व्यंजन या जहर?

बच्चे और युवा मैगी का अधिक सेवन करने लगे हैं क्योंकि आजकल की माताएं आलसी हो गई हैं।’ ये विचार इंदौर की एक भाजपा सांसद उषा ठाकुर के हैं। उनके विचारों को सुनकर आज की माताओं की भौहें जरूर तन गई होंगी। हालांकि सांसद साहिबा ने कुछ समय बाद अपना रुख थोड़ा नरम जरूर कर लिया था, परंतु कमान से निकला तीर और मुंह से निकले शब्द वापस नहीं आते। खैर। इस टेढ़ी-मेढ़ी मैगी ने पिछले कुछ दिनों में अपने ही जैसे कई टेढ़े-मेढ़े विवाद पैदा कर दिए हैं।
नेस्ले कंपनी ने अस्सी के दशक में भारत में मैगी को लांच किया था। तब से लेकर आज तक तथाकथित २ मिनट में बनने वाला यह व्यंजन भारत के गांव-गांव तक पहुंच चुका है। निश्चित रूप से इसमें विज्ञापनों का भी हाथ है। मैगी के एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि विद्यालय जाने वाला एक छात्र रेस में अव्वल आता है। यह खुशखबरी जब वह अपनी मां को सुनाता है तो मां खुशी मनाने के लिए उसे २ मिनट में तैयार होने वाली मैगी खिलाती है। वह बच्चा भी मैगी का एक निवाला मां को खिलाता है। वाह! क्या प्यार है मां-बेटे का। जिस देश में खुशियां मनाने के लिए जलेबी, गुलाब जामुन और न जाने कितनी मिठाइयां बनाई जाती हों, वहां किसी खुशी मौके पर मैगी खिलाना आज भी कुछ अटपटा सा लगता है। और रही २ मिनट की बात तो मैगी बनाने की रेसिपी के अनुसार पानी को उबाल आने और उसमें मसाला घुलने तक ही २ मिनट कब निकल जाते हैं पता नहीं चलता। ‘बच्चों को यही पसंद है’ कह कर पीछा छुड़ा लेना आसान है; परंतु कुछ देर की आसानी धीरे-धीरे बीमारी को न्यौता दे रही है।

मैगी विवाद तब शुरू हुआ जब जांच में यह पता चला कि मैगी में सीसे की मात्रा अत्यधिक है, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। मैगी के पहले कोकाकोला पर भी इस तरह की जांच हो चुकी है। परंतु जांच के परिणाम यह निकले कि हमारे देश में जो प्रदूषित पानी है उस कारण कोकाकोला निर्धारित मानकों पर खरा नहीं उतरता। लेकिन अब भी कोकाकोला उसी रफ्तार के साथ बाजार में बिक रहा है।

पिछले कुछ समय से भारतीय बाजारों पर डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की बिक्री छाई हुई है। देश में करीब ८० हजार छोटी-बड़ी कंपनियां डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ के धंधे में हैं। लगता नहीं है कि इन कंपनियों के उत्पादों की नियमित जांच होती है। यह बाजार ३० फीसदी की दर से बढ़ रहा है। फिलहाल देश में यह कारोबार करीब दो लाख करोड़ रुपए का है। लिहाजा मैगी के बहाने जो बात सामने आई है, वह असल में देश की सेहत के लिए कितनी खतरनाक है, यह समझना मुश्किल नहीं है। खुद फूड सेफ्टी एंड स्टेंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया यानी एफएसएसएआई मानती है कि देशभर में ३० फीसदी फूड सैंपल जांच में फेल साबित हो रहे हैं। पिछले साल एफएसएसएआई ने देशभर से महज २८ हजार सैंपल जांच के लिए भेजे। इनमें ६० फीसदी नमूने पानी और दूध से बने प्रोडक्ट के थे। जबकि ८० हजार कंपनियां कितने फूड प्रोडक्ट बना रही हैं, इसका अंदाजा लगाना आसान है, फिर इतनी कम सैंपलिंग से क्या होगा? सवाल यह भी है कि ज्यादा सैंपलिंग कर भी ली जाए, तो क्या जांच कम समय में संभव है? जब तक जांच नहीं होगी, मिलावट का पता नहीं चलेगा। जांच होने में कई साल लगेंगे, तब तक तो मिलावटी सामान बाजार में आता ही रहेगा।

इन डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों के अलावा और भी ऐसे पदार्थ हैं जो भारतीयों के स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डाल रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा भोज्य पदार्थों की जो लंबी श्रृंखलाएं भारत में उतारी गई हैं यह भी उसी का एक हिस्सा है। सब-वेे, मॅकडोनालड्स, केएफसी, डोमिनोज जैसी कई कंपनियां भारत में अपने पांव जमा चुकी हैं। फास्ट फूड, जंक फूड बनाने वाली इन कंपनियों ने बड़ी तेजी से भारत के विभिन्न शहरों में अपने स्टोर खोल लिए हैं। इन कंपनियों ने भारतीय फास्टफूड जैसे समोसा, इडली, चाट, पकौड़ी का बाजार चुरा लिया है। हालांकि स्वास्थ्य की दृष्टि से भारतीय फास्टफूड से ये विदेशी फास्टफूड कहीं अधिक नुकसानदेह हैं।

