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संवाद

by pallavi anwekar
in नवम्बर २०१७, सामाजिक
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निरंतर संवाद एक मनोवैज्ञानिक चिकित्सा के समान है जो लोगों को अकेलेपन और नैराश्य से दूर रखता है। …संवाद मानसिक संबल प्रदान करने के साथ-साथ सुरक्षा भी प्रदान करता है। इससे समाज में होने वाली कई दुखद घटनाओं को रोका जा सकता है।
कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर एक वीडियो देखा। पति-पत्नी दोनों एक ही दफ्तर में कार्यरत हैं। दिन के लगभग ८-९ घंटे एकसाथ बिताते हैं। काम के प्रति दोनों की आस्था और दोनों का तालमेल बहुत अच्छा है। कोई भी नया प्रोजेक्ट शुरू करने के पहले एक दूसरे के विचारों को सुनना, क्या नया किया जा सकता है इस बारे में चर्चा करना, प्रोजेक्ट से सम्बंधित क्या कार्य किसे करना है आदि जैसे सारे काम सुनियोजित तरीके से पूर्ण हो जाते हैं। दफ्तर आने-जाने के समय भी दोनों साथ ही निकलते थे। अत: दफ्तर और घर की कई सारी बातें, कई काम एकसाथ हो जाते थे।
परंतु धीरे-धीरे उनका साथ-साथ आना-जाना कम होने लगा। कभी पत्नी को घर के कामों के कारण निकलने में देर हो जाती तो कभी पति को बाहर की मीटिंग्स के कारण सुबह जल्दी निकलना पड़ता। घर आने के बाद भी ऑफिस की ही चर्चा होती थी। घर परिवार के बारे में, एक-दूसरे के बारे में बात करने का समय दोनों के पास नहीं बचता था। छुट्टियों के दिनों में पति अपने दोस्तों से मिलने निकल जाता तो पत्नी घर की खरीदारी करने।
इन सभी कारणों से दोनों के बीच संवाद कम होने लगा और दूरियां बढ़ने लगी। पहले जिन समस्याओं का समाधान चर्चा करके, बातें करके निकलता था अब वे दोनों एक दूसरे को ही उन समस्याओं का कारण मानने लगे थे। जब भी बात करते बस आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो जाता। एक दूसरे की कमियां निकालने लगते। प्रेम तथा सामंजस्य की जगह क्रोध तथा अहंभाव ने ले ली थी। दोनों ही अत्यंत कठिन भावनात्मक दौर से गुजर रहे थे। परंतु स्थिति को सुधारने के लिए संवाद साधने की पहल कोई नहीं कर रहा था।
एक बार तो झगड़ा इतना बढ़ गया कि दोनों यह सोचने लगे कि एक दूसरे से ऊब गए हैं। इसी बीच दो दिन की छुट्टियां आ गईं। दोनों ने ही एक दूसरे को बिना बताए सारा दिन घर पर ही रहने का निश्चय किया। पत्नी ने पति की पसंद का भोजन बनाया, दोनों ने फिल्म देखी, शाम को घूमने चले गए। कुल मिला कर दोनों ने सारा वक्त एक दूसरे के साथ गुजारा। दफ्तर का काम और प्रोजेक्ट के अलावा भी ढेर सारी बातें कीं। सारे गिले-शिकवे दूर हो गए और रिश्तों की गाड़ी फिर से पटरी पर लौट आई।
५-७ मिनिट का यह छोटा सा वीडियो हर उस कामकाजी दम्पति की कहानी है, जो यह महसूस करने लगे हैं कि वे एक दूसरे से ऊब रहे हैं। समय और संवाद की यह कमी केवल पति-पत्नी के रिश्ते में ही दिखाई देती है, ऐसा नहीं है। माता-पिता और बच्चे, भाई-बहन, दोस्त आदि सभी सम्बंधों में कमोबेश दिखाई देती है। परिवार के रूप में एक साथ बिताए जाने वाले वक्त में भी बहुत कमी आ गई है।
विगत कुछ समय से देश के विभिन्न शहरों में जो घटनाएं हुईं उनकी भावानात्मक पड़ताल करें तो यही सामने आएगा कि किस तरह संवादहीनता ने कई बड़े हादसों को अंजाम दिया है।
भारत में ब्लू-व्हेल मोबाइल गेम का पहला शिकार था, मुंबई का मनप्रीत। उसकी मृत्यु के बाद सभी ने ब्लू-व्हेल गेम को जिम्मेदार ठहराया और उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। परंतु क्या किसी एक मोबाइल गेम पर प्रतिबंध लगा देने भर से इस समस्या का समाधान हो जाएगा? क्या इसकी जड़ में यह प्रश्न नहीं उठता कि जब वह बच्चा उस गेम के एक के बाद एक स्टेज पार कर रहा था तो उसके परिवार के लोग क्या कर रहे थे? क्या वे लोग नहीं जानते थे कि वह क्या कर रहा है? डरावनी फिल्म अकेले देखने या अपने हाथ पर चाकू से ब्लू व्हेल का निशान बनाने जैसा साहस करने की उसकी हिम्मत कैसे बढ़ी? क्या परिवार में से किसी ने इतने दिनों में उससे ये नहीं पूछा कि वह क्या कर रहा है? अगर मनप्रीत से निरंतर सुसंवाद होता रहता, उसके दोस्तों से उसके अभिभावक लगातार बात करते रहते तो क्या उन्हें मनप्रीत की हरकतों का पता नहीं चलता? यह विचार करना आवश्यक है कि इस घटना में केवल मोबाइल गेम ही दोषी है या पालकों और बच्चों के बीच बढ़ती संवादहीनता।
