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हरियाणा के जर्र-जर्रे ने लिखी है यह बलिदान गाथा

हरियाणा के जर्र-जर्रे ने लिखी है यह बलिदान गाथा

by हिंदी विवेक
in सामाजिक
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आज देश 1857 के महासमर की 162 वीं वर्षगांठ मना रहा है। पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े भारत का यह पहला सामूहिक और योजनाबद्ध प्रयास था, जब उसने अंग्रेजों की सत्‍ता को खुली चुनौती दी। आजादी की इस पहली लड़ाई के योद्धा ब्रिटिश हुकूमत से तो मुकाबला कर गए, लेकिन उसके बाद जयचंदी इतिहासकारों से हार गए। इन इतिहासकारों में से कुछ ने इस महासमर को सैनिक विद्रोह तो कुछ ने रजवाड़ों का आक्रोश बता कर इसकी महिमा को खंडित करने का कुत्‍सित प्रयास किया। खासकर जब हरियाणा के संदर्भ में चर्चा होती है तो तथाकथित इतिहासकारों की लेखनी कुंद दिखाई पड़ती है।

इसके बाजजूद कुछ शोधार्थियों ने उन तथ्‍यों को दुनिया के सामने लाने का प्रयास किया जो प्रथम स्वातंत्र्य समर के इतिहास में हरियाणा को गौरवान्‍वित कर रहे हैं। इन शोधार्थियों के मुताबिक हरियाणा का कोई भी हिस्‍सा ऐसा नहीं था, जो इस क्रांति में शामिल न हुआ हो। वीरों की धरती मानी जाने वाले इस प्रान्त से हर जाति, वर्ग के लोगों ने प्रथम स्‍वाधीनता संग्राम में अपनी आहुति दी।

इतिहासकार डॉ. सतीश चंद्र मित्‍तल इस घटना को युगांतकारी बताते हुए लिखते हैं कि इसमें करीब 3 लाख नागरिकों और सैनिकों ने बलिदान दिया। हजारों गांवों को मिट्टी का ढेर बना दिया गया तथा नगरों को विनष्‍ट कर दिया गया। भारत के लोगों ने धर्म रक्षा और स्‍वदेश प्रेम का अद्भुत परिचय देकर न केवल ईसाईकरण की प्रक्रिया को रोका, बल्‍कि अंग्रेजों का भारत से निष्‍कासन का मार्ग भी सुनिश्‍चित किया।

अनेक इतिहासकारों ने हरियाणा में इस प्रथम स्‍वातंत्र्य समर की शुरुआत अंबाला छावनी से मानी है। इतिहास के प्रोफेसर यूवी सिंह के मुताबिक अंबाला छावनी उत्‍तर भारत का सबसे महत्‍वपूर्ण स्‍थान था। यहां न केवल सैनिक छावनी थी, बल्‍कि यहां उत्‍तर भारत का प्रशिक्षण केंद्र भी था। इनफील्‍ड राइफलों की लांचिंग के बाद ब्रिटिश सेना यहीं उसके प्रयोग का प्रशिक्षण देती थी। गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों के खोल को मुंह से छीलने की बाध्‍यता पर यहां सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था। प्रो. यूवी सिंह बताते हैं इस क्रांति को कुचलने के लिए अत्‍याचारी सत्‍ता ने 190 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, लेकिन क्रूरता की हदों को लांघते हुए नेशनल अर्काइव में इनमें से मात्र 12 के नामों का ही उल्‍लेख किया गया। प्रो यूवी सिंह बताते हैं कि 1857 के स्‍वतंत्रता आंदोलन में शहीद होने वाले सैनिक अधिकतर किसान घरों से थे।

