साफ दिलवाले स्व. विकास आगवेकर

भ्रमण के दौरान सूरज जब पृथ्वी के उत्तर या दक्षिण में 23.5 अंश के कोण की स्थिति में आता है तब कुछ पलों के लिए हमारी परछाई लुप्त हो जाती है। वर्ष में दो बार यह होता है। मगर मुझे ऐसे लग रहा है कि कुछ दिनों प्ाूर्व24 फरवरी को मेरी परछाई लुप्त हो गयी है, अब वह फिर से नहीं दिखेगी। मेरी परछाई का नाम भी था और अपने आप में वह एक अनोखा व्यक्तित्व भी था। श्री गोपीनाथ मुंडे, श्री नितिन गडकरी जैसे महाराष्ट्र के आलां भाजपा नेताओं से लेकर उत्तर मुंबई के वॉर्ड के सामान्य कार्यकर्ता तक अनगिनत भाजपाइयों के मित्र एड. विकास आगवेकर, मेरे लिए तो मानो मेरी परछाई ही थे; अब नहीं रहे यह सत्य स्वीकार करना ही होगा।

वैसे तो विकास य्ाुवावस्था से ही राजनीति से जुड़े। संघ स्वयंसेवक विकास ने 18-19 की उम्र में यानी 1973 में पहली बार भारतीय जनसंघ के महापालिका उम्मीदवार के प्रचार कार्य से अपना राजनीतिक कार्य प्रारंभ किया था। 1975 के आपात्काल में हजारों जिंदादिल य्ाुवकों ने देश के लिए सत्याग्रह किया, कारावास भुगता, विकास भी ऐसे ही एक जोशीले नवय्ाुवक थे। आपातकाल के बाद भी इसी जोश ने उन्हें राजनीति में सक्रिय रखा। जनता पार्टी की केंद्र में सरकार आयी और चंद ही महीनों में विधानसभा चुनाव घोषित हुए। मुझे मुंबई के उपनगरी बोरीवली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए कहा गया। 1978 के उन दिनों की आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। पार्टी के पास सीमित संसाधन थे और उसमें मैं स्वयं भी मध्यम वर्ग का था। कहूं तो आज विश्वास नहीं होगा। अपने प्रचार के लिए खुद का वाहन लेकर मैं निकलता था और वह वाहन था एक स्कूटर। साधनों की कमी थी पर साधकों की नहीं। मैं रहता था एक विधानसभा क्षेत्र गोरेगांव में और उम्मीदवारी थी अन्य क्षेत्र बोरीवली में। ऐसे में जब भी मैं घर से प्रचार के लिए निकलूं तब अकेला नहीं निकलना चाहिए, ऐसी सब की राय थी। प्रचार काल में 24 घंटे मेरे साथ रहने का जिम्मा खुशी – खुशी विकास ने उठा लिया। अपने घर से प्रातःकाल 6 – 6.30 बजे बोरीवली से निकल कर के 7.00 के पहले ही मेरे घर पहुंचते, फिर हम दोनों निकलते थे। चुनाव प्रचार कार्य प्ाूरा होने पर देर रात मेरे घर तक साथ आकर वह लौट जाते थे। 21 वर्ष के नौजवान विकास के मुंह से थकान शब्द कभी नहीं आया। तब से अविश्रांत मेरा साथ देनेवाले विकास को अब 36 वर्षों बाद केकल मृत्य्ाु ही विश्राम दे पाई।

अपने राजनीतिक जीवन में मैंने 1978 से 2009 तक दस चुनाव लड़े, तीन विधानसभा के और सात लोकसभा के। इन सभी चुनावों में मेरे साथ हर पल विकास होते थे। मानो वह मेरा ही साया बन चुके थे। 25 सितम्बर 2013 को पं. दीनदयाल जयंती के अवसर पर मैंने चुनाव न लड़ने का निश्चय किया, वह कइयों को रास नहीं आया। उनमें विकास भी थे। अब लगता है वह निर्णय लेते वक्त कहीं ईश्वर ने मुझे संकेत दिया होगा कि अब आगे विकास साथ नहीं होंगे। चुनावी राजनीति में कुछ चंद लोगों का ही यह सौभाग्य होता है जब कोई व्यक्ति निस्वार्थ भाव और लगन से इतने दीर्घ काल तक साथ देता है। कहने का तात्पर्य कि नेताओं की संख्या की तुलना में ऐसे समर्पित कार्यकर्ताओं की संख्या बहुत कम होती है। और ऐसे समर्पित कार्यकर्ताओं में विकास अग्रसर थे। मात्र मेरा साथी, सिर्फ यही विकास की पहचान नहीं थी। विकास ने जीवन में अपनी पहचान बनायी; उस पहचान का यह एक अंग था।

