भारतीयत्व की विस्मृति ही “इंडिया” है

भारतीय चिंतन पूरे विश्व को हमारी देन है। इसे पहले और आज भी स्वीकार किया जा रहा है। फिर भी, हम अपने ही देश और अपने ही राजनीतिक उत्तराधिकारियों के बीच गत ७० सालों से बहिष्कृत क्यों हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है कि, क्या आज का ‘इंडिया’ बौद्धिक गुलामी की ओर बढ़ रहा है? क्या भारतीयत्व की विस्मृति ही ‘इंडिया’ की सफलता की बुनियाद बनेगी?

क्या सांस्कृतिक समझ को देशकाल के दायरे में लाना आवश्यक है? यह स्वाभाविक सा प्रश्न मन को आकर्षित करता है। आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक कालखंड के एक लंबे दौर से गुजरे अपने देश में शायद हमने कभी गंभीरता से सोचा नहीं होगा। १९वीं शताब्दी से हमारे विचारकों व समाज सुधारकों ने इस प्रश्न को बार-बार उठाया भी है। जो हमारी सामाजिक बुराइयां हैं, सामाजिक कलंक हैं। उन बुराइयों ने आज फिर अपनी जड़ें जमा ली हैं। हम आज के दौर में भी उन बातों से परेशान हैं। आजादी के पहले इसका एक रूप था। अब उनके अनेक रूप हो गए।

रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है, ‘‘वे देश भाग्यवान हैं जो अपनी अस्मिता को अपने देश के इतिहास में ही खोज लेते हैं। अपने पाठ्यक्रमों में यानी बचपन में ही इतिहास और देश के साथ अपना परिचय करवा लेते हैं। ’’ विदेशियों ने भारत को ‘इंडिया’ कहना कब से प्रारंभ किया था इसका प्रामाणिक इतिहास तो नहीं मिलता, पर पुर्तगाली, डच, अंग्रेज और फें्रच ईसाई मिशनरियों के भारत आने और एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों में नाम बदलने और धर्मांतर कराने के प्रमाण मौजूद हैं। ब्रिटेन की रानी एलिजाबेथ पूर्व के देशों में व्यापार करने का अधिकार लेकर भारत आई। भारत को ‘इंडिया’ में बदलने का सिलसिला यहीं से शुरू होता है। ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ की सफलता इसकी गवाह है। लंदन के व्यापारियों की इसी कंपनी को मुगल बादशाह जहांगीर ने व्यापार करने और कारखाने खोलने की मंजूरी दी थी। इन व्यापारियों ने एक ओर बर्मा से पेशावर तक राजकीय सत्ता प्रस्थापित करने के जोरदार प्रयास किए। साथ में इतिहास, संस्कृति, भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं को थोपने का प्रयास किया और ऐसी पश्चिम की बातों को भारत पर थोपने का प्रयास प्रारंभ किया, जिससे भारत को ‘इंडिया’ के रूप में बदला जा सके। आर्यों का आक्रमण, वेदों की रचना, आर्य- द्रविड़ संघर्ष जैसी अनेक भ्रामक बातों को प्रचारित करके इतिहास को विकृत करने का काम इसी दौर में शुरू किया गया था, जो आज भी जारी है। भारत की भौगोलिक विविधता और सांस्कृतिक एकता को विकृत करने में अंगे्रजों की इस साजिश से देश को बहुत क्षति पहुंची है।

‘इंडिया दैट इज भारत’ भारतवर्ष की यही पहचान स्वतंत्रता के पश्चात भी दर्ज की गई। किसी भी देश के संविधान में उस देश की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भौगोलिकता शक्ति के रूप में अभिव्यक्त होती है। लेकिन भारतीय संविधान की पोथी में भारत की पहचान ‘इंडिया’ के रूप में उपस्थित है और भारत केवल ‘दैट इज’ के रूप में उपस्थित है। शायद हम सांस्कृतिक शून्यता की स्थिति में जी रहे थे। एक लम्बे अरसे से हम गुलाम रहे हैं। इसी गुलामी ने हमारी मानसिकता को बदल कर रख दिया है।

