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बाबासाहब का ब्राह्मणों केप्रती दृष्टिकोण

बाबासाहब का ब्राह्मणों केप्रती दृष्टिकोण

by आर. वी. सिंह
in अप्रैल -२०१५, सामाजिक
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भारत की धरती पर अनेकॠषियों, मुनियो,ं संतोंे, विचाराकों तथा महापुरूषों ने जन्म लिया है। यहां की संस्कृति में जहां एक ओर विचारों की विविधिता रही है; वहीं दूसरी ओर उन्हें प्रकट करने की पूरी स्वतंत्रता भी दी गई है। डॉ. भीमराव आंबेडकर एक स्वतंत्र विचारक, अदभ्ाुत विद्वान तथा भारत की महान विभ्ाूति थे। उनके निधन पर पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘डॉ. बाबासाहब आंबेडकर हिन्दू समाज की तमाम दमनकारी व्मवस्था के विरूद्व विद्रेाह के प्रतीक थे।’ युग पुरूष भारतरत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर हमारे संविधान-निर्माता के साथ-साथ प्रबुद्ध चिंतक, समाजिक-नवजागरण के अग्रदूत थे। उनका सम्पूर्ण जीवन सदियों से शोषित-दलित मानवता के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक उत्थान के लिए समर्पित था। उन्होंने समाज में विद्यमान रूढ़िगत मान्यताओं और विषमताओं को समूल नष्ट करने और सामाजिक न्याय और दलितों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष किया। नारी सम्मान, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व उनके द्वारा रचित भारतीय संवधिान में ंपूर्णत: परिलक्षित होते हैं। वे निष्ठावान, राष्ट्रवादी, देशभक्त थे। उनका स्वयं यह कहना था कि, ‘मैं भारत से अधिक प्रेम करता हूं, यह एक राष्ट्रवादी की सच्ची निष्ठा है। मुझे आशा है कि मेरे देशवासी किसी न किसी दिन यह सीख लेगें कि देश, व्यक्ति से कहीं महान होता है।’

क्या डॉ. आंबेडकर ब्राह्मणों से घृणा करते थे, क्या वे धर्म के विरूद्व थे?
अनुयायियों की ब्राह्मण विरोध की वृत्ति बाबासाहब के विचारों से अलग है और ब्राह्मणों का विरोध करने मात्र की है। बाबासाहब ने सदैव ‘ब्राह्मण्य’ का विरोध किया। क्रूर व अमानवीय ब्राह्मणवाद में व्याप्त अन्याय, अत्याचार, असमानता, समाज के एक अंग को कुत्ते, बिल्ली, जानवरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए बाध्य करने की प्रथा का सदैव विरोध किया, घृणा की; पर कभी भी ब्राह्मणों का तिरस्कार करने के लिए प्रवृत्त नहीं हुए। ब्राह्मणों द्वारा उनका मार्गदर्शन, स्नेह तथा उनके द्वारा ब्राह्मणों का सम्मान इन घटनाओं से जाना जा सकता है।
बाबासाहब का उपनाम देखें। बालक भीम का जन्म १४ अप्रैल १८९१ की प्रात: ४.०० बजे इंदौर नगर के निकट महू नामक छावनी (म.प्र.) में माता भीमाबाई व पिता श्री रामजीराव के घर पर हुआ। उनका नाम माता के नाम से भीम, पिता के नाम से राव लेकर भीमराव रखा गया। उनका कुलनाम सकपाल था। भीमराव के पितामह महाराष्ट्र प्रदेश के रत्नागिरी जिले के अंबावडे गांव के रहने वाले थे। अत: उनके नाम के आगे ‘अंबावडेकर’ जोड़ दिया गया। एक छोटे आत्मचरित्रात्मक निवेदन में बाबासाहब ने अपने संस्मरण बताए हैं, उसमें उन्होंने लिखा है कि उनके विद्यालय में अंबेडकर नाम के एक ब्राह्मण शिक्षक थे। वे भीमराव को अपने साथ बैठाकर भोजन कराते थे। उन शिक्षक महोदय ने इनका उपनाम बदलकर अंबेडकर किया और वही विद्यालय के रजिस्टर में भी लिखा जो आगे चलकर आंबेडकर नाम से विख्यात हुआ।
मुंबई के एलफिंस्टन हाईस्कूल में एक दिन बालक भीम को श्यामपट पर सवाल हल करने को कहा। भीम सवाल हल करने आगे बढ़े, तो सवर्ण ल़ड़के चिल्लाने लगे कि भीम के श्यामपट को स्पर्श करने पर उनके डिब्बे स्पर्शदोष से दूषित हो जाएंगे। गणित के शिक्षक महोदय ने उन विद्यार्थियों से कहा कि भीम श्यामपट पर लिखेेंगे, आप चाहें तो अपने डिब्बे वहां से हटा लें। गणित के ये शिक्षक ब्राह्मण थे। उन्होंने अपने डिब्बे उठा लिए; तब भीम ने सवाल हल किया।
