य सरकार और सुरक्षा दल के संयुक्त प्रयासों से नक्सलवाद जैसे खत्म होने के कगार पर है। इस स्थिति को देखते हुए अमित शाह की वह घोषणा कोई राजनीतिक घोषणा नहीं थी यह बात स्पष्ट हो रही है।
कुछ वर्ष पहले तक देश के 125 जिले माओवादी आतंकवाद से प्रभावित थे, लेकिन आज यह संख्या से 11 जिलों तक सीमित हो गई है। भारत के सुरक्षा बलों के पराक्रम और साहस के कारण देश ने पिछले कुछ वर्षों में एक बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है। किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि वैचारिक रूप से सक्रिय ङ्गशहरी नक्सलवादफ अभी भी एक चुनौती बना हुआ है। इस व्यापक परिदृश्य को समझने के लिए यह देखना आवश्यक है कि नक्सलवाद क्यों पैदा हुआ, कैसे फैला, इसके पीछे मार्क्सवादी विचारधारा का क्या योगदान रहा और सरकारें इसे किस प्रकार संभालती रही हैं। भविष्य में नक्सलवाद के फिर से सर उठाने की संभावना को रोकने के लिए कौन से उपाय आवश्यक है।
1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गाँव में आंदोलन की जो चिंगारी उठी, वह जल्द ही आग में बदल गई। भूमि-सुधार, गरीबी, जातिगत भेदभाव- अत्याचार और जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ उठी यह आवाज़ जल्द ही मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवादी हिंसा के रूप में फैलने लगी। यह आंदोलन सामाजिक न्याय के आड़ में तेजी से हिंसक, कट्टरपंथी और विध्वंसकारी बन गया। भारत में नक्सलवाद के निर्माण में प्रमुख सामाजिक , आर्थिक असमानता , अवसरवादी राजनीति और शोषण यह कारण महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में भूमिहीनता, वनाधिकार विवाद, जमींदार-कुल के संघर्ष, जातिगत भेदभाव और स्थानीय प्रशासन की अनुपस्थिति जैसी समस्याओं को नक्सली संगठनों ने हथियार बना लिया। जहाँ शासन की पहुँच कमजोर थी, वहाँ के पीड़ित जनता के मन में नक्सली समूहों ने संरक्षक की भूमिका का भ्रम पैदा किया। जंगलों, आदिवासी क्षेत्रों और पहाड़ी जिलों के विकास में वर्षों की देरी, सरकारी योजनाओं का भ्रष्टाचार में गुम होना और पुलिस-प्रशासन के अत्याचारों के कारण जनता के मन में शासन से दूरी बढ़ाई। जनता और पुलिस प्रशासन के बीच बढ़ती यही दूरी नक्सली विचारधारा की भूमि बनी।
मार्क्सवाद के संदर्भ में वनवासियों के बीच निर्माण हो रहे आकर्षण के कुछ कारण थे, तत्कालीन विश्व राजनीति में सोवियत प्रभाव, बुद्धिजीवियों का साम्यवादी साहित्य से आकर्षण, गरीबी और वर्ग-संघर्ष की वास्तविकता, विश्वविद्यालय परिसरों में युवाओं के साथ वैचारिक आंदोलन यह स्वतंत्रता के बाद से कुछ समय पहले तक यह कारण कारक रहे हैं। लेकिन समय के साथ इस मार्क्सवादि या वामपंथी आंदोलन ने बंदूक की नली से सत्ता प्राप्त करने की अवधारणा से लोकतांत्रिक भारत में विनाश की राह खोली थी। भारत में यह विचारधारा कुछ वामपंथी समूहों के हाथों ऐसी दिशा में मुड़ी, जिसने लोकतंत्र के भीतर क्रांति की बंदूक को न्याय का साधन मान लिया। विश्वविद्यालय परिसरों से लेकर साहित्यिक मंडलों तक जहाँ-जहाँ वामपंथी विचारधारा का दबदबा था, वहाँ नक्सलवाद को वैचारिक आश्रय मिला। भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सहअस्तित्ववादी जीवन पद्धति से यह विचार स्वाभाविक रूप से मेल नहीं खाता था। इसीलिए यह व्यापक सामाजिक आंदोलन नहीं बन सका, परंतु जिन क्षेत्रों में शासन का प्रभाव कम था, वहाँ नक्सलवाद गहरी जड़ें जमाता गया। सांस्कृतिक भारत के ओर वक्र दृष्टि से देखने वाले लोगों के संर्कीण वैचारिकता के लिए अर्बन नक्सलवाद का आधार बनी। जंगलों में चल रही बंदूक की आवाज स्पष्ट होती है, पर शहरों में छिपा नक्सलवाद उतना ही धुंधला और खतरनाक है। यह अर्बन नक्सली समूह न केवल नक्सलियों को बौद्धिक समर्थन देते हैं, बल्कि उन्हें कानूनी सुरक्षा कवच भी प्रदान करते हैं। आतंकी नक्सलियों पर सरकार चाहे कितनी भी कार्रवाई करे, यह अर्बन नक्सली तंत्र उसे दमन या मानवाधिकार हनन नाम देकर ब्रह्म निर्माण करता है। यही कारण है कि जंगलों में नक्सलवाद भले हो रहा है, परंतु शहरों में उसकी जड़े छुपी हुई हैं।
सरकार की ‘समन्वित सुरक्षा-विकास नीति’ के चलते, लगातार एनकाउंटर, आत्मसमर्पण नीति,सड़क निर्माण, बिजली, नेटवर्क, उठझऋ और उजइठ- की तैनाती , स्थानीय समर्थन में कमी इन सबने जंगल के नक्सलवाद को कमजोर करना प्रारंभ किया है। लेकिन शहरों में सक्रिय वैचारिक समर्थक, छॠज नेटवर्क, कुछ बुद्धिजीवी, कुछ विश्वविद्यालय समूह, सोशल मीडिया प्रचार यह सारे नक्सलवाद को वैचारिक ऑक्सीजन देते हैं। सरकार के लिए चुनौती यह है कि इनके पास हथियार नहीं होते यह लोकतांत्रिक अधिकारों का कवच लेकर खड़े होते हैं। इनका नेटवर्क अंतरराष्ट्रीय होता है। ये मानवाधिकार के नाम पर नक्सलवादियों का बचाव करते हैं। ये छात्रों को विचारात्मक रूप से उग्र और हिंसक बनाते हैं। अर्बन नक्सल नेटवर्क प्रचार-छल-झूठ फैला कर नक्सलियों को नैतिक ,वैचारिक समर्थन देता है। कुछ विदेशी एजेंसियाँ भारत को अस्थिर करने के लिए अर्बन नक्सलवाद को समर्थन देती हैं।
छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के घने जंगलों में नक्सली गिरोहों ने समानांतर शासन की तरह अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया था। जनता पर कर वसूली, ग्रामीण अदालतें, सामूहिक दंड, पुलिस पर हमले, खनन क्षेत्रों में वसूली, यह सब नक्सली व्यवस्था का हिस्सा बन गया था। वर्षों तक इन इलाकों में पुलिस का भय भी चरम सीमा तक था, साथ में नक्सलियों की हिंसा सर पर मंडराती थी। नक्सली और पुलिस इन दोनों के बीच कुचलती हुई वनवासी जनता असहाय सी हो गई थी। कई राज्यों में, राजनीतिक दलों ने भी नक्सलियों का प्रयोग अपने विरोधियों पर दबाव बनाने, चुनावों में प्रभाव जमाने या स्थानीय सत्ता संरचनाओं को नियंत्रित करने के साधन के रूप में किया। यह राजनीतिक अवसरवाद भी नक्सलवाद के स्थायित्व का एक बड़ा कारण बना था।
