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भारत की अखंडता के वास्तविक शिल्पकार

भारत की अखंडता के वास्तविक शिल्पकार

by अमोल पेडणेकर
in विशेष
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अंग्रेज, मुस्लिम लीग और जिन्ना-नेहरू की कुटिल राजनीतिक, रणनीतिक चुनौतियों व षड्यंत्रों के बीच सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति व संकल्प शक्ति से सैकड़ों रियासतों में बंटे भारत को न केवल एकीकृत किया बल्कि भविष्य के शक्तिशाली अंखड भारत का मार्ग भी प्रशस्त किया है।

भारत के आधुनिक इतिहास में यदि किसी एक व्यक्ति को राष्ट्र की एकता का शिल्पकार कहा जाए तो वे हैं… सरदार वल्लभभाई पटेल। 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात की मिट्टी में जन्में इस किसान पुत्र ने वकालत की चमकदार दुनिया छोड़कर भारत की स्वतंत्रता और उसकी अखंडता के लिए योगदान देकर स्वतंत्र भारत को बिखरने से बचाया। इस वर्ष उनकी 150 वीं जयंती पर उनके योगदान का चिंतन, स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान का मूल्यांकन करना स्वाभाविक ही है।

वल्लभभाई पटेल का जीवन किसी उपन्यास से कम नहीं। साधारण परिवार से निकलकर वे इंग्लैंड में वकालत पढ़े और सफल बैरिस्टर बने। उनका जीवन दर्शन यह बताता है उनके लिए देश सर्वोपरि था, उसके आगे वे व्यक्तिगत हित को गौण मानते थे। यही कारण है कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में हर स्तर पर त्याग और संघर्ष किया। वे गांधीजी के ‘अहिंसा’ और ‘सत्याग्रह’ के मार्ग के समर्थक थे, परंतु वल्लभभाई के स्वभाव में जो कठोरता और निर्णय क्षमता थी, वह उन्हें सबसे अलग बनाती थी। वल्लभभाई पटेल ने स्वतंत्रता संग्राम के अनेक चरणों में सक्रिय नेतृत्व किया। 1918 में खेड़ा सत्याग्रह और 1928 में बारडोली सत्याग्रह उनकी असाधारण संगठन क्षमता और नेतृत्व का प्रमाण है। अंग्रेजों द्वारा अकाल और बाढ़ के समय भी कर वसूलने के विरोध में वल्लभभाई पटेल ने किसानों का नेतृत्व करते हुए खेड़ा सत्याग्रह किया। अंततः ब्रिटिश सरकार को कर माफ करना पड़ा। किसानों पर बढ़े हुए करों के विरुद्ध उन्होंने सफल बारडोली आंदोलन किया। उनके नेतृत्व से प्रभावित होकर ही उन्हें गुजरात की जनता ने ‘सरदार’ की उपाधि दी, फिर तो यह उपाधि उनके नाम के साथ स्थाई हो गई। इन दोनों आंदोलनों ने सरदार वल्लभभाई पटेल को राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व के रूप में स्थापित किया। इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि उनमें कठोर संघर्ष का साहस और जन-समूह को संगठित करने की अद्भुत क्षमता है। सरदार वल्लभभाई पटेल ने महात्मा गांधी का नेतृत्व स्वीकार किया। वे महात्मा गांधी के भक्त थे, परंतु जिस आंदोलन ने उन्हें देश का सरदार बना दिया, वह बारडोली का सत्याग्रह तो उन्होंने महात्मा गांधी की अनुपस्थिति में अकेले ही किया था। बारडोली का सत्याग्रह इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि सरदार वल्लभभाई पटेल ने इस सत्याग्रह के माध्यम से देश के किसानों के मन में बैठे ब्रिटिश साम्राज्य के भय को निकाल दिया, पर इन सारी गतिविधियों मेें कहीं भी हिंसा नहीं हुई थी, यही इस आंदोलन की विशेषता थी।