अम्बाला जिले में एक छोटी रियासत गढ़ी कोताहा भी थी। यहां के नवाब ने लोगों से मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की। जगाधरी में भी स्वभाविक देशभक्ति जागी और लोगों ने विद्रोह कर दिया। एक अंग्रेजी अफसर ने बड़े दुखी होकर लिखा, ‘व्यापारियों को अंग्रेजी राज ने समृद्ध बनाने में बड़ी मदद की थी, पर जगाधरी के व्यापारी भी अंग्रेजी राज के विरुद्ध हो गए।’

कुरुक्षेत्र में इस दौरान 135 नागरिक शहीद हो गए। यहां 62 क्रांतिकारियों को लुटेरे बताकर मार दिया। थानेसर के गांवों में नंबरदारों का बड़ा प्रभाव था। उनके पास हथियार भी थे। उन्होंने नगाड़े बजाकर और झंडे उठाकर क्रांतिकारियों का साथ देने के लिए गांव वालों को आंदोलित किया। यहां प्रशासन ने क्रांतिकारियों को पकड़ कर पेड़ों से लटका दिया।

पानीपत और करनाल जीटी रोड पर स्‍थित होने के कारण अंग्रेजों के लिए विशेष महत्‍व रखते थे। पानीपत में अंग्रेजों ने छावनी भी बना रखी थी। यहां अली कलंदर की दरगाह क्रांतिकारियों की गतिविधियों का मुख्‍य केंद्र बनी। इस जिलों के बड़े – बड़े गांव विद्रोह के केंद्र बन गए। इनमें बल्ला, जलमाणा, असंध, छात्तर, उरलाना खुर्द आदि प्रमुख थे।

आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने 13 जुलाई को करनाल जिले के बल्ला गांव पर हमला कर दिया। यहां सैकड़ों जाटों ने चौधरी रामलाल के नेतृत्व में कप्तान ह्यूज के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिए। अंग्रेजी सेना ने बल्ला गांव पर दोबारा हमला किया। जाट सैनिक एक बड़े मकान में मोर्चा बनाकर लड़ते रहे। अंग्रेजों ने तोपें लगाकर यह भवन गिरा दिया तो बागी सैनिक खुले मैदान में आ डटे। घमासान युद्ध में 100 भारतीय शहीद हो गए। इसके बाद स्‍थानीय लोग निकटवर्ती गांव जलमाणा में इकट्ठे हो गए।

अंग्रेजों ने लेफ्टिनेंट पियरसे को क्रांतिकारियों को दबाने के लिए भेजा, लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ी। उसने अम्बाला और पानीपत से सैनिक सहायता मांगी, परन्तु वहां भी क्रांति भड़क चुकी थी, जिस कारण उसे कोई मदद नहीं मिल सकी। करनाल जिले के असंध में अंग्रेज अफसर पियर्सन के नेतृत्‍व वाली फौज को खदेड़ दिया गया। इस इलाके में विद्रोह को बढ़ता देख अंग्रेजी कप्तान मैक्लिन को भेजा गया। उसने 16 जुलाई से तेज हमले शुरू कर दिए और असंध को जला कर खाक कर दिया। जलमाणा और छातर गांव की भी दुर्दशा कर दी गई।

उधर, दिल्ली पर कब्‍जा करने के बाद ब्रिटिश सेना जीटी रोड पर सोनीपत के पास डेरा डाले हुए थी। सोनीपत के आसपास के लिबासपुर, बहालगढ़, खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर सराय आदि गांवों के लोगों ने ब्रिटिश सेना को खदेड़ने की योजना बनाई। लिबासपुर गांव में उदमीराम ने ब्रिटिश सेना को रोकने के लिए 22 युवकों का दल बनाया। उन्होंने वीरतापूर्वक अंग्रेज सैनिकों के दिल्ली-पानीपत के बीच आने-जाने के रास्ते को रोक दिया। संघर्ष में अनेक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेजी सेना ने योजना बनाकर लिबासपुर गांव को घेर लिया। इस लड़ाई  में अनेक ग्रामीण मारे गए। गांव को जी भर कर लूटा गया। अनेक लोगों को जीटी रोड पर पत्थर के रोलर से कुचल दिया गया। वीर उदमीराम को पेड़ से बांध कर उनके हाथों में कीलें गाड़ दी। वह वीर 35 दिन तक तड़प कर शहीद हो गया। बड़ी संख्‍या में लोगों को गांव छोड़ने पड़े।

