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शारीरिक समस्याओं के कारक, मनोदैहिक विकार

by रचना प्रियदर्शिनी
in स्वास्थ्य
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इंट्रो: मनोदैहिक विकारों को लेकर सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि लोग उन्हें दूसरी सामान्य बीमारी समझ लेते हैं. इसलिए इनका बहुत सूक्ष्मता से निरीक्षण किये जाने की आवश्यकता है. कभी-कभी लोग इन्हें मरीज का सामान्य व्यवहार तक मान लेते हैं इसलिए भी इनके उपचार को लेकर समस्याएं आती हैं.

मनोदैहिक विकारों का निदान (diagnosis) मुश्किल है, क्योंकि इसके लक्षण अन्य रोगों के लक्षणों से काफी समानता रखते हैं .
उदाहरण के तौर पर, अगर किसी के पेट में दर्द हो, तो हम उसे पाचन तंत्र की समस्या के रूप में देख सकते हैं . इसी तरह अगर किसी को पसीना अधिक निकल रहा हो, तो हम इसे उच्च रक्तचाप की समस्या के तौर पर देख सकते हैं . हममें से ज्यादातर लोग इस बारे में सोच भी नहीं सकते कि इस तरह की शारीरिक समस्याओं के लिए मनोवैज्ञानिक कारक उत्तरदायी हो सकते हैं . हालांकि, मनोदैहिक विकारों की एक विशेषता तंत्रिका तंत्र की कार्यप्रणाली में उत्पन्न असामान्यता के फलस्वरूप शारीरिक कार्यप्रणाली में होने वाली गिरावट है .

मनोदैहिक विकारों का वर्गीकरण
(Classification of Psychosomatic Diseases)

1. रूपांतरण सिंड्रोम (Conversion Syndrome) : शारीरिक अंगों और ऊतकों में बिना किसी विकृति के उत्पन्न तंत्रिकागत समस्याएं (neurological problems), जो ऊपरी तौर पर सामान्य शारीरिक समस्या प्रतीत होती हैं.
जैसे : उन्मत पक्षाघात, उल्टी, मनोवैज्ञानिक बहरापन, दर्दनाक उत्तेजनाएं आदि .

2. कार्यात्मक मनोदैहिक सिंड्रोम (Functional ​ Psychosomatic Syndrome) : जब न्यूरॉन में किसी तरह की समस्या उत्पन्न होने पर शारीरिक अंगों की कार्यप्रणाली में बाधा उत्पन्न होती है .
जैसे : माइग्रेन, अपस्मार आदि .

3. कार्बनिक मनोदैहिक विकार ( Carbonic Psychosomatic Disease) : जीवन के उन कड़वे अनुभवों की प्राथमिक शारीरिक प्रतिक्रिया, जिन्हें अभिव्यक्त होने का अवसर न मिला हो अथवा वे दमित की गयी हों .
जैसे : पेप्टिक अल्सर, आर्थराइटिस, ब्रोन्कियल अस्थमा, उच्च रक्तचाप आदि .

4. मनोवैज्ञानिक विकार (Psychological Disease) : व्यक्ति की दमित इच्छाओं की भावनात्मक अभिव्यक्ति .
जैसे : शराब / नशीली दवाओं का सेवन, खाने की प्रवृत्ति, मनोग्रसित – बाध्यता आदि .

* मनोदैहिक विकार के कारण

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस तरह के विकारों के सात मुख्य कारण बताये गये हैं :

सशर्त लाभ की संभावना : आमतौर पर बच्चों में यह समस्या अधिक देखने को मिलती है . जब उन्हें स्कूल नहीं जाना होता या फिर किसी कार्य को करने का मन नहीं होता, तो अक्सर उन्हें पेट में दर्द, बुखार, सर्दी – जुकाम आदि समस्याएं हो जाती हैं . कई बार बड़े लोगों में भी, जब उन्हें उनकी मर्जी के विरूद्ध कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है, तो ऐसी समस्याएं देखने को मिलती हैं . इसके कारण वे उस अप्रिय कार्य से छुटकारा पा लेते हैं .

आंतरिक संघर्ष : जब इंसान को दो विपरीत इच्छाओं को साथ लेकर चलना होता है, जिनमें से दोनों व्यक्ति के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण होते हैं . जैसे : मान लें किसी व्यक्ति को कोई विशेष दिन ऑफिस जाने का मन न हो, लेकिन उसका उच्चाधिकारी उसी दिन निरीक्षण के लिए आ रहा हो . ऐसे में उसे न चाहते हुए भी जाना पड़ता है .

सुझाव : जब किसी में बच्चे को अक्सर यह कहा जाता है कि वह मूर्ख, बीमार या कमजोर था, तो इसका प्रभाव वयस्क होने पर भी उसके व्यवहारों में परिलक्षित होने लगता है .

आलौकिक शक्तियों पर अधिक विश्वास करना : प्रत्येक व्यक्ति जिस परिवार या समाज का हिस्सा होता है, उसके अपने कुछ सुनिश्चित नियम या दायरे होते हैं, जिनके अनुसार उनका व्यवहार तय होता है . जो लोग अधिक भाग्यवादी होते हैं और अपने हर छोटे – बड़े व्यवहार को भाग्य अथवा ईश्वर की मर्जी मानते हैं, उनमें भी मनोदैहिक लक्षणों के विकसित होने की संभावना अधिक होती है .

आत्म सुझाव : जो लोग लगातार ऐसा सोचते हैं कि ” मैं बीमार हूं “, ” मेरा पाचन ठीक नहीं रहता ” आदि तो उनके शरीर में वास्तव में ये समस्याएं हो सकती हैं .

कल्पनाओं में जीना : जो लोग ज्यादातर समय कल्पनाओं में जीते हैं . अपने सामर्थ्य अथवा क्षमता की तुलना में अप्राप्य लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं .

मनोवैज्ञानिक आघात : आमतौर पर व्यक्ति के बचपन के कड़वे अनुभव, जिनका प्रभाव वयस्क होने पर भी उसके व्यवहारों में देखने को मिलता है .
जैसे : प्रियजन की मृत्यु या उनसे अलगाव, यौन शोषण, आकस्मिक स्थानांतरण आदि .

उपरोक्त कारणों के विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि मनोदैहिक विकार वैसे मनोवैज्ञानिक अनुभवों का परिणाम होते हैं, जिनका प्रभाव व्यक्ति के तंत्रिका तंत्र पर पङता है . फलतः वे उसके शारीरिक व्यवहारों में दिखायी देने लगते हैं .

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