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चलो केरल! अ.भा.वि.प. का अभियान

चलो केरल! अ.भा.वि.प. का अभियान

by विक्रांत खंडेलवाल
in नवम्बर २०१७, संघ
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केरल में कम्युनिस्टों की राजनीतिक हिंसा से पीड़ित परिवारों को संबल प्रदान करने के लिए अ.भा.विद्यार्थी परिषद की ओर से आगामी ११ नवम्बर को ‘चलो केरल!’ अभियान का आयोजन किया जा रहा है। इसमें देशभर से छात्र शामिल होंगे। यह अभूतपूर्व व ऐतिहासिक होगा। प्रस्तुत है इस अभियान का विवरण और संघ स्वयंसेवकों पर माकपा के हमलों की कारण मीमांसा…
हाल ही में ३ सितम्बर को जब १०.३० बजे टी.वी. पर केन्द्र में बनने वाले मंत्रियों का शपथ ग्रहण समारोह देख रहा था, सब के परिचय में उनके जीवन की किसी बड़ी उपलब्धि का उल्लेख हो रहा था तो कई नामों के परिचय में यह उल्लेख हुआ कि ये जे.पी. आंदोलन से जुड़े रहे हैं। किसी के परिचय में यह उल्लेख हो रहा था कि इन्होंने राजनीति की शुरुआत विद्यार्थी परिषद में काम करके की है। जब कई बार इस जे.पी. आंदोलन का नाम सुना तो मन में विचार किया कि एक आंदोलन का कितना दूरगामी परिणाम होता है। एक आंदोलन से सैकड़ों हजारों व्यक्तियों का निर्माण होता है। चूंकि जे.पी. आंदोलन में कांग्रेस पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ कर संयुक्त विपक्ष ने आपात काल के विरोध में आंदोलन किया था इसलिए आज वर्तमान भारत की राजनीति में बहुत से नेता विभिन्न राजनैतिक दलों में कार्य कर रहे हैं जो एक समय जे.पी. आंदोलन से जुड़े रहे हैं।
अब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में कार्य करते हुए इस बात को महसूस करते हैं कि जब भी परिषद का इतिहास बताया जाता है तो भारतीयकरण आंदोलन (१९४८-४९) से प्रारंभ करके असम आंदोलन, आपातकाल आंदोलन, कश्मीर आंदोलन, परिसर बचाओ आंदोलन, २००८ में किया चिकननेक आंदोलन के होते-होते YAC द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ किए गए आंदोलन पर आकर पूरा हो जाता है। अर्थात किसी संगठन एवं संस्था के इतिहास में बड़ी घटनाएं, बड़े अभियान और बड़े आंदोलन ही जगह बना पाते हैं। किन्तु इसका मतलब यह कदापि नहीं कि परिषद के हजारों कार्यकर्ताओं द्वारा महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में वर्ष भर की जाने वाली सदस्यता, इकाई गठन, सम्मेलन, प्रतिभाओं का सम्मान, सेवा कार्य, सेमिनार कार्यशालाएं, रचनात्मक कार्यक्रम आदि सभी अनुपयोगी हैं। क्योंकि वर्ष भर चलने वाली ये संगठनात्मक, रचनात्मक गतिविधियां ही बड़े आंदोलनों, अभियानों की सफलता की नींव होती है। जिस प्रकार बिना नींव के मजबूत मकान खड़े नहीं होते उसी प्रकार बिना मजबूत और समर्थ संगठन के कोई भी बड़ा अभियान सफल नहीं होता।