15 अगस्त 1947 को जब देश स्वतंत्र हुआ तो यह स्वतंत्रता अधूरी थी। भारत केवल ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ था, किंतु 565 रियासतें स्वतंत्र थीं। यदि इन्हें एकीकृत न किया जाता तो भारत का मानचित्र टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा होता। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारत की 565 रियासतों का एकीकरण करना सबसे बड़ी चुनौती थी। सरदार पटेल ने गृह मंत्री और उप प्रधान मंत्री के रूप में इस कठिन कार्य को असम्भव लगने वाली समय-सीमा में पूरा किया। हैदराबाद, जूनागढ़, कश्मीर जैसी जटिल रियासतों को एक करने में उन्होंने रणनीति, कूटनीति और जहां आवश्यक हुआ वहां दृढ़ता का भी प्रयोग किया। जूनागढ़ को कूटनीति और जनमत से भारत में मिलाया। हैदराबाद के निजाम को सेना की ‘ऑपरेशन पोलो’ के जरिए झुकाया। राष्ट्रहित में उनकी नीति स्पष्ट थी कि रियासतों का भारत संघ में विलय होना ही होगा, अन्य कोई विकल्प नहीं। यदि सरदार पटेल न होते तो भारत का मानचित्र वर्तमान का अखंड स्वरूप नहीं होता।

भारतीय राजनीतिक इतिहास में सरदार पटेल को वह स्थान नहीं दिया गया, जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे। यह कटु सत्य है कि कांग्रेस की अंतर्गत राजनीति में सरदार पटेल के साथ अन्याय हुआ। 1946 में जब प्रधान मंत्री पद के लिए उम्मीदवार चुने जाने थे तब कांग्रेस की 15 प्रांतीय समितियों ने सरदार पटेल का नाम आगे किया, किंतु महात्मा गांधी के एक वाक्य ने निर्णय बदल दिया कि ‘नेहरू बिना पद के काम नहीं करेंगे।’ परिणामस्वरूप प्रधान मंत्री नेहरू बने और पटेल को उप प्रधान मंत्री तक सीमित रखा गया। महात्मा गांधी सरदार पटेल को सम्मान देते थे, परंतु नेहरू के प्रति उनका विशेष झुकाव कई बार स्पष्ट हुआ। कई मौकों पर महात्मा गांधी के हस्तक्षेप के कारण सरदार पटेल को पीछे हटना पड़ा। विदेश नीति, कश्मीर समस्या, चीन के प्रति दृष्टिकोण जैसे कई मुद्दों पर सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू के बीच गम्भीर मतभेद रहे। सरदार पटेल चीन की महत्वाकांक्षाओं को समझते थे और सेना की मजबूती पर जोर देते थे, जबकि नेहरू अधिक आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाते थे। कश्मीर को लेकर सरदार पटेल ने स्पष्ट चेतावनी दी, किंतु नेहरू की लचर नीति ने इस मसले को उलझा दिया। इन घटनाओं को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि पटेल के साथ अन्याय हुआ क्योंकि उनकी दूरदर्शिता और कठोर निर्णय क्षमता को वह स्थान नहीं मिला जिसका स्वतंत्र भारत में सबसे अधिक महत्व था। यह मात्र संयोग था या नेहरू-कांग्रेस की राजनीतिक रणनीति? यह प्रश्न आज भी भारतीय राजनीति के माथे पर खुला घाव है।

How Bardoli Satyagraha helped Vallabhbhai Patel earn the title 'Sardar'

सरदार पटेल के जीवन के कई आयाम हमें गहरी प्रेरणा देते हैं। उन्होंने कभी व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं को प्राथमिकता नहीं दी। पत्नी के निधन के बाद भी उन्होंने स्वयं को पूरे समय देश के कार्यों में लगाया। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वे स्पष्ट और ठोस निर्णय लेने में संकोच नहीं करते थे। उनकी निर्णय क्षमता अद्भुत थी। एक नेतृत्वकर्ता के रूप में उनकी संगठन शक्ति प्रभावशाली थी, इसी कारण किसानों, मजदूरों और आम जनता को एकजुट कर संघर्ष करना उन्होंने सिखाया। सरदार पटेल ने कभी आदर्शवाद की आड़ में राष्ट्रहित की उपेक्षा नहीं की, वे व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए समाधान निकालते थे।
सरदार पटेल की प्रासंगिकता के संदर्भ में जब हम सोचते हैं तो वर्तमान में जब समाज कई प्रकार की चुनौतियों से जूझ रहा है, जिसमें आंतरिक विभाजन, साम्प्रदायिक तनाव, क्षेत्रीय असमानता और बाहरी शक्तियों का हस्तक्षेप इत्यादि सारी बातें है। ऐसे समय में सरदार पटेल का जीवन हमें संदेश देता है कि राष्ट्र की एकता सर्वोपरि है। राष्ट्रीय एकता को सर्वोच्च महत्व देना, व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में निर्णय लेना, अनुशासन, संगठन और कठोर परिश्रम को जीवन का आधार बनाना, ये उनके जीवन से मिलने वाली प्रमुख प्रेरणाएं हैं।