एक तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो हमें पता चलेगा कि किस तरह मैगी, बर्गर, पिज्जा जैसी वस्तुएं हमारे शरीर पर विपरीत प्रभाव डाल रही हैं। मूलत: ये पदार्थ जहां से आए हैं वहां की जलवायु शीत है। वहां ये पदार्थ कई दिनों तक टिकते हैं। इन पदार्थों की पचन क्रिया भी वहां आसानी से हो जाती है। परंतु भारत का वातावरण इन पदार्थों के नियमित सेवन के लिए उपयुक्त नहीं है। समशीतोष्ण होने के कारण यहां ये वस्तुएं अधिक दिनों खाने योग्य नहीं रहतीं। अधिक दिनों तक उन्हें टिकाए रखने के लिए उनमें प्रिजर्वेटिव मिलाए जाते हैं। ये प्रिजर्वेटिव ही स्वास्थ्य पर सबसे अधिक दुष्परिणाम डालते हैं।
भारतीय फास्टफूड मूलत: यहीं के होने के कारण वे वातावरण के अनुकूल होते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि हमारे यहां हर मौसम के अनुरूप व्यंजन बनाने की परंपरा है। इसके पीछे का वैज्ञानिक कारण यही है कि मौसम के अनुरूप भोजन होने के कारण उसका हमारे शरीर पर परिणाम भी अच्छा होता है।

बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने भोज्य पदार्थों के कारण सीधे-सीधे भारतीयों के स्वास्थ्य पर तो असर कर ही रही हैं, साथ ही भारत की अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर हो रहा है। इन सारी कंपनियों के मालिकाना हक विदेशियों के हाथों में सुरक्षित हैं। अत: जाहिर सी बात है कि इनका मुनाफा भी विदेशियों को ही होगा।

इन पदार्थों को बनाने के तरीके अर्थात रेसिपी पर ध्यान दें तो हमारे ध्यान में आएगा कि ये कंपनियां सब्जियों को छोड़कर बाकी सारे पदार्थ भी विदेशी ही अपनाती हैं। फिर चाहे वे सॉस हो, मेओनीज हो या फिर मसाले हों। इस आधार पर अगर हिसाब लगाया जाए तो इन कंपनियों के खर्चेजैसे आवश्यक सब्जियां, कर्मचारियों का वेतन, बिजली, पानी, किराया जैसी कुछ मूलभूत

आवश्यकताओं पर होने वाला खर्च इतना ही है। इसकी तुलना में जिस कीमत पर ये व्यंजन ग्राहकों को बेचे जाते हैं उनमें बहुत अंतर होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि उनकी आय की तुलना में उनका व्यय बहुत कम है। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह है कि उनका शुद्ध लाभ अधिक है। और यह सारा लाभ भारत से बाहर जा रहा है।

ये कुछ सामान्य सी बातें हैं जो सीधे-सीधे हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर प्रभाव डालती हैं। इन सभी से बच्चों और युवाओं को किस तरह दूर रखा जाए ये अभिभावकों की जिम्मेदारी है।
जंक फूड बेचने वाली कंपनी को बच्चों से नहीं केवल अपने मुनाफे से मतलब है। हमारे अपने लोगों को ही देश के बच्चों की चिंता नहीं है, फिर विदेशी कंपनी क्यों करे? अब मैगी विवाद में ही कई सेलेब्रिटीज बिना हिचक टीवी पर नेस्ले का पक्ष लेते नजर आए। नेस्ले के सीईओ खुलेआम भारत की प्रयोगशालाओं की क्षमताओं की हंसी उड़ाते हैं। पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश की सरकारों को मैगी में कुछ अवांछित नहीं लगता है, वे भी उन्हीं के साथ बेशर्मी से खड़ी दिखाई देती हैं।

इन सारी बातों के साथ सोशल मीडिया में एक और खबर चल रही है जो इस विवाद को दूसरा आयाम देती है। खबर के अनुसार यह केन्द्र सरकार के द्वारा खेला गया एक दांव है। मैगी बनाने वाली नेस्ले कंपनी मूलत: स्विट्जरलैंड की है। सभी जानते हैं कि भारत का काला धन स्विस बैंकों में हैं जिसके बारे में जानकारी देने में स्विट्जरलैंड सरकार आनाकानी कर रही है। नेस्ले का कारोबार भारत में अत्यधिक है। यहां अगर इस कारोबार को बंद कर दिया जाएगा तो स्विट्जरलैंड की इस कंपनी पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। और स्विट्जरलैंड सरकार पर दबाव बनाया जा सकेगा। अगर यह खबर सही है और सरकार द्वारा यह कदम उठाया गया है तो भी भारत की दृष्टि से यह बहुत फायदेमंद साबित होगा। कूटनीतिक भाषा में इसे मुंह खुलवाने के लिए नाक दबाना कहा जा सकता है। खैर, सरकार अपने स्तर पर जो करे परंतु सामाजिक स्तर पर मैगी और अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भोज्य पदार्थों का नियमित सेवन होने से रोकना हम सभी का कर्तव्य है।

बहुराष्ट्रीय कंपनियां जानती हैं कि खाने में ऐसा क्या मिलाएं कि खाने वाला उनके उत्पाद का लती हो जाए, ठीक वैसे ही जैसे एक बार शराब या ड्रग्स की लत लग जाती है तो छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। अत: हमारी आनेवाली पीढी को इन फास्टफूड्स के चंगुल से बचाने की नैतिक जिम्मेदारी हम सभी पर है।

Leave a Reply