सरकारें और नक्सलवाद की 50 वर्षों की भी मिश्रित कहानी है। नक्सलवाद के खिलाफ अपने देश की सरकारी रणनीति कई चरणों से गुज़री है। इंदिरा गांधी काल में नक्सलियों पर कठोर पुलिस कार्रवाई हुई, परंतु उनके सर्वांगीण विकास पर कम ध्यान दिया गया। परिणाम स्वरूप में नक्सली हिंसा और बढ़ी। राजीव गांधी के काल में कुछ वार्ताएँ हुईं, परंतु दीर्घकालिक नीति नहीं बनी। 1990-2000 में गठबंधन सरकारें आईं थी। जो स्वयं स्थिर नहीं थी इसके कारण उनकी नक्सलवाद संदर्भ में नीतियों में निरंतरता की कमी रही। अलग-अलग विचारधारा की अलग-अलग राज्य सरकारें नक्सलवाद की समस्याओं को लेकर अलग-अलग दिशा में कार्य करती रहीं। मनमोहन सिंह के काल में उन्होंने नक्सलवाद को देश की सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती कहा। तब ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरू हुआ,परंतु राजनीतिक प्रतिबद्धता आधी-अधूरी रही।
2014 के बाद मोदी शासन में यह पहली बार हुआ कि, केंद्र-राज्य सरकारों में समन्वय बना और नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या आधी से भी कम हो गई। मोदी सरकार ने ऐसी कौन से कदम नक्सलियों के संदर्भ में उठाए गए। इस बात पर गौर करने पर कि नक्सलीय प्रभावित क्षेत्र में 10,000 किलोमीटर से ज्यादा लंबी सड़कें बनीं, नक्षली क्षेत्र में सड़के बनने के कारण यातायात में प्रभावी सुधारना आ गई। उठझऋ को आधुनिक तकनीक के साथ ड्रोन, ॠझड, बेहतर इंटेलिजेंस आदि सारी बातों उपलब्ध करके दे दी गई। इसके कारण संवाद एवं संपर्क अभियान में तेजी आ गई। नक्सलियों के आत्मसमर्पण नीति में मोदी सरकार को बेहद सफलता मिली है। नक्सलियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर और शहरी नक्सलवाद से मिलने वाली नक्सल फंडिंग नेटवर्क पर कार्रवाई मोदी सरकार के माध्यम से की गई , यह सबसे बड़ी असरदार बात रही है।

साथ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वनवासी क्षेत्र में कार्य करने वाली संघटना वनवासी कल्याण आश्रम के माध्यम से और अन्य सामाजिक संगठनों ने नक्सल क्षेत्रों में शिक्षा केंद्र, वनवासी विद्यार्थी वसतीगृह ,चिकित्सा सेवा, संस्कार वर्ग, व्यसन मुक्ति, महिला सशक्तीकरण, स्वयंसहायता समूह जैसे सेवा कार्य चलाए। इनसे स्थानीय जनता को नक्सलियों के भय से बाहर आने में मदद मिली। नक्सलवाद का एक बड़ा आधार वन क्षेत्र की जनता के मन में पनपने वाली अलगाव की भावना थी। सरकार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य सामाजिक संगठनों के इन सेवा कार्य के कारण नक्सलवादियों का यह अलगाववाद की भावना भड़काने का प्रयास बेअसर होता गया ।
अर्बन नक्सल नेटवर्क पर कठोर कार्रवाई करते समय कुछ उपाय योजना की आवश्यकता है जिसमें नक्सली फंडिंग पर निगरानी, वैचारिक भ्रम फैलाने की तंत्र की पहचान, सोशल मीडिया पर निगरानी , विदेशी छॠज की गतिविधियों पर नियंत्रण एवं पुलिस और सुरक्षा बलों का आधुनिकीकरण, हाईटेक उपकरण, बेहतर इंटेलिजेंस,जंगल एवं पहाड़ी क्षेत्र में लड़ने के विशेष प्रशिक्षण, ड्रोन आधारित अभियानों का विस्तार, नक्सलियों के आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति को मजबूत बनाना, जो नक्सली वापस आना चाहता है उसे सम्मानजनक अवसर मिलना आवश्यक है। भविष्य में नक्सलवाद का पुनर्जन्म रोकने के लिए इस प्रकार की उपाय योजना अत्यंत आवश्यक है। नक्सलवाद को रोकने के लिए वनवासियों के बीच संपन्न हो रहे विकास की निरंतरता रहनी अत्यंत आवश्यक है। विकास रुका तो नक्सली क्षेत्र में असंतोष फिर जड़ पकड़ सकता है। ग्राम स्तर पर प्रशासन की उपस्थिति , पारदर्शी शासन, करप्शन रहित तंत्र, स्थानीय समस्या का तत्काल समाधान और नक्सलवाद को वोट-बैंक की रणनीति न बनाया जाए।