इस जिले का कुंडली गांव भी 1857 की अनेक यादों को संजोए हुए हैं। यहां के लोगों ने जीटी रोड से आने-जाने वाले अंग्रेजों को कभी नहीं बख्‍शा। ग्रामीणों को सबक सिखाने के लिए एक अंग्रेजी सेना ने गांव को घेर लिया और खूब लूटपाट की। उनके पशुओं को पकड़ अलीपुर में नीलाम कर दिया। 11 लोगों को सजा दी। इनमें से 8 को एक-एक वर्ष का कारावास तथा सुरता राम, बाजा और जवाहरा राम को काला पानी की सजा दी। ये तीनों कभी वापस नहीं आए। ग्रामीणों की जमीनें भी छीन ली गई।

झज्‍जर में उन दिनों नवाब अब्‍दुर्रहमान का शासन था, लेकिन जनता पर असली पकड़ खाप पंचायतों, सनातन धर्म सभा और जैन सभाओं की थी। अंग्रेजों के खिलाफ जहां नवाब अब्‍दुर्रहमान की सेना मोर्चा संभाले हुए थी, वहीं खाप पंचायतों और धर्म सभाओं के आह्वान पर जनता भी लामबंद हो चुकी थी। 14 मई 1857 को दिल्‍ली का एजेंट चार्ल्‍स मैटकाफ झज्‍जर आया तो रात को ही जनता की नारेबाजी शुरू हो गई। नवाब अब्‍दुर्रहमान ने चार्ल्‍स मैटकाफ को संदेश भिजवाया कि वे जनाक्रोश के चलते उनकी यहां ठहरने की व्‍यवस्‍था नहीं करवा पाएंगे। शोधार्थी डॉ. दयानंद कादियान बताते हैं कि झज्जर रियासत के नवाब अब्‍दुर्रहमान को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। क्रांति में इस जिले के 88 लोग शहीद हुए और अंग्रेजों ने 2 गांव जला दिए।

रोहतक जिले के लोगों की बहादुरी को अंग्रेज कभी नहीं भुला पाएंगे। 1857 में यहां के किसानों, दस्‍ताकारों और मजदूरों ने मिलकर ब्रिटिश अधिकारियों को नाको चने चबवाए। 24 मई 1857 को यहां अंग्रेजों के दफ्तर, बंगले, अदालतें और जेलें जला दीं। यहां के जाट, रांघड़ों और राजपूतों के सामने बंगाल सिविल सेवा के कलेक्‍टर जॉन आदम लोच के नेतृत्‍व वाली ब्रिटिश सेना टिक नहीं पाई। यहां के जाटों और रांघड़ों ने बकायदा अपनी हुकूमत का ऐलान किया और यहां पर खाप का झंडा फहराया गया। जॉन आदम लोच ने गोहाना भाग कर जान बचाई। लोगों ने महम और मदीना पर भी कब्जा कर लिया। इस क्रांति के परिणामस्वरूप जिले से अंग्रेजी राज खत्म हो चुका था।

रोहतक का छिन जाना अंग्रेजों की दिल्ली की लड़ाई में विशेष महत्व रखता था। इसलिए 8 अगस्त 1857 को ब्रिगेडियर निकल्सन को भारी सेना के साथ रोहतक भेजा गया। अंग्रेजी सेना ने शहर पर हमला कर दिया। स्‍थानीय लोगों ने शहर में बारूद बनाने की बड़ी फैक्टरी लगा रखी थी। इसमें अचानक आग लगने से भारी विस्फोट हो गया। बताया जाता है इस विस्फोट से करीब 500 लोग जलकर मर गए, परन्तु इसके बाद भी स्थानीय लोग वीरता से अंग्रेजों के हमले का मुकाबला करते थे। युद्ध में अनेक अंग्रेज सैनिक मार गिराए गए और अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा।