महार जाति का पहला बालक मैट्रिक पास होने पर १९०७ में भीमराव की उपलब्धि पर सारे समाज द्वारा अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया। उस समारोह में श्रीकृष्णजी केलुस्कर वक्ता थे। उन्होंने भीमराव के सम्मान में दो शब्द कहे और स्वयं का लिखा एक ‘बुद्व चरित’ नामक मराठी ग्रंथ भी उपहार स्वरूप उन्हें भेंट किया। केलुस्कर द्वारा भेंट में दी गई यह पुस्तक भीमराव के जीवन का आधार बनी। वास्तव में डॉ. आंबेडकर ने अपना बौद्व-धम्म सम्बधी अध्ययन इसी पुस्तक द्वारा आरम्भ किया था। यदि कोई यह कहता है कि केलुस्कर ने ही बालक भीम के मन में धर्मांतरण का बीज रोपा, तो उसका कथन अनुचित न होगा। भीमराव ने एफ.ए. इन्टर पास कर लिया और भीम आगे शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे; किन्तु धन का अभाव था। केलुस्कर जी भीम के पिता जी से स्वयं मिले तथा भीमराव को लेकर चन्द्रावरकर जी के साथ बडौदा नरेश महाराज सयाजी गायकवाड से मिले और इसी कारण उच्च शिक्षा के लिए बडौदा महाराज से आर्थिक सहायता (रु.२५/- मासिक छात्रवृति) मिलना संभव हो सका। केलुस्कर जी आंबेडकर के प्रति बिना किसी भेदभाव के, मानव प्रेमी व काफी उदार थे।
हिन्दू कोड बिल मार्गदर्शक का काम करते समय बाबासाहब का साथ देने वाला कोई भी नहीं था। ऐसे समय दो ब्राह्मण हृदयनाथ कुंजरू, न.वि. गाडगील ने ही उस बिल के समर्थन में लोकसभा में जोरदार भाषण दिए थे। यह उल्लेख करना भी आवश्यक होगा कि बंगाली ब्राह्मण डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने हिन्दू कोड बिल का यह कहते हुए विरोध किया था कि इससे हिन्दू समाज नष्ट हो जाएगा।
कोलाबा जिले के महाड नामक ग्राम में एक ‘चवदार’ नामक तालाब है। उस तालाब का पानी ब्राह्मण अछूतों को पीने नहीं देते थे। भीमराव ने पानी पीने के लिए आंदोलन चलाया। ब्राह्मणेतर नेताओें ने इस शर्त पर बाबासाहब के आंदोलन को समर्थन देने का प्रस्ताव दिया कि किसी भी ब्राह्मण को, उन ब्राह्मणों को भी जो अस्पृश्यों के ध्येय के विषय में सहानुभ्ाूति रखते हैं, आंदोलन में सहभागी नहीं बनाया जाएगा। भीमराव ने दो टूक शब्दों में इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया और घोषणा की कि, ‘‘यह दृष्टिकोण प्रमादपूर्ण है कि सारे ब्राह्मण अस्पृश्यों के शत्रु हैं। ब्राह्मणवादी वृत्ति से मुक्त ब्राह्मणों का हम स्वागत करते हैं। महत्व जन्म का नहीं, गुणवत्ता का है।’’ वस्तुत: यह मूलभ्ाूत बौद्ध तत्व है।
पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी द्वारा स्थापित सिद्वार्थ महाविद्यालय का पहला प्राचार्य बनने का निवेदन बाबासाहब ने प्र.बा. गजेन्द्रगडकर के बड़े भाई अश्वत्थाचार्य बालाचार्य गजेन्द्रगडकर से किया। उन्होंने मुंबई के एलफिंस्टन महाविद्यालय से समयपूर्व सेवा निवृत्ति लेकर बाबासाहब के निवेदन को स्वीकार किया।
और अंत में, बाबासाहब का डॉ. शारदा कबीर (सारस्वत ब्राह्मण) से १५ अपैल १९४८ को उनके दिल्ली के निवास पर सिविल मैरिज एक्ट के अनुसार अत्यंत सादगी व सामान्य पद्धति से विवाह हुआ। विवाह के पश्चात डॉ. शारदा कबीर डॉ. सविता आंबेडकर (माई) हो गईं। इस पर बाबासाहब ने कहा, ‘‘पुरानी हिन्दू धारणा के अनुसार स्त्री व पुरूष दो स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहते, वे एक ही अस्तित्व में विसर्जित हो जाते हैं। मेरा यह विवाह, उसका आदर्श है।’’