नक्सलवादियों का समाज में पुनर्समावेश हेतु पिछले सरकारों ने कई पुनर्वास कार्यक्रम चलाए जैसे प्रशिक्षण, आर्थिक सहायता, घर-जमीन, पुलिस भर्ती लेकिन ये प्रयास पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सके, क्योंकि, नक्सली कमांडरों ने आत्मसमर्पण करके घर वापसी करने वालों को जान से मार दिया। समाज ने उन्हें आसानी से स्वीकार नहीं किया। कुछ राज्यों में नक्सलवादियों में जो आत्म समर्पण कर रहे थे उनके विकास की योजना भ्रष्टाचार की शिकार हुई। आत्मसमर्पण करने वाले युवाओं को पुनर्वास के बाद रोजगार नहीं मिला। इस कारण अर्बन नक्सल तंत्र ने उन्हें फिर उकसाया और नकारात्मक गतिविधियों में पुनः शामिल कर लिया। इन बातों को ध्यान में रखकर नक्सली पुनर्वास के कार्यक्रम को और मजबूत बनाने की आवश्यकता है। गत 50 सालों से चल रहे नक्सलवाद ने भारत को आर्थिक रूप से कमजोर किया, हजारों जवानों की जान ली, और दूरदराज इलाकों को अंधेरे में रखा। आज, पहली बार, लग रहा है कि नक्सलियों का अध्याय समाप्ति की ओर है। परंतु लड़ाई अभी पूरी नहीं हुई है। हमें जंगल की लड़ाई और शहर की वैचारिक जंग दोनों लड़नी होंगी।
जनवरी 2024 से लेकर अब तक माओवाद के खिलाफ अनेक ऑपरेशन सफलतापूर्वक चलाए गए हैं। जिसमें 900 के करीब नक्सली और माओवादी गिरफ्तार हुए हैं। 1700 के करीब माओवादि आत्म समर्पण कर चुके हैं। जिसमें वरिष्ठ माजी नक्सली मल्लोझुला वेणुगोपाल राव उर्फ भूपति और टकलापल्ली वासुदेव राव जैसे माओवादी कमांडरों ने आत्मसमर्पण किया है। साथ में खूंखार नक्सली कमांडर माडवी हिड़मा जैसे अनेक माओवादी मुठभेड़ में मारे भी गए हैं। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली से लेकर बिहार तक जंगल और पहाड़ों से सने क्षेत्र में नक्सलवादीयों का प्रतिकात्मक शासन चलता था । इसी के आधार पर गडचिरोली से लेकर बिहार तक आने वाले भविष्य में माओवाद का रेड कॉरिडोर निर्माण करने की माओवादियों की योजना थी। यह योजना भारत को विभाजित करने के लिए कार्य करने वाली थी ।
आज जंगलों में नक्सलवाद का ढांचा ढह रहा है। गृह मंत्री अमित शाह का 2026 तक नक्सलवाद की पूर्ण समाप्ति का लक्ष्य देश की जनता के मन में आशा निर्माण करने वाला है। जंगलों में नक्सली हिंसा का अंत निकट है,परंतु शहरों का वैचारिक नक्सलवाद कहीं अधिक जटिल है। भारत आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है और इस बार, ऐसा प्रतीत होता है कि यह लड़ाई देश जीत कर ही रहेगा। इस विजय से सिर्फ नक्सलवाद का अंत नहीं होगा, यह एक नए, आत्मविश्वासी, न्यायपूर्ण और समावेशी भारत के उदय का प्रतीक होगा।