विद्यार्थी परिषद के प्रत्येक कार्यक्रम का अपना एक उद्देश्य होता है कि इस राष्ट्र की समृद्धि में योगदान देने वाला राष्ट्रभक्त, सजग नागरिक तैयार करें। कार्यकर्ता निर्माण के इस निरंतर चलने वाले अभियान में संगठन समय-समय पर देश, समाज की वर्तमान परिस्थिति की आवश्यकता के अनुसार बड़े आंदोलन, अभियान भी चलाता है। हम इन अभियानों की प्रासंगिकता, आवश्यकता आदि का अध्ययन करते हुए पूर्व योजना- पूर्ण योजना की तैयारी के साथ लक्ष्यों की पूर्ति हेतु प्रयत्नों की पराकाष्ठा करते हुए सफल क्रियान्वयन कर भविष्य में होने वाले उसके परिणामों पर पैनी नजर भी रखते हैं। समय- समय पर होने वाली समीक्षा भी इनकी सफलता को सुनिश्चित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परिषद द्वारा किया गया प्रत्येक बड़ा आंदोलन अपने विषय आधारित परिणामों के साथ-साथ देश भर में कार्यकर्ता निर्माण हेतु सकारात्मक सहयोग देता दिखाई देता है।
केरल- वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
केरल में माकपा द्वारा सत्ता पर कब्जा बनाए रखने का खूनी खेल आज के भारत में लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती है। हाल ही में सम्पन्न चुनावों के परिणामों के बाद सत्ता में वापसी करने वाली माकपा सरकार आते ही अचानक केरल में हिंसा का बढ़ जाना कोई नई बात नहीं है। क्योंकि माकपा के चरित्र का प्रत्येक पन्ना बिना हिंसा के अपना परिचय भी कैसे देगा, व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष और केवल संघर्ष का नारा देने वाले मार्क्सवादी किसी और को कैसे सहन कर सकते हैं?
केरल हिंसा का रक्तरंजित इतिहास लगभग ३ दशक पुराना है। भारत के लगभग शतप्रतिशत शिक्षित राज्य केरल का सर्वाधिक हिंसाग्रस्त जिला यानि कन्नूर। वैसे तो कन्नूर में राजनैतिक हिंसा की शुरूआत १९६९ में हुई जब संघ के कार्यक्रम पर माकपा ने हमला किया, पर उस समय १० वर्षों में हुई २-३ हत्याओं के कारण उन घटनाओं को इस स्वरूप में नहीं लिया गया। यह समस्या बड़े रूप में सामने तब आई जब माकपा द्वारा इंदिरा गांधी सरकार द्वारा घोषित किए गए आपातकाल के निर्णय का समर्थन करने के कारण बड़ी संख्या में माकपा के कार्यकर्ता पार्टी छोड़ कर संघ की शाखाओं में जाने लगे। १९८० के बाद इस हिंंसा में अप्रत्याशित वृद्धि इस बात का ही नतीजा है। फिर १९९९ में प्रथम बार केन्द्र में भाजपा सरकार बनने के कारण भी माकपा का कार्यकर्ता बड़ी संख्या में पलायन कर संघ- भाजपा से जुड़ने लगा और इसी का असर कन्नूर में भी दिखने लगा। अब संकट स्पष्ट था कि कार्यकर्ता आधारित माकपा पार्टी के लिए दूसरी कार्यकर्ता आधारित भाजपा पार्टी का आना बड़ा खतरा था।
टारगेटेड पॉलिटिकल कीलिंग के लिए कन्नूर जिला कुख्यात था क्योंकि गत पांच दशक में इस छोटे से जिले में ३५० से अधिक राजनैतिक हत्याएं हो चुकी हैं। इनमें से अधिकांश (३०० से अधिक) लोग संघ, विद्यार्थी परिषद, विहिंप, भाजपा, भामसं के कार्यकर्ता एवं उनके परिवार जन ही हैं। इनसे कई गुना ज्यादा जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो चुके हैं। इतनी हत्याएं, हमले होने के बाद भी यहां के लोग इस विषय में बात करने को तैयार नहीं हैं। अधिकांश लोग इसे राजनैतिक लड़ाई मान कर टाल देते हैं। वहां भय का माहौल है। असंख्य आंखें, असंख्य कान प्रत्येक गतिविधि को देख रहे हैं, सुन रहे हैं। जरा सा भी उनके विरोध में होने का शक हुआ कि धमकियों का दौर शरू हो जाता है।