लेफ्टिनेंट मैकफर्सन ने 12 अगस्त को लाहौर के मुख्य आयुक्त को लिखा, ‘पता चला है कि रोहतक जिले के बागी बादशाह की सहायता के लिए दिल्ली गए थे। अब वे वापिस रोहतक आ गए हैं। वे हिसार की तरफ बढ़ने की सोच रहे हैं।’ लाहौर के सेना मुख्यालय ने निर्णय लिया कि हांसी, हिसार और सिरसा को काबू करने के लिए लाहौर से अंग्रेजी फौज भेजी गई।

हिसार, हांसी और सिरसा में अंग्रेजों की छावनियां थीं। यहां मौजूद सैनिक टुकड़ियां भी बगावत कर दिल्ली की तरफ बढ़ चलीं। 29 मई को भारतीय सैनिकों ने बड़े पैमाने पर बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। अंग्रेजी मेजर स्टाफ और अन्य अधिकारी व कर्मचारी हांसी छोड़ कर भाग निकले। जो नहीं भाग सके, उन्हें स्‍थानीय लोगों ने मार डाला।

हांसी में उस समय लाला हुक्म चंद जैन कानूनगो थे। शहर में ही एक मुसलमान जमींदार मिर्जा मुनीर बैग उनके अच्छे मित्र थे। दोनों ने मिल कर हिन्दू और मुसलमानों का नेतृत्व किया। सरकार के खिलाफ क्रांति करने के आरोप में इन दोनों को 19 जनवरी 1858 लाला हुक्म चंद जैन की हवेली के सामने पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी। मरने के बाद भी दोनों को अपमानित करने के लिए अंग्रेजों ने मानवता की सभी हदें लांघ दी। परंपरा के विरुद्ध हिन्‍दू हुक्म चंद के शव को दफनाया गया, जबकि मुस्‍लिम मिर्जा मुनीर बेग की लाश को जला दिया।

यहां गांव के विद्रोहियों व सैनिकों को पकड़ कर हांसी के बीच वाली सड़क पर रोड रोलर से कुचल दिया गया। सड़क शहीदों के खून से सनी यह सड़क आज भी लाल सड़क के नाम से जानी जाती है। इसी इलाके में बिरड़दास स्वामी को तोप से बांध कर उड़ाया गया।

हांसी के क्षेत्र से निपट कर 8 जुलाई को जनरल वानकोर्टलैंड ने हिसार की तरफ कूच किया। रास्‍ते में भट्टी और रांघड़ों ने उसका डटकर मुकाबला किया। इस कारण उसने रास्‍ता बदल कर फतेहाबाद की तरफ  से जाना ठीक समझा। वहां स्‍थानीय लोगों ने उसका पुरजोर मुकाबला किया। गांव के गांव अंग्रेजों से लड़ते रहे और कुर्बानियां देते रहे, परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी।

हिसार में 29 मई को हरियाणा लाइट इन्फैन्ट्री और दादरी के घुड़सवारों ने बगावत की। शाहनूर खां और राजन बेग उनके नेता थे। बागी सेना हिसार के किले में जा घुसी। इस दौरान अंग्रेज कमांडिग अफसर मारा गया। स्‍थानीय लोग भारतीय सैनिकों की मदद के लिए उठ खड़े हुए। कलेक्टर को भी कचहरी में ही खत्म कर दिया गया। जेल पर हमला कर 40 कैदी छुड़ा लिए। यह काम सरकारी चौकीदारों, मालियों और नौकरों ने ही कर दिया। हिसार के तहसीलदार की उसके चपरासी ने हत्‍या कर दी।

अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए बागियों ने किले के मुख्य द्वार नागौरी गेट पर हमला किया। कुल्हाड़ियों से वे कीलों वाले भारी भरकम दरवाजों को काटने लगे। अंग्रेजी सेना ने उन पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी। बागियों ने डटकर मुकाबला किया। इसके बाद क्रांतिकारी नहर का पुल पार कर डोगरा मोहल्ले में जा डटे और वहां से किले पर गोलीबारी करते रहे। इस लड़ाई में लगभग 500 स्‍थानीय लोग मारे गए। इस लड़ाई बाद अंग्रेजों ने हिसार जिले पर दोबारा कब्‍जा किया और 133 बहादुर देशभक्तों को फांसी की सजा दे दी गई।

भिवानी जिले के तोशाम और उसके आसपास के कई गांवों ने 29 मई के दिन अंग्रेजी प्रशासन पर हमला बोल दिया। इतिहासकार लिखते हैं कि इन गांवों में हिन्दू, मुसलमान, जाट, रांघड़, ब्राह्मण, धानक, चमार, तेली और बनिए सभी विद्रोह में शामिल थे। दादरी के नवाबों के सिपाही और बंगाल आर्मी के बागी सिपाही भी विद्रोह में शामिल हुए। हाजमपुर, भाटोल रांघडान, खरड़ अलीपुर और मंगाली को भी जला कर खाक कर डाला गया।

रेवाड़ी में राव तुलाराम ने विद्रोह का सूत्रपात किया। उन्‍होंने 17 मई को करीब पांच हजार सैनिक लेकर तहसील पर हमला कर सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया। दिल्ली के बादशाह की तरफ से अपने को यहां का शासक घोषित कर दिया। अब रेवाड़ी, भोड़ा और शाहजहांपुर के गांव उसके अधीन आ गए थे। रेवाड़ी के पास रामपुरा के किले में राव तुलाराम ने अपनी राजधानी बना ली।

आजादी की ये आग 13 मई को गुरुग्राम पहुंची तो इसने इतिहास की एक भीषण त्रासदी को जन्म दिया। यहां 50 से भी ज्यादा लोगों को या तो गोली मार दी गई, या फांसी पर लटका दिया गया। इस  प्रकार यहां से करीब 500 लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे। गुरुग्राम शहर में आज जहां कमला नेहरू पार्क है, 1857 में वहां पीपल आदि के काफी पेड़ हुआ करते थे। आजादी के दीवाने यही बैठकर क्रांति की योजना बनाते थे। अंग्रेजों ने यहां 9 लोगों को पेड़ों से लटका कर सामूहिक फांसी दी थी।

गुरुग्राम में उन दिनों विलियम फोर्ड कलेक्‍टर था। 11 मई को यहां विद्रोही सैनिकों ने दिल्‍ली से गुरुग्राम की ओर रुख किया। रास्ते में बिजवासन गांव के पास अंग्रेजी सेना और क्रांतिकारियों में टक्कर हो गई। अंग्रेज सेना भाग खड़ी हुई। अंग्रेज कलेक्टर गुरुग्राम छोड़ कर भाग निकला। जान बचाने के लिए वह भोंडसी और पलवल होता हुआ मथुरा की तरफ निकल गया।

मेवात के अनेक गांवों के मेव बगावत में शामिल हो गए। शम्सुद्दीन की फांसी की याद भी उन्हें ताजा हो गई। अब लोगों को विश्वास हो गया था कि अंग्रेजी राज को खत्म किया जा सकता है। मेवात के चौधरियों और नेताओं ने दिल्ली के बादशाह को अपना शासक स्वीकार कर लिया और ब्रिटिश सेना को चुनौती दी। यहां के गांव नंगली में हुई लड़ाई में मेवों ने अंग्रेज सैन्‍य अधिकारी मैक्सन को मारा गिराया। 

