सामाजिक क्रांति के पुरोधा महात्मा फुले

भारत के इतिहास में उन्नीसवीं शताब्दी को सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक क्रांति और पुनर्जागरण का कालखण्ड माना जाता है। इस शताब्दी में अनेक महान पुरूषों का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने हिन्दू समाज में नव-चैतन्य को संचारित करने का स्तुत्य प्रयास किया। इनमेंं महात्मा ज्योतिबा फुलेे का सामाजिक विषमता और भेदभाव के विरूद्ध चलाया गया समता और समरसता का अभियान निश्चय ही ऐतिहासिक महत्व का है। उन्होंने एक ज्योति-पुरूष के रूप में अंधःकार में भटकते समाज को सत्पथ की दिशा में उन्मुख किया। ज्योतिबा सामाजिक क्रांति के अग्रदूत थे। उनका संघर्ष केवल दलितों के लिए ही नहीं था; बल्कि दलितत्व को दूर करने के लिये था। उनका सामाजिक क्रांति अधिष्ठान सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय था।
महात्मा फुले क्रांतिकारी सुधारवादी थे। उनके सामाजिक आंदोलन ने राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया। वे ऐसे पहले सुधारक थे, जिन्होंने समाज के निचले वर्गों में रचनात्मक क्रियाशील चेतना का संचार किया। महात्मा फुले के समय सवर्ण-शूद्र, छूत-अछूत, ब्राह्मण-अब्राह्मण आदि भेदभाव समाज की जड़ों को खोखला कर रहे थे। ये सब कुरीतियां सामाजिक विषमता को जन्म दे रही थीं। महात्मा फुले ने हिन्दू समाज की जड़ता और रूढ़ियों पर ही प्रहार ही नहीं किया वरन् उन्होंने उच्च वर्ग के लोगों की सद्बुद्धि और न्याय चेतना को प्रेमपूर्वक उकसाया और उनमें मानवीय समता और ममता की पावन प्रेरणा का संचार किया। वे समाज के दीन-दलित वर्गों, मजदूरों, किसानों, महिलाओं आदि सभी के उच्चवर्णीय व्यक्तियों के द्वारा निर्ममतापूर्वक किये जा रहे शोषण और उत्पीड़न से बेहद चिंतित और उद्विग्न थे। महात्मा फुले के क्रांतिकारी सुधारों का महाराष्ट्र में विरोध भी हुआ परंतु सत्यशोधक ज्योतिबा फुले अविचल साधक की तरह अपने सत्पथ पर चलते रहे। वे डटे रहे, हटे नहीं और झुके नहीं।

ऐसे सजग समाज-सुधारक महात्मा फुले के पावन जन्म-दिवस पर उनके जीवन चरित का अवलोकन करना भी प्रासंगिक होगा। उनका जन्म पुणे के निकट खानवाडी ग्राम में 11 अप्रैल 1827 को हुआ। ज्योतिबा फुले एक वर्ष की आयु में मां के वात्सल्य से वंचित हो गये। पिता गोविंदराव ने उनका पालन-पोषण किया। उनके पिताजी की फूलों की दुकान थी और वे जाति से माली थे। महाराष्ट्र में माली जाति को अस्पृश्य माना जाता था। ज्योतिराव की प्रारंभिक शिक्षा मराठी पाठशाला में हुई। तत्कालीन समाज में उच्च वर्ग को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। बालक ज्योतिराव को अछूत मानकर विद्यालय से निकाल दिया गया। इस घटना ने ज्योतिराव के कोमल बाल-मन को गहरा आघात पहुंचाया। पिता का मन भी व्यथित हो गया कि मेरा लड़का शिक्षा से वंचित हो गया। ज्योतिराव पिता के साथ दुकान पर फूल बेचने का काम करने लगे और रात्रि में दीपक के प्रकाश में पढ़ने लगे। ज्योतिराव को रात्रि को पढ़ते देखकर मुंशी गफ्फार बेग और ईसाई पादरी लेजित बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने ज्योतिराव का दाखिला मिशन स्कूल में करा दिया। वहां पर ज्योतिराव ने वार्षिक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर लोगों को चकित कर दिया। शिक्षा से ज्योतिराव को चिंतन की नयी दिशा मिली। उन्हें अनुभव हुआ कि समाज के निचले तबके को शिक्षा के द्वारा अपने अधिकार और कर्तव्य का बोध कराया जा सकता है। छोटे -बड़े के भेद को मिटाने के लिए दलित वर्ग को शिक्षित करना होगा। इससे उनको ज्ञात होगा कि अस्पृश्यता की बीमारी उच्च वर्ग के दम्भी मन की उपज ‘कुलीनता-ग्रंथी’ (र्डीशिीळेीळीूं उेाश्रिशु) से ग्रस्त है। अत: दलित वर्ग में आत्मगौरव और स्वावलम्बन का भाव जागृत करना होगा। ज्योतिराव ने महाराष्ट्र के संत एकनाथ, ज्ञानेश्वर, नामदेव, संत तुकाराम आदि के साहित्य का श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया और उनको ज्ञात हुआ कि सब संतों ने इन बुराइयों का खण्डन किया है। इन संतों ने समाज को प्रेम, करूणा, मानवता और ममता का संदेश दिया है। ज्योतिबा को सात्विक विचारों की यह निधि संस्कृत के ‘वज्रसूची’ ग्रंथ व कबीर के बीजक ग्रंथ के ‘विप्रमति’ भाग से मिली थी।