केरल में लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई सरकार भी है। सत्ता माकपा और यूडीएफ +कांग्रेस के हाथों में बारी-बारी से झूलती रहती है। हिंसा की कानून सम्मत जांच भी होती है। अधिकांश हत्याओं में माकपा के कार्यकर्ता आरोपी होते हैं। सजा भी मिलती है। पर हिंसा रुक नहीं रही है। अचरज की बात यह है कि यह हिंसा किसी के लिए मुद्दा ही नहीं है। जैसे केरल में रहना है तो इस नियति को स्वीकारना ही होगा।
हमें यह भी समझना है कि केरल में माकपा की असली ताकत क्या है? आपने शायद ही किसी राजनैतिक पार्टी को होटल, मॉल, मनोरंजन पार्क, कंस्ट्रक्शन कंपनी, बैंक, अस्पताल चलाते हुए देखा व सुना होगा लेकिन केरल की राजनीति में यह हकीकत है। जिस पार्टी का यहां के अर्थतंत्र पर जितना कब्जा है वह उतनी ही बड़ी पार्टी है। माकपा इसमें बाकी सब से आगे है। केरल के अर्थतंत्र पर माकपा के कब्जे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार के बाद सर्वाधिक रोजगार देने वाली संस्था वही है। एक अनुमान के अनुसार अकेले कन्नूर जिले में माकपा ने २५००० से अधिक लोगों को रोजगार दे रखा है। इसमें पार्टी के वे ६००० कार्ड होल्डर कार्यकर्ता शामिल नहीं हैं जिनको पार्टी का काम करने के लिए ही वेतन मिलता है। इनके अतिरिक्त अकेले कन्नूर में माकपा के कब्जे वाली ७०० कोऑपरेटिव सोसाइटियां हैं। इनको सरकारी खजाने से अकूत धन मिलता है। तात्पर्य यह है कि माकपा ने अर्थतंत्र पर कब्जा बनाए रखने के लिए भी अपना पूरा ध्यान केरल पर लगा रखा है।
साथ ही केरल में हो रही राजनैतिक हत्याओं के संदर्भ में हमें ये समझने की आवश्यकता है कि आखिर यह संघर्ष किस लिए हो रहा है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की कार्यप्रणाली, विचारधारा विदेशी धरती में जन्मी होने के कारण किसी भी स्थापित विचार, सत्ता या व्यवस्था को हटा कर स्वयं को स्थापित करने की रहती है चाहे उसके लिए उन्हें खून ही क्यों न बहाना पड़े और एक बार सत्ता मिल गई तो उसे किसी भी प्रकार से बचाए रखने का हर प्रयास करते हैं। हम जानते हैं कि भारत के जनमानस में आध्यात्मिकता और भक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है। ईश्वर भक्ति, भारत और भारतीयता की आत्मा में है। इस कारण आर्थिक समानता का लोक लुभावना नारा देकर सत्ता में आए ये विचार समय के साथ अपना स्थान, व्यवस्था, सत्ता छोड़ने को मजबूर हो ही जाते हैं। राष्ट्रीयता, धार्मिकता और अनेक सामाजिक कारणों से इस पार्टी के कार्यकर्ता समय के साथ इनको छोड़-छोड़ कर जा रहे हैं। आज दुनिया भर में लगभग समाप्तप्राय कम्युनिस्ट विचार भारत में भी अपने जीवन की आखिरी सांसें ले रहा है। आज भारत के दो छोटे राज्यों में इनकी पार्टी की सरकार बची है। केरल में माकपा अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रही है और इसके लिए वह अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार है।