रिक्शा चालकों का नेतृत्व

मेरे विधायक बनने के पश्चात कुछ ही दिनों में मुंबई के उपनगरों में ऑटो रिक्शा चलाने का निर्णय प्ाुरोगामी लोक दल (प्ाुलोद) की महाराष्ट्र सरकार ने लिया। इस सरकार में जनता पार्टी भी सम्मिलित थी। मैं सबसे आखरी उपनगर यानी बोरीवली का प्रतिनिधित्व करता था। मेरे साथ – साथ हमारी पार्टी के विधानसभा कार्यालय से भी विकास संलग्न हुए। सुबह मेरे कार्यालयीन काम में मदद करना, बाद में विधानसभा कार्यालय और उसके साथ – साथ कानून की पढ़ाई ऐसी विकास की दिनचर्या हुआ करती थी। पार्टी का प्ाूर्णकालिक कार्यकर्ता बने विकास को, अपना व्यक्तिगत बोझ पार्टी पर डालना अच्छा नहीं लगता था। मगर निम्न मध्यम वर्ग में जन्मे विकास के लिए घर वालों पर भी अपनी जिम्मेदारी डालना संभव नहीं था। पार्टी के स्तर पर हमारा विचार था कि जब ऑटो रिक्शा शुरू होगी तो उसे चलाने का काम तो अधिकतर अनपढ़, झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले करेंगे, मगर रोजगार के साथ – साथ उन्हें एक दिशा देने के लिए पढ़ेलिखे बेरोजगार भी इस काम के लिए आगे आए तो अच्छा होगा। चूंकि एक नए वर्ग निर्माण हो रहा है, तभी उसे जा़ेड़ कर भी रखने का काम होना चाहिए। मेरे इस विचार के साथ मेरे दो साथी सक्रिय रूप से जुड़े। स्व. अमरकांत झा और विकास। इन दोनों सुशिक्षित नौजवानों ने ऑटो रिक्शा परमिट लिया और स्वयं रिक्शा चलाने लगे। बोरीवली के रिक्शा वालों का सक्षमता से उन्होंने नेतृत्व भी किया। और इस प्रकार विकास बोरिवली रिक्शा चालक य्ाूनियन के पहले अध्यक्ष बने। वकील बन कर व्यवसाय में स्थिर होने तक उन्होंने स्वयं रिक्शा चलायी। अब पिछले 25-30 वर्षों से वे स्वयं रिक्शा नहीं चला रहे थे, मगर फिर भी बोरीवली के रिक्शा वालों के लिए वह हमेशा मार्गदर्शक साथी बने रहें, उनसे उनका जिन्दा सम्पर्क था।

कुलियों के भी हमदर्द

यात्रियों को ले जाने के लिए हमेशा ही रेल स्थानक पर रिक्शा वालों की भीड़ होती है। सभी से मित्रता बनाने के स्वभाव के कारण बोरीवली रेल स्थानक के कुलियों, रिक्शा चालकों का भी विकास का मित्र बनना स्वाभाविक ही था। इन कुलियों का संगठन भी हमने बनाया। वर्ष 1984 में उनकी पतपेढ़ी भी स्थापित की। तब से विकास उनसे जुड़ गये। बिना झिझक उनका एक-दूसरे के घर आना-जाना रहता था। सभी कुलियों के वे सही मायने में परिवारजन ही बने। प्ाूरे राज्य में पतपेढ़ियों की हालत प्रति दिन खस्ता होते जा रही है, मगर उल्लेखनीय है कि इस पतपेढ़ी ने पिछले वर्ष 13 प्रतिशत लाभांश दिया। इसमें विकास का महत्वप्ाूर्ण मार्गदर्शन था।

जनसेवा बैंक

भाजपा-रा.स्व.संघ के प्रमुख स्थानिक कार्यकर्ताओं की अगुवाई में 1982 में बोरीवली में जनसेवा सहकारी बैंक की स्थापना हुई, जिसका काफी विस्तार हुआ है। अब इस बैंक की ग्यारह शाखाएं भी हैं। क्षेत्र के हम सभी भाजपाई-संघ स्वयंसेवक इसे अपना बैंक मानते हैं। विकास को बैंक कार्य से विशेष लगाव था, बैंक के वह संचालक थे। रिक्शा चालकों की, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले छोटे व्यवसाय करने वालों की भी बैंक सहायता करे, इसका वे हमेशा आग्रह करते थे। ऐसी संस्था बनने के बाद सुझाव देने वाले तो बहुत होते हैं मगर चंद लोग ही उसे बड़ा करने में अपने बच्चों से भी अधिक लगाव से जुटते हैं। जनसेवा बैंक के लिए विकास के मन में भी यह भाव था। बैंक कारोबार और सेवा कार्य बढ़े इसमें वे ज्यादा समय बिता रहे थे, यह एक तरह से उनका दूसरा घर बन गया था।

