राष्ट्रद्रोही विचारों की पराजय निश्चित

यह सम्पादकीय जब तक आप तक पहुंचेगा तब तक तीसरे या चौथे चरण का मतदान हो चुका होगा। भारत की सत्रहवीं लोकसभा के लिए प्रचार भी आधा रास्ता तय कर चुका होगा। हर राजनीतिक दल अपने प्रतिस्पर्धी की कमोबेशी उजागर कर चुका है। अब जनता परिणामों के प्रति उत्कंठा रखती है। ये परिणाम कैसे होंगे? कौन जीतेगा? अगली लोकसभा में बलाबल कैसे होगा? इस बारे में चर्चा धीरे-धीरे गर्म होती जाएगी। चुनाव घोषित होने के कुछ दिन पूर्व और चुनाव प्रचार के दौरान होने वाली चर्चाओं से पता चलता है कि किसी दल के प्रति सहानुभूति रखने वाले प्रत्यक्ष मतदान तक उस दल के और करीब चले जाते हैं। चुनाव के बारे में सत्तारूढ़ भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए सत्ता के अधिक करीब पहुंचता दिख रहा है।

देश सुरक्षित हो तो हर तरह का विकास किया जा सकता है। भाजपा ने इन दोनों बातों को अपने कार्यकाल में अधिक महत्व दिया है। बालाकोट और उरी की घटनाओं पर भारत सरकार ने पाकिस्तान को करारा जवाब दिया है। भाजपा की इस कार्रवाई से भारतीय जनमानस में विश्वास का एक माहौल पैदा हो गया है। भारत की इस सफलता पर देश का हर नागरिक गर्व महसूस कर रहा है, लेकिन कांग्रेस को देश का विकास और सफलता देखकर दुख होता नजर आ रहा है। यह बात भारतीय नागरिकों के ध्यान में आ चुकी है।

अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण कांग्रेस का मूल स्वभाव है। लेकिन इसकी भी कोई सीमा होनी चाहिए। कांग्रेस ने राष्ट्र-विवेक जागृत रख अपना चुनावी घोषणा-पत्र बनाया हो, ऐसा कहीं नहीं लगता। देश के विरोध में राष्ट्रद्रोही गतिविधियां करने वालों को दंडित करने के लिए कानून बने हैं। ऐसे देशद्रोही-विरोधी कानूनों को ही रद्द करने का कांग्रेस ने आश्वासन दिया है। यह आश्वासन भीषण है। यह राष्ट्र सुरक्षा की उपेक्षा है। देश के हर गरीब को 72 हजार रु. सालाना देने की न्याय योजना की कांग्रेस ने घोषणा की है। यदि इस योजना को साकार करना हो तो सरकारी कोष पर 3600 करोड़ रु. का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। इतनी विशाल राशि कहां से आएगी? सरकारी कोष पर भारी दबाव आने का मतलब यह है कि शेष विकास योजनाओं को रोक दिया जाएगा। इसकी आंच भारतीय समाज के सभी स्तरों के लोगों को झुलसाएगी। ये और ऐसे अनेक आश्वासन कांग्रेस के चुनावी घोषणा-पत्र में हैं। कांग्रेस की इन घोषणाओं पर भारतीय जनमानस गंभीरता से विचार कर रहा है। ऐसे समय में राहुल गांधी का सुप्रीम कोर्ट को दिए गए शपथ पत्र में यह लिखना कि ‘चौकिदार चोर है’ यह उन्होंने केवल चुनाव प्रचार के जोश में कहा था। उनकी मंशा पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित करता है। उनकी इस मंशा और जोश ने भारतीय मतदाताओं के मन में राहुल गांधी की नीति पर प्रश्न खड़ा किया है। भारतीय जनमानस कांग्रेस की इस तरह की धुप्पल में न आकर राष्ट्रीय विचारों से प्रेरित होकर मतदान करने का मन बना चुका है। कांग्रेस के चुनावी घोषणा-पत्र का खोखलापन उसे गहरी खाई में ढकेल देगा, यह निश्चित जानिए।

भाजपा को पराजित करने के इरादे से लोकसभा चुनाव के पूर्व ही भाजपा-विरोधी दलों ने महागठबंधन बनाने के लिए आपस में चर्चा आरंभ की थी। इस महागठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस को सौंपने के बुनियादी मुद्दे को लेकर ही आपस में टकराव होने लगा। बसपा और सपा कांग्रेस के साथ रहना नहीं चाहते थे। ममता बैनर्जी को किसी का नेतृत्व मान्य नहीं था। दिल्ली में कांग्रेस ने केजरीवाल के साथ समझौता नहीं किया। अंत में भाजपा-विरोधी महागठबंधन कागज पर ही रह गया। 2019 का चुनाव केवल मोदी और राहुल के बीच महज स्पर्धा का मुद्दा नहीं है; बल्कि क्षेत्रीय क्षत्रप भी अपना प्रभाव खोना नहीं चाहते। इसका परिणाम भी कांग्रेस को भुगतना होगा।

कांग्रेस के लिए कोई रास्ता नहीं बचा था, इसलिए उसने प्रियंका गांधी को प्रचार में उतारा। लिहाजा, प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने का यह पहला अवसर नहीं है, पिछले 13-14 वर्षों में चुनावों में वे कांग्रेस का प्रचार करती रही हैं। उनके हर प्रचार में कांग्रेस निचली पायदान पर खिसकती चली गई। जो कुछ कसर बाकी है क्या वह अमेठी में राहुल के पराजय से पूरी होगी? यह प्रश्न कांग्रेस के मन में भी होगा। इसी कारण कांग्रेस ने राहुल के लिए केरल के वायनाड के दूसरे निर्वाचन क्षेत्र को चुना है। चुनाव में सभी मित्रों और समविचारी लोगों को साथ लेकर चलना पड़ता है। कांग्रेस कुछ सीटों पर समविचारी दलों के विरोध में ही खम ठोंककर खड़ी है, जबकि समविचारी दल कांग्रेस के विरोध में अप्रत्यक्ष रूप से काम कर रहे हैं। यह चित्र कांग्रेस पराजय के निकट होने का संकेत दे रहा है।

चुनाव के पूर्व जनमानस का अंदाजा लगाना वैसे बहुत संवेदनशील और मुश्किल मामला होता है। किसी एक दल को भरपूर बहुमत मिलने का अनुमान लगाना तुलनात्मक रूप से आसान होता है। भारतीय जनमानस चुनाव को उत्सव की तरह लेता है। चुनाव और उसकी राजनीति के प्रति आकर्षण या यूं कहें तो दीवानापन भारतीय जनमानस में होता है। लोकल ट्रेन में, कार्यालयों में भोजनावकाश के दौरान, गांव-चौराहों पर अथवा विश्राम के दौरान राजनीति के बारे में गपशप होती रहती है। इन चर्चाओं का विश्लेषण करें तो चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। पिछले अनेक चुनावों में इस तरह के अनुमान लगभग सही निकले हैं। अब तक का अनुमान गलत भी हो सकता है, क्योंकि अभी कुछ चरणों का मतदान बाकी है।

ऐन मौके पर कोई मुद्दा उपस्थित हो जाए तो उसके मतदान पर असर से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अब तक का अनुभव है कि जो दल या गठबंधन चुनाव पूर्व काल में जनता का विश्वासपात्र होता है, वह प्रत्यक्ष चुनाव में और आगे निकल जाता है। हमारा अनुमान केवल दिशा का संकेत करता है, इसलिए प्रत्यक्ष परिणामों की राह देखना ही बेहतर है।

 

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  1. Anonymous

    very good

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