मनोदैहिक विकारों का निदान (diagnosis) मुश्किल है, क्योंकि इसके लक्षण अन्य रोगों के लक्षणों से काफी समानता रखते हैं .
उदाहरण के तौर पर, अगर किसी के पेट में दर्द हो, तो हम उसे पाचन तंत्र की समस्या के रूप में देख सकते हैं . इसी तरह अगर किसी को पसीना अधिक निकल रहा हो, तो हम इसे उच्च रक्तचाप की समस्या के तौर पर देख सकते हैं . हममें से ज्यादातर लोग इस बारे में सोच भी नहीं सकते कि इस तरह की शारीरिक समस्याओं के लिए मनोवैज्ञानिक कारक उत्तरदायी हो सकते हैं . हालांकि, मनोदैहिक विकारों की एक विशेषता तंत्रिका तंत्र की कार्यप्रणाली में उत्पन्न असामान्यता के फलस्वरूप शारीरिक कार्यप्रणाली में होने वाली गिरावट है .
मनोदैहिक विकारों का वर्गीकरण
(Classification of Psychosomatic Diseases)
1. रूपांतरण सिंड्रोम (Conversion Syndrome) : शारीरिक अंगों और ऊतकों में बिना किसी विकृति के उत्पन्न तंत्रिकागत समस्याएं (neurological problems), जो ऊपरी तौर पर सामान्य शारीरिक समस्या प्रतीत होती हैं.
जैसे : उन्मत पक्षाघात, उल्टी, मनोवैज्ञानिक बहरापन, दर्दनाक उत्तेजनाएं आदि .
2. कार्यात्मक मनोदैहिक सिंड्रोम (Functional Psychosomatic Syndrome) : जब न्यूरॉन में किसी तरह की समस्या उत्पन्न होने पर शारीरिक अंगों की कार्यप्रणाली में बाधा उत्पन्न होती है .
जैसे : माइग्रेन, अपस्मार आदि .
3. कार्बनिक मनोदैहिक विकार ( Carbonic Psychosomatic Disease) : जीवन के उन कड़वे अनुभवों की प्राथमिक शारीरिक प्रतिक्रिया, जिन्हें अभिव्यक्त होने का अवसर न मिला हो अथवा वे दमित की गयी हों .
जैसे : पेप्टिक अल्सर, आर्थराइटिस, ब्रोन्कियल अस्थमा, उच्च रक्तचाप आदि .
4. मनोवैज्ञानिक विकार (Psychological Disease) : व्यक्ति की दमित इच्छाओं की भावनात्मक अभिव्यक्ति .
जैसे : शराब / नशीली दवाओं का सेवन, खाने की प्रवृत्ति, मनोग्रसित – बाध्यता आदि .

* मनोदैहिक विकार के कारण
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस तरह के विकारों के सात मुख्य कारण बताये गये हैं :
सशर्त लाभ की संभावना : आमतौर पर बच्चों में यह समस्या अधिक देखने को मिलती है . जब उन्हें स्कूल नहीं जाना होता या फिर किसी कार्य को करने का मन नहीं होता, तो अक्सर उन्हें पेट में दर्द, बुखार, सर्दी – जुकाम आदि समस्याएं हो जाती हैं . कई बार बड़े लोगों में भी, जब उन्हें उनकी मर्जी के विरूद्ध कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है, तो ऐसी समस्याएं देखने को मिलती हैं . इसके कारण वे उस अप्रिय कार्य से छुटकारा पा लेते हैं .
आंतरिक संघर्ष : जब इंसान को दो विपरीत इच्छाओं को साथ लेकर चलना होता है, जिनमें से दोनों व्यक्ति के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण होते हैं . जैसे : मान लें किसी व्यक्ति को कोई विशेष दिन ऑफिस जाने का मन न हो, लेकिन उसका उच्चाधिकारी उसी दिन निरीक्षण के लिए आ रहा हो . ऐसे में उसे न चाहते हुए भी जाना पड़ता है .
सुझाव : जब किसी में बच्चे को अक्सर यह कहा जाता है कि वह मूर्ख, बीमार या कमजोर था, तो इसका प्रभाव वयस्क होने पर भी उसके व्यवहारों में परिलक्षित होने लगता है .
आलौकिक शक्तियों पर अधिक विश्वास करना : प्रत्येक व्यक्ति जिस परिवार या समाज का हिस्सा होता है, उसके अपने कुछ सुनिश्चित नियम या दायरे होते हैं, जिनके अनुसार उनका व्यवहार तय होता है . जो लोग अधिक भाग्यवादी होते हैं और अपने हर छोटे – बड़े व्यवहार को भाग्य अथवा ईश्वर की मर्जी मानते हैं, उनमें भी मनोदैहिक लक्षणों के विकसित होने की संभावना अधिक होती है .
आत्म सुझाव : जो लोग लगातार ऐसा सोचते हैं कि ” मैं बीमार हूं “, ” मेरा पाचन ठीक नहीं रहता ” आदि तो उनके शरीर में वास्तव में ये समस्याएं हो सकती हैं .
कल्पनाओं में जीना : जो लोग ज्यादातर समय कल्पनाओं में जीते हैं . अपने सामर्थ्य अथवा क्षमता की तुलना में अप्राप्य लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं .
मनोवैज्ञानिक आघात : आमतौर पर व्यक्ति के बचपन के कड़वे अनुभव, जिनका प्रभाव वयस्क होने पर भी उसके व्यवहारों में देखने को मिलता है .
जैसे : प्रियजन की मृत्यु या उनसे अलगाव, यौन शोषण, आकस्मिक स्थानांतरण आदि .
उपरोक्त कारणों के विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि मनोदैहिक विकार वैसे मनोवैज्ञानिक अनुभवों का परिणाम होते हैं, जिनका प्रभाव व्यक्ति के तंत्रिका तंत्र पर पङता है . फलतः वे उसके शारीरिक व्यवहारों में दिखायी देने लगते हैं .