जहां छोटा और संकुचित स्वार्थ भरा विचार प्रभावी हो, चलन में हो, जनजीवन में व्याप्त हो वहां राष्ट्रवाद जैसा बड़ा विचार ‘सर्वे भवन्तुः सुखिनः, वसुदैव कुटुम्बकम’ जैसे भावों को स्थान बनाने के लिए संघर्ष तो करना ही पड़ेगा। राष्ट्रभक्ति का ज्वार लेकर सम्पूर्ण राष्ट्र को एक मान कर काम करने वाला राष्ट्रीय विचार, भारत की भूमि में जन्मित, पल्लवित हिन्दुत्व का महान विचार जन-जन के मन में ज्वार भरने का काम कर रहा है और साथ ही विश्वास दिला रहा है।
माकपा की सब से बड़ी बैचेनी यह है कि केरल में संघ का जनाधार बढ़ रहा है। अपने सैकड़ों कार्यकर्ताओं की हत्या, हजारों कार्यकर्ताओं के अपाहिज हो जाने के बाद भी संघ कार्य निरंतर बढ़ रहा है। सन १९९०-२००० के मध्य जहां १०० शाखाएं लगती थीं आज वहां पर ४०० शाखाएं लग रही हैं। अर्थात ४०० स्थानों पर रोज संघ के १५-२५ स्वयंसेवक एकत्र होते हैं। संघ कार्यकर्ताओं की बढ़ती संख्या खुद कार्यकर्ता आधारित माकपा के लिए एक बड़ा खतरा है। संघ की गतिविधियों को केवल सत्ता परिवर्तन की नजरों से देखने वाली माकपा को असली संकट संघ के साथ-साथ उसी अनुपात में भाजपा का बढ़ता जनाधार है। २०१० में जहां भाजपा उम्मीदवारों को सैकड़ों की संख्या में वोट मिलते थे वहीं २०१६ आते-आते भाजपा को मिले मतों की संख्या १.७५ लाख हो गई है। यानि पांच वर्षों में भाजपा ढ़ाई गुणा बढ़ गई है। अब तो नगर पालिका, ग्राम पंचायतों में उनके उम्मीदवार चुनाव भी जीत रहे हैं। और जैसे-जैसे भाजपा का वोट बढ़ रहा है माकपा द्वारा की जा रही राजनैतिक हिंसा बढ़ रही है।
राजनेताओं के लिए केरल में राजनीतिक हिंसा महज आंकड़ों का खेल हो सकती है। लेकिन यहां के लोगों के जीवन में इसके जख्म बहुत गहरे हैं। हिंसा में पति ओर एक मात्र बेटे को गंवा चुकी इन्द्राणी हो या पूरे शरीर पर जख्मों के निशान के साथ जीने को मजबूर शंकरन या फिर मारे गए चन्द्रशेखरन के बुजुर्ग माता-पिता और दो छोटे जुड़वा बच्चे…। वह अब तक यह नहीं समझ पाए कि उनका दोष क्या था। पूरे केरल में ऐसे लोगों की संख्या हजारों है। गत ११ जुलाई की रात को माकपा के गुण्डों द्वारा एक साथ १२ घरों में हमला कर आग लगाई गई जिसमें पेयीनूर का संघ कार्यालय भी शामिल था। इनमें शामिल संघ कार्यकर्ता पी.राजेश का कहना है कि माकपा का उद्देश्य संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं में दहशत का माहौल बनाना है ताकि कोई व्यक्ति संघ कार्यकर्ता के प्रति सहानुभूति दिखाने की हिम्मत ना दिखा सके। एक सवाल के जबाब में हिंसा पीड़ित शंकरन कहते हैं कि जब तक जिंदा हूं, लडूंगा। शायद शंकरन जैसे लोगों का ये जज्बा ही सत्ताधारी वाम दलों को डराता है। सच तो यह है कि जिस भी व्यक्ति, परिवार, संस्था पर हमला हो रहा है वह दोबारा उतने ही जोश के साथ संघ कार्य में जुट जाता है। क्योंकि उन सब कार्यकर्ताओं को पता है कि उनके साथ पूरा देश खड़ा हो रहा है। संघ कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अनेक व्यक्ति, संस्थाएं केरल में हो रही राजनैतिक हिंसा का अध्ययन कर रही हैं, रिपोर्ट बना रही हैं। साथ ही माकपा के इस हिंसक दौर को समाप्त करने के लिए अपने-अपने हिसाब से तैयारी कर रही हैं।