होडल और हथीन के कुछ गांव विद्रोह में शामिल नहीं हुए। इससे गुस्‍साए सौरोत जाटों ने उन गांवों पर हमला कर दिया। सेवली के पठानों और मेवों ने भी हथीन पर धावा बोल दिया और मई के अंत तक जिले का यमुना नदी तक का क्षेत्र अंग्रेजों से मुक्‍त करवा लिया गया।

वर्तमान फरीदाबाद जिले की रियासत बल्लभगढ़ में उन दिनों का राजा नाहर सिंह का शासन था। नाहर सिंह के अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध थे, परन्तु उन्हें कम्पनी राज द्वारा अपनी रियासत के गांव छीन लेना अच्छा नहीं लगता था। 11 मई को जब विद्रोही सेनाओं ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया, तो राजा नाहर सिंह ने भी बगावत कर डाली। घुड़सवारों और सैनिकों की एक टुकड़ी दिल्ली भेज दी। उन्‍होंने जल्द ही पलवल, होडल और फतेहपुर के परगनों पर कब्जा कर लिया। उसकी नाकाबंदी इतनी मजबूत थी कि अंग्रेजी सेना दक्षिण की ओर से दिल्ली पर आक्रमण नहीं कर पाई। कर्नल लॉरेंस ने गवर्नर जनरल को लिखे पत्र में राजा नाहर सिंह की सूझबूझ, शूरवीरता और प्रबंधन क्षमता का विशेष वर्णन किया है। बाद में जनरल शावर के नेतृत्‍व में राजा को गिरफ्तार कर उसे दिल्ली लाया गया और मुकद्दमे का नाटक कर उन्‍हें राजद्रोह के आरोप में फांसी दे दी गई।

प्रो. यूवी सिंह का कहना है कि सैनिकों की धार्मिक भावनाओं से खेलना ब्रिटिश हुकूमत के लिए भारी पड़ा। वे कहते हैं कि अम्बाला में 1857 की क्रांति से पहले ही अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों में आग लगनी शुरू हो गई थी। निगरानी के लिए अंग्रेज अधिकारी पहरा भी लगाते थे, लेकिन उन्‍हें कुछ भी पता नहीं चलता था। उनका मानना है कि आक्रोशित सैनिक ही यह काम करते थे। वे बताते हैं कि लांस नायक हरबंस सिंह ने चर्बी वाले कारतूस तो प्रयोग कर लिए, लेकिन बाद में अंग्रेज के बंगले में आग लगा दी।

सभी क्षेत्रों से सभी वर्गों के इस प्रकार ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एकजुट होने के पीछे अनेक विद्वान आर्थिक कारण बताते हैं। उनका कहना है ब्रिटिश सरकार ने जिस प्रकार से कृषक वर्ग को तबाही के कगार पर पहुंचाया, उससे खेतीबाड़ी पर आश्रित दूसरे तबके भी कमजोर पड़ गए। बुनकर, कुम्हार, लुहार, खाती, चमार आदि पर अंग्रेजी रणनीति भारी पड़ी। ये सभी जजमानी व्यवस्था के तहत ही अपनी आजीविका कमा रहे थे। इन सभी का ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लामबंद होने का एक यह भी कारण था। इसके साथ ही आक्रोश का प्रमुख कारण भारत राष्‍ट्र की अंतर्चेतना भी है, जो कभी भी अपने स्‍व पर आंच नहीं आने देती। भारत की यह चेतना उसके जनमानस पर ऐसे प्रत्‍यक्ष रूप से प्रलक्षित होती है।

——-

दिनेश कुमार (लेखक एवं संपादक, हरियाणा राज्‍य उच्‍च शिक्षा परिषद)

 

प्रथम स्वातंत्र्य समर की 162 वीं वर्षगांठ (10 मई) पर विशेष

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