सहसा ज्योतिराव के जीवन में एक हृदयविदारक घटना घटित हुई। एक बार ज्योतिराव को ब्राह्मण मित्र ने अपने विवाह में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। वे सहज भाव से विवाह-स्थल पर गए। वहां पर उन्हें अपमानित किया गया। वे खिन्न मन से लौट आए। उस दिन उन्हें समाज के वंचित वर्ग की दयनीय और दु:खद दशा का साक्षात्कार हुआ। इस घटना ने ज्योतिबा को महात्मा फुले बना दिया। उनको अनुभूति हुई कि दलित वर्ग अपने जीने के अधिकार को भी भूल बैठा है। महात्मा फुले ने संकल्प किया कि मैं अपने वंचित-वर्ग को सुशिक्षित करके इनमें आत्मनिर्भरता और अस्मिता बोध की चेतना जगाऊंगा। शिक्षा ही समाज में परिर्वतन लाने का प्रभावशाली माध्यम है। शिक्षा वह समर्थ साधन है, जो समाज में मूक क्रांति सहज ढंग से ला सकता है। उन्होंने एक स्थान पर विचार प्रगट किया-

“विद्या बिना मति गयी।
मति बिना नीति गयी।
नीति बिना गति गयी।
गति बिना वित्त गया।
वित्त बिना शुद्र हुआ।”

उनका आशय था कि शिक्षा के द्वारा ही दलित वर्ग में जागृति लाई जा सकती है। ज्योतिबा ने शिक्षा प्रदान करने का महत्वपूर्ण सूत्र भी ढूंढ निकाला। समाज में क्रांतिकारी सुधारों के लिए सर्वप्रथम स्त्रियों को शिक्षा देने की व्यवस्था करनी चाहिए। ज्योतिबा का यह विचार स्वामी विवेकानंद के कथन से पुष्ट होता है- “एक आदमी पढ़ता है, तो एक व्यक्ति शिक्षित होता है, परंतु एक स्त्री शिक्षित होती है तो सारा परिवार शिक्षित होता है।” ज्योतिबा ने सन् 1848 में पुणे के भिडे बाड़े में वंचित वर्ग की लड़कियों की शिक्षा के लिए तत्काल पाठशाला का श्रीगणेश कर दिया। शिक्षा क्षेत्र में क्रियाशील महात्मा फुले प्रथम ब्राह्मणेतर भारतीय थे। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस पुनीत कार्य में उच्चवर्गीय मित्रों का भी सहयोग प्राप्त हुआ। इनमें उनके सहकारी परांजपे, गोविंद साठे, सदाशिव गोवंडे इत्यादि मित्रगण सम्मिलित थे। पुरातन पंथी लोगों ने ज्योतिबा के कार्य का विरोध किया परंतु ज्योतिबा विचलित नहीं हुए। ज्योतिबा की धर्मपत्नी श्रीमती सावित्री बाई ने संकटों के बावजूद अध्यापिका के दायित्व को धैर्य के साथ निभाया। ज्योतिबा के पिता को पोंगा पंडितों ने सामाजिक बहिष्कार की धमकी दी। अनबन बढ़ जाने पर अंतत: उन्हें घर छोड़ना पड़ा। एक बार तो विद्यालय भी बंद हो गया। ध्येयव्रती ज्योतिबा ने पुन: चिपलूणकर बाड़े में लड़कियों का विद्यालय खोल दिया। धीरे-धीरे समाज के उदार दानी बंधुओं तथा ब्राह्मण सहकर्मियों के सहयोग से शिक्षा कार्य में गतिशीलता आ गयी। इससे दलित वर्ग में नवीन उत्साह का संचार हुआ।