क्योंकि इतिहास बताता है कि भारत की धरती पर जन्मा राष्ट्रीय विचारों का प्रतिनिधि संघ विचार उस दुर्वा घास की तरह है जिसको चाहे जितना कुचलो, मसलो, जिस दिन उसे बारिश के पानी की कुछ बूंदें मिलेगी वह फिर से खिल उठेगी। इन राजनैतिक हत्याओं के बाद भी राष्ट्रवादी ताकतों के उभार ने इस विचार को नई ताकत दी है। एक-एक कार्यकर्ता पर हुआ अत्याचार, आक्रमण, हत्या का समाचार केरल के साथ-साथ पूरे देश को जगा रहा है। आंदोलित कर रहा है। क्योंकि संघ के ९० वर्षों का इतिहास बताता है कि संघ के लिए यह लड़ाई मात्र राजनैतिक नहीं है। संघ संपूर्ण सामाजिक परिवर्तन के लिए कार्य करता है। संघ एक वैचारिक आंदोलन है जो सहअस्तित्व में विश्वास करता है जब तक कि दूसरा विचार देश के लिए घातक ना हो। देश की आत्मा अर्थात धर्म को हानि पहुंचाने वाला विचार कार्य, संगठन, संस्था एक देशभक्त नागरिक होने के नाते संघ के किसी भी स्वयंसेवक को स्वीकार्य नहीं है। एक स्वयंसेवक के नाते, नागरिक के नाते हम देशहित में यह संघर्ष जरूरत होने पर कई जन्मों तक लड़ने को तैयार है।
केरल में हो रही राजनैतिक हिंसा का यह दौर माकपा के अस्तित्व बचाने की अंतिम लड़ाई है। आज केरल में माकपा के शुभचिंतक, बुद्धिजीवी, सर्मथक उनकी इस हिंसक वृत्ति के कारण संगठन छोड़ रहे हैं। अब माकपा के पास काम करने के लिए केवल पैसों के बल पर पोषित कार्यकर्ता रह गए हैं या फिर सत्ता के साथ जुड़े रहने वाला स्वार्थी प्रशासन। ऐसे समय में विद्यार्थी परिषद द्वारा शिक्षा परिसरों में वहां के छात्रों के लिए एक मजबूत राष्ट्रवादी विकल्प खड़ा किया जा रहा है। केरल के युवाओं को भी बढ़ते भारत-बदलते भारत के साथ खुद का बढ़ना और बदलना अच्छा लग रहा है। केरल में कभी ५-१० हजार की संख्या में होने वाली सदस्यता आज लाखों में पहुंच रही है। यह परिवर्तन केवल विद्यार्थियों में नहीं युवाओं, महिलाओं, किसानों, मजदूरों सहित आम जनों में देखने को मिल रहा है। इसका बड़ा कारण देश भर में हो रहे सकारात्मक बदलाव ही हैं। बदलाव के इस दौर में देश के विद्यार्थियों, युवाओं का सब से बड़ा विद्यार्थी संगठन अपनी भूमिका बखूबी समझता है। आज केरल में काम कर रहे राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों का सब से बड़ा मुद्दा यह है कि उनका मनोबल खड़ा कैसे रहे। उनको यह विश्वास दिलाना जरूरी है कि संघर्ष की इस घड़ी में आप अकेले नहीं, पूरा देश आपके साथ खड़ा है। इस मनोबल को बनाए रखना, मजबूती देना ही परिषद के इस अभियान का भावार्थ है। इस अभियान में जो जो भी आवश्यक होगा वह सब करना है। इस राजनैतिक हिंसा में पीड़त परिवारों का पालन-पोषण, कानूनी सहायता के साथ-साथ उनके इस त्याग और बलिदान को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिलाना, देशभर में जन जागरण चलाए रखना, केरल में संगठन कार्य को अधिक प्रभावी ढ़ंग से करना आदि आदि।
चलो केरल! अभियान की संगठनात्मक प्रासंगिकता

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