आज 78 वर्ष बाद भी भारत साम्प्रदायिक तनाव, प्रांतीय असमानता, बाहरी शक्तियों का दबाव, आंतरिक राजनीतिक खींचतान इत्यादि जिन चुनौतियों से जूझ रहा है, उन सबका समाधान सरदार पटेल की ही दूरदृष्टि में निहित है। उन्होंने अपने जीवन कार्य से जो संदेश दिया वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, राष्ट्रहित सर्वोपरि, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं उसके नीचे। सरदार पटेल का जीवन हमें उस भारतीय संघ की याद दिलाता है, जिसे उन्होंने राजनीतिक इच्छाशक्ति, अनुशासन और कूटनीति से गढ़ा था। 1947 में स्वतंत्रता के बाद तत्कालीन राजनीति के परिणाम पर खड़ा, हिंदू-मुसलमान धार्मिक दंगों से घायल, 565 रियासतों से टुकड़ों में बंटा हुआ एक असुरक्षित अस्थिर भू-राजनीतिक स्थिति वाला भारत ब्रिटिशों ने हमें सौंपा था। ऐसे समय में पटेल ने अद्भुत दृढ़ता दिखाई। उन्होंने साफ कहा भारत की एकता से ऊपर कुछ नहीं। भारत की राजनीति, संघीय ढांचे और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को आज सबसे अधिक आवश्यकता है पटेल की दृढ़ यथार्थवादी दृष्टि की। उनकी यही दृढ़ता उन्हें लौहपुरुष बनाती है।

Indians have shrunk Sardar Patel to just 1947 integration. There was so much more to him | Current News-Announcements

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल चुकी थी। आर्थिक, राजनैतिक और सैन्य दृष्टि से इंग्लैंड अब अपने शासित देशों पर राज बनाए रखने की स्थिति में नहीं था। ऐसे में भारत को स्वतंत्रता देना ब्रिटिशों के लिए एक मजबूरी बन चुकी थी, किंतु ब्रिटिश प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारत को छोड़ते समय भी भारत को स्थायी शांति और स्थिरता न मिले, इस प्रकार की योजना अपने मन में पाली थी। चर्चिल का मानना था कि भारतीयों को सत्ता देना ऐसा ही है जैसे बंदरों के हाथ में गाजर देना। यह कथन न केवल उनके भारतीयों के प्रति उपहासपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है बल्कि उस गहरी मानसिकता को भी उजागर करता है, जिसमें भारत को सदैव विखंडित और कमजोर बनाए रखने की योजना छिपी थी।

भारत को पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के रूप में विभाजित करना उसी रणनीति का परिणाम था। चर्चिल की दृष्टि में यह विभाजन केवल भौगोलिक नहीं था बल्कि मानसिक और प्रशासनिक भी था। उन्होंने भारत की संस्थानिकों, जाति-धर्म और सामाजिक ढांचे में ऐसी दरारें छोड़ दीं, जो आने वाले दशकों तक देश को भीतर से कमजोर करती रहें। उनका विश्वास था कि भारत की राजनीति भारतीयों के ही हाथों अपने पतन का कारण बनेगी, परंतु विंस्टन चर्चिल की यह भविष्यवाणी सरदार वल्लभभाई पटेल ने गलत सिद्ध कर दी। सरदार पटेल ने जिस दृढ़ता, व्यवहार कुशलता और अदम्य इच्छाशक्ति से बिखरे भारत को एक सूत्र में बांधकर रखा, वह विश्व इतिहास में अभूतपूर्व उदाहरण है। लगभग 565 रियासतों का भारत में विलीनीकरण करने का कार्य किसी लौहपुरुष के अलावा सम्भव नहीं था। उन्होंने यह दिखाया कि भारत केवल भौगोलिक तुकड़ा नहीं बल्कि सांस्कृतिक चेतना से जुड़ा एक जीवंत राष्ट्र है। चर्चिल की दृष्टि में भारत अराजकता की भूमि था, पर सरदार वल्लभभाई पटेल ने यह सिद्ध किया कि संगठित प्रयास, दूरदर्शिता और राष्ट्रभक्ति से किसी भी राष्ट्र को नवजीवन दिया जा सकता है। इस तरह सरदार वल्लभभाई पटेल नए भारत के शिल्पकार बन गए थे।

सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपना उत्तरदायित्व बहुत धैर्य और समझदारी से निभाया। उनके उल्लेखनीय कार्य से प्रभावित होकर बाद में ब्रिटेन के प्रधान मंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था-
“सरदार पटेल से कहिए कि वे अपने परिवर्तनशील विचार सिर्फ भारत तक सीमित न रखें बल्कि पूरा विश्व उनके उत्कृष्ट विचारों को सुनने और देखने की अपेक्षा करता है।”
आज जब हम ब्रिटेन के भूतपूर्व प्रधान मंत्री चर्चिल और सरदार वल्लभभाई पटेल के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि एक पश्चिमी शासक की संकीर्ण मानसिकता के सामने एक भारतीय नेता का विशाल दृष्टिकोण कितना प्रखर था। चर्चिल भारत को कमजोर देखना चाहता था, जबकि पटेल ने भारत को आत्मनिर्भर, अखंड और सशक्त बनाने का बीड़ा उठाया। चर्चिल का षड्यंत्र भारत को ‘तोड़ने’ का था, पर सरदार पटेल का संकल्प उसे ‘जोड़ने’ का था। चर्चिल के ‘षड्यंत्र’ और सरदार के ’संकल्प’ इन दोनों में सरदार पटेल के दृढ़ संकल्प की जीत हुई। भारत का वर्तमान स्वरूप सरदार पटेल की दूरदृष्टि, कूटनीति और निष्ठा का परिणाम है। चर्चिल की यह भविष्यवाणी थी कि भारत अपने ही नेताओं के कारण नष्ट होगा, किंतु उनका यह कथन असत्य सिद्ध हुआ क्योंकि भारतमाता ने ऐसे नेताओं को जन्म दिया जिन्होंने उसे न केवल जोड़ा बल्कि विश्व पटल पर एक गौरवशाली पहचान भी दी।

आज जब केंद्र और राज्यों के बीच टकराव बढ़ रहा है, वित्तीय हिस्सेदारी, कानून-व्यवस्था, भाषा और सांस्कृतिक अस्मिता, इन मुद्दों पर सरदार पटेल का दृष्टिकोण हमें याद दिलाता है कि संघीय ढांचे का अर्थ संघ का विघटन नहीं बल्कि संघ की मजबूती है। यदि सरदार पटेल की तरह स्पष्ट और कठोर दृष्टिकोण न अपनाया गया तो आंतरिक खींचातान देश की प्रगति को बाधित कर सकती है। वर्तमान में हमारे देश के सम्मुख उपस्थित अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां एवं चुनौतीपूर्ण स्थिति पर सरदार पटेल की दृष्टि से देखा जाए तो 1947 के बाद पटेल ने चीन और पाकिस्तान के संकटों को पहले ही भांप लिया था। उन्होंने नेहरू को चेतावनी दी थी कि चीन विस्तारवादी है और पाकिस्तान की नीयत पर विश्वास करना घातक होगा, किंतु उनकी चेतावनी को गम्भीरता से नहीं लिया गया। 1962 का भारत-चीन युद्ध और कश्मीर विवाद इसका परिणाम रहा है।