नारी जागरण के लक्ष्य को लेकर महात्मा फुले ने नारी-जाति को कुरीतियों से मुक्त करने का उपक्रम किया। उन्होंने दलित वर्ग की स्त्रियों को कुशल शिक्षिका बनाने का प्रशिक्षण कार्य प्रारम्भ किया। ज्योतिबा की द़ृष्टि में लड़कियों से सहमति प्राप्त करके ही विवाह -सम्बंध निश्चित किया जाना चाहिए। महात्मा फुले का समाज सुधार का कार्य दलित वर्ग तक ही सीमित नहीं था, वरन् सम्पूर्ण हिन्दू समाज में विधवा महिलाओं की दारूण दशा, भ्रूणहत्या, बालविधवाओं की दुर्गति जैसी कुरीतियों को दूर करने का प्रयास भी शामिल था। उन्होंने शेणवी जाति की एक विधवा का विवाह भी करवाया। उनकी पत्नी सावित्री बाई ने एक ब्राह्मण विधवा के बालक को ‘यशवंत’ नाम दिया और उसका अपने बच्चे की तरह पालन-पोषण किया। इस प्रकार समस्त हिन्दू-समाज महात्मा फुले के सुधार आंदोलन की परिधि में सम्मिलित था। उनका ब्राह्मण वर्ग के प्रति कटुता का भाव नहीं था। उनकी नाराजगी ब्राह्मणी-शोषण वृत्ति से थी। इस विषय में माधवराव बागल कहते हैं, “जिस प्रकार महात्मा गांधी ब्रिटिश साम्राज्य के द्वेष्टा थे, अंग्रेजों के प्रति द्वेष नहीं रखते थे, उसी तरह महात्मा फुले ब्राह्मणी-वृत्ति के प्रति द्वेष्टा थे, उनकी घृणा अन्याय को लेकर थी।”

ज्योतिबा ने 24 सितम्बर 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। सत्यशोधक समाज का उद्देश्य समाज को समरस और संगठित करके सत्य के पथ पर ले जाना था। सभी जाति, मत, पंथ, सम्प्रदायों के व्यक्ति सत्यशोधक समाज के सदस्य बन सकते थे। यह एक सामाजिक रूपांतरण का क्रांतिकारी आंदोलन था। इसकी प्रसिद्धि पूरे देश में फैली। ज्योतिबा ने अपने जीवन के अंतिम काल में ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ ग्रंथ की रचना की थी। इस ग्रंथ में महात्मा फुले ने राष्ट्र-सुधार पर प्रकाश डाला है। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है:-

“देश सुधार का अहोरात्र है ध्यान, कर मांग भाटो की एकता, करे समता निर्माण।”

सारी पृथ्वी अपना परिवार है; यह भाव लेकर हम सभी एकजुट होकर सत्य व्यवहार करें। महात्मा फुले की मूल भूमिका हिन्दू समाज के सुधार की ही थी। उनका हिन्दू समाज में व्याप्त पाखण्डों और अंधविश्वासों से विरोध था। वे ईसाई मतांतरण के विरोधी थे। उनके ग्रंथ में उल्लेख है:-

“नियंत्रण में रखें ईसाइयों को। सावधान करें अपने भाइयों को॥”

वे अपने पत्रों के शीर्ष पर ‘सत्यमेव जयते’ लिखते थे। इस प्रकार महात्मा फुले सम्पूर्ण भारतीय समाज की समग्र क्रांति के पुरोधा थे। तथाकथित राजनेता महात्मा फुले और डॉ. आंबेडकर के नाम पर वोट की राजनीति कर रहे हैं। यह कार्य देशहित और समाज-हित में नहीं है। न ही इसमें दलितों के प्रति न्याय है। आज भी महात्मा फुले के उद्बोधक विचार सम्पूर्ण भारतीय समाज में समरसता, एकजुटता, न्याय, समानता की पावन प्रेरणा का संचार करने की क्षमता से युक्त होने के कारण नितांत प्रासंगिक हैं। आओ, हम सब भारतवासी उनके पावन जन्म दिवस पर उनके बताए गए सत्पथ पर चलने का प्रण और उनके विचारों को अपने जीवन में आचरित करने का निश्चय करें। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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