गुण-दोष – एक ही सिक्के के दो पहलू

विकास में ऐसा क्या विशेष था जिसके कारण उनके पास कोई पद न होते हुए भी सामान्य कार्यकर्ता उन्हें सम्मान देते थे, बड़ी जिम्मेदारी न होते हुए भी गोपीनाथ मुंडे जी, नितिन गडकरी जी जैसे आलां नेता उनसे विशेष ममत्व रखते थे। अगर मैं कहूं कि यह स्थान विकास ने अपने स्वभाव गुण – दोष के कारण निर्माण किया था तो उसे कोई अन्यथा न लें। विकास को गुस्सा आने में देर नहीं लगती थी। ऐसा गुस्सा कि किसी को भी कुछ भी बोल दें। मगर यह गुस्सा पानी के बुलबुले की तरह क्षणिक होता था। वे अगले ही पल जिसे डांटते उसे प्यार भी करते और कहते, “कल की बात छोड़…. अब चाय तो पी लें, बाद में फूट ……..” उन्हें यह शब्द बड़ा पसंद था। विकास की फटकार जिसे नहीं मिली होगी तो उसका मतलब उसे शायद उनके दिल में जगह नहीं थी। वास्तव में वे अजातशत्रु थे।

एक और गुण-दोष था विकास में। पैसे उनकी जेब में ठहरते नहीं थे। दूसरों को प्यार से खिलाने में उन्हें इतनी खुशी मिलती थी कि सारी जेब वे किसी के लिए भी खाली कर दे। रास्ते का वड़ा-पाव भी दो-चार लोगों को खिलाने के बाद ही वे खाते। भाजपा उत्तर मुंबई में विकास से परिचय का शायद ही कोई शख्स होगा जिसको विकास ने कभी कुछ प्यार से खिलाया न हो। मगर खाने के इसी शौक के कारण उनकी बीमारियों को बढ़ावा मिला और डायबिटीज होने के बाद भी वे खान-पान और पथ्य पर विशेष ध्यान नहीं देते थे।

मस्तमौला विकास को पार्टी में मनचाहा पद नहीं मिला। इस कारण के खफा भी होते थे। मगर कोई पार्टी का ऐसा कार्यक्रम नहीं होगा जिसमें वे जी-जान से शामिल न हो। चुनाव के दरम्यान तो दिग्गज नेताओं से बढ़ कर वे काम में जुट जाते थे। दो महीनों के लिए उनकी वकालत ठप सी होती थी मगर उसकी शिकन भी उनके चेहरे पर इसलिए नजर नहीं आती थी, क्योंकि वह होती ही नहीं थी। अपने दिल के इशारों पर चलने वाले विकास के दिल में ‘कमल’ का स्थान धु्रवकुमार सा अचल था!

विकास की माय्ाूसी

पिछले कुछ वर्षों से विकास अंदर से बहुत माय्ाूस थे। स्वभाव में न होते हुए भी यह माय्ाूसी छुपाने की वे कोशिश भी करते थे। पत्नी और दो बेटियों का छोटा सा परिवार विकास की सबसे बड़ी प्ाूंजी थी। भले ही वह घर में न टिके, पर इस घर का मैं राजा हूं, यहां की हर चीज मेरी मर्जी से होती है इस बात पर उन्हें बड़ा ही नाज था। विकास के स्वभाव के कारण उनके मूड में होने वाले चढ़ाव- उतार, परहेज न रखने की उनकी आदत इनसे सबसे ज्यादा क्षति तो परिवारजनों की होती थी। किंतु फिर भी बिना कोई शिकायत किये उन पर ये तीनों प्यार न्यौछावर करती थीं। किसी राजा – महाराजा से विकास के अपने घर में अधिक ठाठ थे। किंतु जैसे एक कहानी में राजा का प्राण पिंजरे के तोते में था, ठीक उसी प्रकार विकास का प्राण उसकी छोटी बेटी चिमू में बसता था! अर्थात् अक्षता में! लाडली चिमू बचपन से बीमार रहती थी। और एक दिन पिंजरे का यह तोता उड़ गया। चिमू की असमय मौत ने विकास का दिल तोड़ दिया। वे तब से टूट से गए थे। इतना टूटे कि अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना कम कर दिया। उनकी किडनी खराब हो गई। बीमारी के बावजूद वे पार्टी और बैंक के कार्यक्रमों में जरूर आते थे। एक छोटे से कार्यकर्ता दिखने वाले विकास कितने बड़े थे इसका पता तब चला जब उनकी अंतिम यात्रा में संघ, भाजपा के अलावा अन्य पार्टियों के सामान्य कार्यकर्ता और नेता शामिल हुए। उनके जीवन में धर्मपत्नी श्रीमती लता और सुप्ाुत्री रुचा ने उनके लिए कठोर परिश्रम किए।

अब मेरे प्रिय विकास नहीं रहे, उनकी कमी सबको खलेगी, किंतु अब एक मिसाल भी कायम हुई साफ दिल वाले सच्चे कार्यकर्ता की।
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