किसी महानगर के एक फ्लैट में अकेली वयस्क स्त्री का कंकाल मिलने जैसी घटना भी अंदर तक यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि कैसे कोई बेटा अपनी मां के कुशलक्षेम लेने तक की जहमत नहीं उठाता? कैसे उसे इतने दिनों तक यह पता नहीं चलता कि उसकी मां का देहांत हो गया है? कैसे आस-पड़ोस में रहने वाले लोग इतने बेपरवाह हो जाते हैं कि कई दिनों तक किसी घर का दरवाजा न खुलने पर भी किसी को कोई सरोकार नहीं होता? महिला की मृत्यु के पश्चात उसके बेटे पर कई प्रश्नचिह्न थे, परंतु महिला के जीवित रहते हुए आस-पड़ोस के लोगों से उसके कितने अच्छे सम्बंध थे? अगर वह निरंतर आस-पड़ोस के लोगों से मिलती रहती, उनसे बात करती रहती तो शायद घटना का अंत इतना विदीर्ण न होता।
संवाद की सब से ज्यादा आवश्यकता होती है बच्चों को। कच्ची उम्र में अमूमन हर बच्चा यह चाहता है कि कोई न कोई उससे बात करता रहे, उसकी सुनता रहे। स्कूल, बस, मित्र, अध्यापक इत्यादि सब कुछ उसके लिए नया होता है। वह अपना अधिकतम समय इन सब के बीच गुजारता है और जब वह घर आता है तो अत्यंत उत्साह में सभी को दिन भर की बातें सुनाता है। बच्चों की ये बातें सुनना अत्यंत आवश्यक है। ये एक तरह से बच्चों में विश्वास पैदा करती है कि उनकी सुनने वाला कोई है और दूसरी ओर बड़ों को आगामी खतरों से आगाह भी कराती है। आजकल समाज में बच्चों के साथ किए जाने वाले दुष्कृत्यों में जिस तरह से वृद्धि हो रही है उसमें यह आवश्यक है कि वे निरंतर घर के बड़ों से संवाद साधते रहें। उनकी बातों से और हावभावों से अभिभावकों के यह समझने में आसानी होती है कि उसके साथ दिन भर में क्या हुआ।
निरंतर संवाद एक मनोवैज्ञानिक चिकित्सा के समान है जो लोगों को अकेलेपन और नैराश्य से दूर रखता है। ऐसा कोई व्यक्ति होना अत्यंत आवश्यक है जिसके साथ हर तरह की बात की जा सकती हो, जिसके सामने अपने मनोभावों को आसानी से व्यक्त किया जा सकता हो। कभी-कभी जीवन में मिली छोटी सी असफलता भी लोग पचा नहीं पाते और ऐसा कोई व्यक्ति भी उनके जीवन में नहीं होता जो उनकी असफलता से उबरने में मदद कर सके। धीरे-धीरे असफलता उसके मन में निराशा की भावना उत्पन्न कर देती है और यह भावना इतनी प्रखर होती जाती है कि व्यक्ति आत्महत्या भी कर लेता है। परंतु असफलता से आत्महत्या तक के प्रवास की गति मंद होती है। अत: निराशा के स्तर पर अगर व्यक्ति से संवाद शुरू कर दिया जाए तो निश्चित ही उसे आत्महत्या करने से तो रोका जा ही सकता है, सफल होने की ओर भी प्रेरित किया जा सकता है।
संवाद मानसिक संबल प्रदान करने के साथ-साथ सुरक्षा भी प्रदान करता है। कल ही एक किस्सा सुना कि अकेली रहने वाली एक वयस्क महिला अचानक बीमार पड़ गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। दूसरे शहर गया हुआ उनका बेटा जब अस्पताल पहुंचा तो अपनी मां के समवयस्क लोगों से उसने पूछा कि आपको मां की बीमारी की खबर कैसे मिली? उन व्यक्तियों ने जवाब दिया, ‘‘सोसायटी में साठ साल के ऊपर जितने भी लोग हैं वे सभी शाम को नियत समय पर बागीचे में मिलते हैं। अगर कोई नहीं आता या कोई खबर नहीं आती तो सब उसके घर पहुंच जाते हैं। उन लोगों का व्हाट्स एप पर एक ग्रुप भी है जिस पर नियत समय के अंतराल से संदेश भेजने का नियम है। अगर किसी का संदेश नहीं आता तो उसकी पड़ताल शुरू हो जाती है और वास्तविकता का पता चल जाता है। आज सुबह जब तुम्हारी मां का संदेश नहीं आया, हमारे संदेशों का भी उन्होंने जवाब नहीं दिया तो हम उनके घर पहुंच गए। उनकी तबियत ठीक न होने के कारण अस्पताल ले आए और तुम्हें भी खबर कर दी।’’ कंकाल में परिवर्तित हो चुकी उस वयस्क महिला और समय रहते अस्पताल में भर्ती कर दी गई महिला के बीच अंतर यही है कि उनका किसी से कोई संपर्क नहीं था, संवाद नहीं था और इनके परिचितों की कोई कमी नहीं थी।
समय की कमी को संवेदनहीनता का सबसे बड़ा कारण बताया जाता है। परंतु आज संवाद साधने के इतने सारे साधन मौजूद हैं कि आपको किसी के पास जाने की जरूरत नहीं है। आवश्यक नहीं है कि आप रोज मिलें बल्कि आवश्यक यह है कि आप रोज बात करें। अपना मन हल्का करने के लिए, किसी और का मन हल्का करने के लिए भी। अपनी सुरक्षा के लिए और अपनों की सुरक्षा के लिए भी। बातें कीजिए, संवाद साधिए।

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