डॉ. आंबेडकर कहते थे कि, ‘‘मैं अन्याय, अत्याचार, आडंबर तथा अनर्थ से घृणा करता हूं और मेरी घृणा उन सब लोगों के प्रति है जो इन्हें करते हैं, जो इनके दोषी हैं।’’
मनुस्मृति में समस्त शूद्रों, अछूतों और महिलाओं को सभी प्रकार के मानवीय एवं कानूनी अधिकारों से वंचित रखा गया है। डॉ. आंबेडकर ऐसे ऐतिहासिक पुरूष हैं, जिन्होंने इस पुस्तक की अमानवीय बातों से सभी को सावधान किया। उन्होंने इस शास्त्र के विरोध में एक सशक्त आंदोलन का सूत्रपात किया। २५ दिसम्बर १९२७ को महाराष्ट्र के महाड नगर में, डॉ. आंबेडकर ने अपने हजारों अनुयायियों की उपस्थिति में इस कलंकित ग्रंथ- मनुस्मृति को जला डाला। यह कैसी विडम्बना है कि संसार के महानतम पुस्तक प्रेमी को एक पुस्तक में ही आग लगानी पड़ी।
रमाबाई बार-बार डॉ. आंबेडकर से पंढरपुर चलने का आग्रह करती थीं। ‘साहब मुझे लगता है मेरी जिंदगी अब ज्यादा दिन की नहीं। मेरी अंतिम इच्छा समझकर ही मुझे पंढरपुर लेकर चलें।’ अत: एक बार वे पंढरपुर ‘विठोबा’ के दर्शन करने गए, परन्तु अस्पृश्य होने के कारण उन्हें मंदिर में प्रवेश करने से रेाक दिया गया। सौ गज की दूरी से ही पतिव्रता रमाबाई को अपनी प्रार्थना करनी पड़ी। विठोबा के दर्शनों से वंचित होकर वे घर लौटीं और बाबासाहब के समक्ष खूब सुबक-सुबक कर रोई। बाबासाहब सांत्वना देते हुए बोले, ‘‘मैंने तुम्हें पहले ही मना किया था कि पंढरपुर जाने का कोई अर्थ नहीं। जो विठोबा अपने भक्तों को दूर रखता हो, क्या वह विठोबा देवता हो सकता है!’’ बाबासाहब ने ‘रामू’ के आंसू पोंछते हुए संकल्प लिया कि, ‘‘हम दु:खी जनों की निस्वार्थ सेवा और त्याग के बल पर पंढ़रपुर जैसे नए तीर्थ का निर्माण करेंगे, जहां से किसी को भी दूर नहीं भगाया जाएगा।’’
क्या डॉ. भीमराव आंबेडकर केवल अछूतों के नेता थे, क्या उनके द्वारा किए गए कार्य राष्ट्रहित में थे, क्या उनका दृष्टिकोण मानवीय था?
बाबासाहब के अनुयायियों व विरोधियों का एक ऐसा समूह भी है जो भीमराव को एक वर्ग-विशेष का नेता मानता है। उनके प्रति यह विशुद्ध अन्याय है। इसका कारण घोर अज्ञान ही है। वे देशहित को तिलांजलि देकर अस्पृश्यों को हित साधने वाले समझौतावादी राजनेता नहीं थे। गांधी जी ने उनकी महानता को मानते हुए कहा था कि, ‘मैं जानता हूं कि आप उच्च कोटि के देशभक्त हैं; गांधी जी के ये उदगार अमूल्य हैं। डॉ. आंबेडकर ने कहा कि यदि लोकमान्य तिलक अछूतों में पैदा होते, तो वह ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ यह आवाज बुलंद न करते; बल्कि उनका सर्वप्रथम नारा होता ‘अछूतपन का खात्मा करना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’
सविधान सभा में भाषण करते समय उनके विचार आज के हालात व भविष्य की चिंता व्यक्त करने वाले ही थे। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था, मुझे इसकी पूरी कल्पना प्रतीत होती है कि आज हम राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से विभाजित हैं। हम लोगो ंने अलग-अलग छावनियां बना ली हैं। सम्भवत: मैं भी अलग छावनी बनाए हुए एक जमात का नेता हूं। ऐसा होगा तब भी मुझे पूर्ण विश्वास है कि परिस्थिति व समय आने पर अपनी एकता में कोई कारण बाधा नहीं बनेगा। जाति व पंथ अनेक हैं, मगर हम एक राष्ट्र बनेंगे। इस विषय में मेरे मन में कोई संदेह नहीं है। ३१ मई १९५२ को मुंबई में भाषण करते हुए उन्होंने कहा, ‘यद्यपि मेरा स्वभाव क्रोधी है, परंतु मैंने देश के साथ कभी भी द्रोह नहीं किया है। मेरे हृदय में सदैव देश का हित विराजमान रहता है। गोल मेज परिषद में मैं गांधी जी से २०० मील आगे था।’ उन्होंने भारतीय जनता को चेतावनी दी कि ‘यदि उन्होंने दल के हित को राष्ट्रहित पर वरीयता दी, तो भारत की स्वतंत्रता फिर से खतरे में पड़ सकती है और हो सकता है वह सदैव के लिए नष्ट हो जाए। हम लोगों को अपने शरीर के रक्त की अंतिम बूंद तक देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने का निश्चय करना चाहिए।