खिलाफत आंदोलन को महात्मा गांधी का जो सहयोग था, उस पर वल्लभभाई पटेल की टिप्पणियां अलग थीं। वे जानते थे कि खिलाफत आंदोलन ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को दृढ़ता प्रदान की है और यह साम्प्रदायिकता ही देश को विभाजन की ओर ले जाएगी। चीन की बढ़ती आक्रामकता और पाकिस्तान की अस्थिर राजनीति, ऐसे परिदृश्य में सरदार पटेल की व्यावहारिक विदेश नीति हमें मार्गदर्शन देती है। उनकी नीति स्पष्ट थी, आदर्शवाद से अधिक महत्वपूर्ण है राष्ट्रीय सुरक्षा। आज की राजनीति के लिए सरदार पटेल का जीवन हमें यह सिखाता है कि संघीय ढांचे का संतुलन बनाए रखना ही भारत की अखंडता की गारंटी है। विदेश नीति में आदर्श से अधिक आवश्यक है व्यावहारिकता। राष्ट्रहित के सामने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा तुच्छ है। आज हमें यह तय करना होगा कि सरदार पटेल के दृष्टिकोण को अपनी राजनीति और नीतियों में हम कैसे शामिल करें।

व्यक्ति की कसौटी, उस व्यक्ति ने किस परिस्थिति में क्या किया, वह कार्य करते समय उनकी वैचारिक भूमिका क्या रही और उस कर्तृत्व का समाज एवं राष्ट्र पर भविष्य में परिणाम क्या हुआ, इस पर निर्भर होती है। सरदार वल्लभ भाई पटेल के150 वें जयंती वर्ष निमित्त इतिहास में घटी इन घटनाओं और वर्तमान में लिए जाने वाले निर्णयों और उसके परिणामों के आधार पर सरदार वल्लभभाई पटेल के कर्तृत्व को जानने का प्रयास हो रहा है।
सन 1918 में भारत की राजनीति में प्रवेश कर बॅरिस्टर वल्लभ भाई जवेरी भाई पटेल अगले 10 वर्षों में यानी 1928 में सम्पूर्ण देश के सरदार बन गए। सन 1928 में बारडोली सत्याग्रह ने उन्हें भारत देश का सरदार बनाया। बारडोली के इस आंदोलन ने ही उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया।

उसके बाद सम्पूर्ण देश के राजनीतिक और सामाजिक व्यवहार में सर्वमान्य सरदार के रूप में उनकी पहचान बन गई थी। 1928 से लेकर उनके जीवन पर्यंत उन्होंने जो कार्य किए, वें केवल देश के लिए ही नहीं अपितु पूरी दुनिया के लिए प्रेरणादायी है। ऐसा कहा जाता है कि स्वतंत्रता के बाद के 5 वर्षों के दौरान यदि सरदार न होते तो जो कार्य उन्होंने किया, वह अन्य कोई भी नहीं कर पाता। तब देश का प्रधान मंत्री या राष्ट्र प्रमुख नेहरू नहीं तो कोई और होता, परंतु स्वतंत्रता के बाद देश में जो स्थिति निर्माण हुई थी, उसमें यदि सरदार वल्लभभाई पटेल ना होते तो कदाचित् आज परिस्थिति कुछ और होती।
सोवियत संघ के राष्ट्राध्यक्ष मिखाइल गोर्बाचेव जब भारत आए थे तब भारत के विलीनीकरण के संदर्भ में उन्होंने कहा था कि वल्लभभाई पटेल ने बिना खून की एक बूंद बहाए 565 संस्थानों का भारत में विलीनीकरण कर लिया। यह दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा है और यह भारत की संस्कृति भी है।

बैरिस्टर सरदार वल्लभभाई पटेल केवल एक नेता नहीं थे, वे भारत की अखंडता और एकता के वास्तविक शिल्पकार थे। यदि सरदार न होते तो आज भारत सैकड़ों टुकड़ों में बंटा होता।

-अमोल पेडणेकर

यह आलेख को पॉडकास्ट में सुनने के लिए, दिए गए लिंक पर क्लिक करें. 

Podcast link –

https://open.spotify.com/episode/4NVpPjpx1q1yNRUJwAVbN1?si=YS4t7E24RVK0H0PbIMdkdw

 

 “इस बारे में आपकी क्या राय है? नीचे कमेंट्स में बताएं।”

 

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