भारत की अस्मिता और परंपराओं को समझने के लिए उसके चिंतन और उदार जीवन दृष्टि को समझना जरूरी है। भारत की संकल्पना में ऋषियों की सार्वभौम राष्ट्र की स्थापना वह दूरदृष्टि है जिसमें संपूर्ण वसुधा को एक परिवार और ‘सर्वे सुखिन:, सर्वे निरामया’ की विश्वदृष्टि है। जिसमें मनुष्य नहीं संपूर्ण प्रकृति के प्रति सम्मान और प्यार है। प्रत्येक मनुष्य को सकारात्मक विकास का अवसर प्रदान करते हुए इस मानवता की सेवा देश-काल के बंधनों से मुक्त होकर करने का संदेश है। हजारों महापुरुषों ने लोक जागरण के माध्यम से भारत के लोगों को राष्ट्र पर न्योछावर होने के लिए प्रेरित किया था। भक्ति आंदोलन उसकी सबसे शक्तिशाली कड़ी है। भारत में एक गहरी बुनियादी एकता है, जो भौगोलिक अलगाव अथवा राजनीति से निर्मित होने वाले हालातों से अधिक शक्तिशाली है। यह एकता खून, रंग, भाषा, पोशाक और संप्रदाय जैसी असंख्य बातों से परे है।

‘इंडिया’ की संकल्पना केवल पश्चिमी देशों की राष्ट्र-राज्य की संकल्पना नहीं है, भारत जैसे परंपरागत समाज को ध्वस्त-बहिष्कृत करने की एक सोचीसमझी साजिश है। दुनिया के सबसे बड़े कृषि उत्पादक और ग्रामीण सभ्यता वाले देश के राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों या समाज के सभ्यजनों के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि स्वतंत्र भारत में ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के बीच ध्रुवीकरण क्यों हो गया? राष्ट्रीयता, राष्ट्रभाषा, स्वदेशी जैसे स्वतंत्रता संग्राम के मुद्दे कहां गायब हो गए, जिनके आधार पर एक स्वावलंबी और स्वाभिमानी देश का सपना देखा था!

जिन राजनीतिज्ञों ने पंथ, भाषा या संस्कृति के अभियान को राजनीतिक सत्ता हथियाने का हथियार बनाया है, जहां सामाजिक न्याय और मानवीय विवेक को भी वैचारिक द्वंद्व में बदल दिया जाता है, वह ‘इंडिया’ की देन है। बीसवीं सदी अगर वैज्ञानिक उपलब्धियों और यंत्रज्ञान की सदी है तो साथ ही हिंसक आतंकवाद की सदी भी है। भारतीय जनों का अपनी संस्कृति और सांस्कृतिक परिचय से कटने का परिणाम किसी परमाणु विस्फोट के जितना ही भयावह होगा। यह ‘इंडिया’ की देन है कि भारत में मनुष्य के विकास का प्रमाण उसकी बौद्धिक योग्यता न होकर अंग्रेजी ज्ञान हो गई है। भारतीय बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए निरंतर कोशिश कर रहा है।

कलाएं लोप होती जा रही हैं। भारतीय कला, संस्कृति की अभिभावक हो सकती है पर कलाकारों का ही कला जीवन से रिश्ता नजर नहीं आ रहा है। लोकनाट्य, लोक नृत्य जैसी अनेक कलाएं हमने नष्ट कर दी हैं। संगीत को अंग्रेजी शिक्षा खा गई। कोई अपने बच्चे को संगीत सिखाना नहीं चाहता। अच्छे गुरु को को सही शागिर्द नहीं मिलते। यहां भी कला और लोगों में बड़ी खाई महसूस हो रही है। अपनी राजभाषा को हम स्वीकार नहीं कर रहे हैं। अपनी भाषाओं ने कोई रास्ता ही नहीं खोजा है। हम अंग्रेजी के आधीन हो गए हैं। २४ भारतीय भाषाओं में कोई परस्पर तारतम्य नहीं है। भारतीय भाषाओं की शिक्षा हेतु विद्यार्थी नहीं मिल पा रहे हैं।

अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयास में लगे बुद्धिजीवियों की कोशिश है कि सभी भारतीय भाषाओं को मूल लिपियों से बहिष्कृत कर के रोमन लिपि में लिखा जाए। इन बुद्धिजीवियों का दावा है कि इससे भाषाओं के बीच सौहार्द और राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। स्वतंत्रता के बाद हमने भारत से भारतीय मूल्यों को ही निष्कासित करने का अभियान शुरू किया है। यही ‘इंडिया’ वालों की कूटनीति की सबसे बड़ी सफलता है।

पूरे विश्व में भारतीय योग, अध्यात्म, चिकित्सा और भारतीय जीवनदर्शन पर शोध हो रहे हैं। उसे स्वीकृति मिल रही है। लेकिन हम अपने ही देश और अपने ही राजनीतिक उत्तराधिकारियों के बीच गत ७० सालों से बहिष्कृत क्यों हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है कि, क्या आज का ‘इंडिया’ बौद्धिक गुलामी की ओर बढ़ रहा है? क्या भारतीयत्व की विस्मृति ही ‘इंडिया’ की सफलता की बुनियाद बनेगी?