डॉ. आंबेडकर ने अपने समाज के हित को सदैव देशहित से पीछे ही माना। वे हिन्दू धर्म के अस्पृश्यों पर हो रहे अत्याचारों से इतने व्यथित थे कि, महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुए ‘येवला सम्मेलन’ में १३ अक्टूबर १९३५ को उन्होंने ऐतिहासिक घोषणा की कि ‘‘मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, यह मेरे बस की बात नहीं थी; किन्तु मैं किसी भी हालत में हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं।’’ अब प्रश्न यह रह गया कि हिन्दू धर्म को त्याग कर कौन सा धर्म अपनाया जाए। बाबासाहब ने कहा कि यदि हम ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेंगे तो हमारी भारतीय राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। यदि इस्लाम धर्म स्वीकार करते हैं तो मुस्लिमों की संख्या दुगनी हो जाएगी और देश के लिए मुस्लिम राष्ट्र बनने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हम देशद्रोह की स्थिति में आ सकते हैं। ईसाई धर्म कबूल करने से इन विदेशी अंग्रेजी शासकों की शक्ति में और इजाफा हो जाएगा। ये अंग्रेज भारत को आज़ाद करने की सोचेंगे भी नहीं। गुलाम भारत में रहना किसी को भी पसंद नहीं, हमें भी पंसंद नहीं है। बाबासाहब ने आगे चलकर बौद्ध धर्म अपनाया क्योंकि यह भारत भ्ाूमि का धर्म है, दार्शनिक धर्म है, इसमें अंधविश्वास, पाखण्ड नहीं है, विशुद्ध मानवतावादी है, इसमें समता, भाईचारा, विश्वबंधुत्व की विचारधारा है।
२० अगस्त १९३२ को ‘कम्युनल अवार्ड’ (सांप्रदायिक निर्णय) की घोषणा की गई। इसमें अंग्रेजी शासन की व्यवस्थानुसार दलितों के पृथक निर्वाचन का अधिकार प्रदान किया गया। इस चुनाव में अछूत मतदाता ही मतदान करेंगे। इसमें डॉ. आंबेडकर की जीत थी और गांधी जी की पराजय। गांधी जी ने आमरण अनशन की घोषणा कर दी। डॉ. आंबेडकर ने कहा कि अछूतों के पृथक प्रतिनिधित्व का यह अर्थ ही नहीं है कि वे हिन्दू समाज से अलग हो जाएंगे। अपने सिर पर गांधी जी की मौत के कलंक का टीका न लगे इसलिए डॉ. आंबेडकर द्रवित होकर समझौते पर हस्ताक्षर करने हेतु सहमत हो गए और २४ सितम्बर १९३२ को अपने अन्य अछूत सहयोगी नेताओं के साथ उन्होंने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए।
इस सबके साथ-साथ डॉ. आंबेडकर ने नारी के सम्मान हेतु हिन्दू कोड बिल पास न होने के कारण मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। मजदूरों के हित के लिए स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना की। अपनी वाणी को जनता तक पहुंचाने के लिए ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘जनता’ और ‘प्रबुद्ध’ नामक पत्रिकाओं को प्रारंभ किया। शिक्षा की महत्ता को समझते हुए ‘पीपुल्स-एजुकेशन सोसाइटी’ की स्थापना की जिसके माध्यम से अनेक कॉलेज खोले गए। डॉ. आंबेडकर ने मानव कल्याण के लिए जो कार्य किए, वे इतिहास बन गए हैं। दलित वर्ग और नारी वर्ग के कल्याण के लिए उच्च स्तरीय कार्य किए। देश-विदेश में अपनी विद्वता, कर्मठता व दूरदर्शिता का कीर्तिमान स्थापित किया। विश्व के छठवें विद्वान विधि विशेषज्ञ के रूप में भारत ही नहीं संसार ने उन्हें मान्य किया। भगवान बुद्ध का धम्म विचार, कबीर का प्रभाव व ज्योतिबा फुले के विद्रोह को लेकर बाबासाहब ने भारतीय इतिहास के एक विराट कालखण्ड को अपने कर्तृत्व से प्रकाशित किया है।
मो. : ०९४५८००४४८८

आर. वी. सिंह

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