डेढ़ सौ साल का स्वतंत्रता संग्राम, इतिहास में देश रक्षा के दौरान शौर्यपूर्ण कार्य करने वाले इतिहास पुरुष, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, क्रांतीकारी; जिनके बलिदान होने की प्रेरणा ने ही भारतीय जनमानस को स्वाभिमान से भर दिया था। इस इतिहास को समझने, इससे संवाद स्थापित करने और इस इतिहास को प्रवाहमान बनाए रखने के लिए एक स्वनीति की आवश्यकता है। सांस्कृतिक प्रतीकों के इतिहास और महत्व को देश की युवा पीढ़ी के सामने प्रस्तुत किए बिना उन्हें भारत की संकल्पना समझाना असंभव है। ईस्ट इंडिया कंपनी के समय से ही ‘इंडिया’ को भारत की परंपरागत संास्कृतिक एकता, जीवन-दर्शन, शिक्षा और इतिहास को मिटाने की सुनियोजित साजिश के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। उनकी कूटनीति का परिणाम है कि देश के विभाजन की नींव रखी गई। एक तरफ मुसलमानों को अलग देश मांगने की साजिश समझाई गई तो दूसरी तरफ द्रविड़-आर्यों के बीच खाई पैदा की गई। सवर्ण-अल्पसंख्यकों में कटुता बढ़ाई गई। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से मानसिक गुलामों की ऐसी फौज खड़ी की गई जिसने सारी शक्ति भारत को असभ्य, असमंजस सिद्ध करने में लगाई।

आज यह भी सोचने वाला एक वर्ग है कि संसार के सभी मनुष्य एक जैसी भाषा बोलें, एक जैसा भोजन करें, एक जैसी पोशाक पहनें, यह तो विविधता की अनदेखी करने वाला विचार है। विविधता में ही प्रकृति का सौंदर्य और आकर्षण है। इस विविधता को नष्ट कर देने का विचार किसी चिंतन की उपज तो नहीं हो सकती।

वैश्वीकरण के नाम पर अंतरराष्ट्रीय संबंध की बात कही जरूर जाती है, पर ये बुद्धिजीवी लोग इससे दुनिया की विविध सभ्यताओं में संघर्ष की स्थापना करने में लगे हैं। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति ने हजारों वर्ष पूर्व ‘‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की अवधारणा को प्रस्तुत किया था। दुनिया भर के लिए प्रस्तुत किया गया यह चिंतन आत्मा की स्वीकृति है। आत्मा सभी में है, यहां तक कि नदियों, पहाड़ों, वृक्षों या सभी जीवनसृष्टि में आत्मा का अस्तित्व माना गया है। यदि यही भाव सभी मनुष्यों में समा जाए तो संघर्ष और शोषण की संभावना ही समाप्त हो जाएगी। ऐसे ही उच्च आदर्शों को सामने रखते हुए भारतीयों ने सभ्यता का सफर किया है। यह देश इसलिए विशेष नहीं कहा जाता था कि वह धन-धान्य से परिपूर्ण था, सैन्य शक्ति के बल पर अपनेसाम्राज्य का विस्तार करता था; बल्कि इसलिए विश्व भारत को मानता था कि हमारा चिंतन भारत की विश्व को देन है। एक बार फिर हम जीवन की ओर लौट कर सामाजिक रचना, संस्कृति, शिक्षा और भाषा की माली हालत पर बात करें तो हमारे पास तो विपुल सांस्कृतिक धरोहर मौजूद है। अपनी भाषा, अपनी मातृभाषा और अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान का भाव तभी पैदा होगा जब हम अपने देश की समृद्ध संस्कृति का परीक्षण करेंगे, अपने देश से आत्मीयता का रिश्ता बनेगा तभी देश को देखने की हमारी दृष्टि बदलेगी।

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