सच्चाई और अच्छाई की मूरत मेरी माँ

तेजी हरिवंशराय ‘बच्चन’, जन्म 12 अगस्त 1917, लायलपुर (वर्तमान नाम फैसलाबाद- पाकिस्तान), पीहर का नाम तेजी कौर सूरी। जन्म से सिख थी। 91वें वर्ष में 21 दिसम्बर 2007 को अनंत में विलीन हो गईं।

उसकी आंखों में तेज था, सपने होते थे। अंडाकार चेहरा था। नाजुक हाथ थे। परिधान भी सुलझे होते थे। इत्र की खुशबू उसके साथ चलती थी। सदा आशावादी होती थी। आश्रयदाता थी। मेरे पिता व हम पर रौब जमाए रखती थी। अंधेरे में वह प्रकाश थी। कठिन स्थिति में सम्बल थी। उत्सवों में उसका उल्लास देखते ही बनता था। धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा थी। शेरनी जैसा गुस्सा था। जबान की पक्की थी। समता उसका गुण था। हर स्थिति में जीवन प्रदायिनी थी। निष्ठा और नैतिकता की सीख दिया करती थी। संघर्ष करना जानती थी।

हनुमानजी के प्रति उनके मन में बेहद श्रद्धा थी। प्रति दिन ‘हनुमान चालीसा’ पढ़ना उसे अच्छा लगता था। गुरुग्रंथसाहिब से भी उन्हें उतना ही लगाव था। हनुमान चालीसा के दोहे और गुरुग्रंथसाहिब के वचन उनके मीठे गले से सुनते-सुनते मेरा बचपन बीता।

मेरी मां दृढ़ और स्वतंत्र महिला थी। उसने कठिन से कठिन प्रसंग में भी हारना सीखा ही नहीं था। उनके जन्म के साथ ही उनकी मां गुजर गई थी। उसे मां का प्यार नहीं मिला, लेकिन इस कमी को उसने कभी महसूस नहीं होने दिया। वह अमीरी में पली-बढ़ी। लेकिन मेरे पिता के लिए उसने सबकुछ त्याग दिया। मेरे पिता निम्न मध्य वर्ग के थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। 500 रु. माहवार कमाते थे। लेकिन उनमें एक संवेदनशील कवि था, जो मेरी मां को बेहद प्रिय था। मेरी मां के दादा को यह कतई पसंद नहीं था। उन्होंने मां को अपनी सम्पत्ति से फूटी कौड़ी भी नहीं दी। वह कुछ चाहती भी नहीं थी। केवल अपने एक विश्वासपात्र नौकर सुदामा के साथ चली आई।

मेरी मां ने मुझे अन्याय व विषमता से लड़ना सिखाया। भय से मुक्ति के पाठ उसने सिखाए। सौंदर्यबोध कराया। जीवन की अच्छाइयों को देखने की दृष्टि दी। हम जो कपड़े पहनते थे, हम जो संगीत सुनते थे या जो किताबें पढ़ते थे उस पर उसकी पैनी नजर होती थी। वे न केवल मेरे पिता की महानता और उनके सृजन का सम्मान करती थी, अपितु उनके समकालीन श्रेष्ठ व्यक्तियों और बड़े लोगों का भी उतना ही आदर करती थी। रंगमंच, संग्रहालयों से कला और सांस्कृतिक बातों में भी उसकी रुचि थी। …सच्चाई और अच्छाई की मुराद रखती थी। संयम रखने और दर्द सहने का उसमें गजब का बल था। जीवन की अच्छाइयों और जीने का उल्लास उसमें था। और, फिल्मों के प्रति रुझान रखती थी।

मेरी मां निसर्गप्रेमी थी। फूल-पौधों और हरियाली की खुद देखभाल करती थी। लाल गुलाब उगाने में उसे महारत हासिल थी। इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में होने वाले पुष्प प्रदर्शन में हर साल वह पुरस्कार पाती थी। उसकी बालों में मोगरा व बेला के फूल हुआ करते थे। सुबह-सुबह हरसिंगार के फूल वह टोकनी में जमा करती थी। रातरानी को तो उसने अपने कमरे की खिड़की के पास ही लगाया था।

सुबह-सुबह गर्मागर्म चाय के साथ उसका दिन शुरू होता था। शाम को अक्सर कॉफी पीती थी। मिठाई उसे बहुत पसंद थी। हनुमान मंदिर से लौटते समय वह बूंदी के लड्डू, बेसन के लड्डू अवश्य लाया करती थी। कोकोलेट उसे बहुत प्यारे थे। विदेश से लौटते समय मैं उनके लिए यह जरूर लाता था। उम्र धीरे-धीरे जवाब दे रही थी। ऐसी हालत में भी मेरे लाए कोकोलेट वह अपने तकिए के नीचे छिपाकर रखती थी। …कभी कोई मांगे तो नाखुश होकर दे देती थी, लेकिन तुरंत बाहर जाने के लिए कहती भी थी।

मेरी मां ने मुझे बॉलरूम नृत्य सिखाया। वाट्ज सिखाया। फॉक्स ट्राट सिखाया। मेरी प्रगति देखने के लिए वह दिल्ली के कनाट प्लेस के गेलार्ड में ले जाया करती थी और नृत्य फ्लोअर पर मुझे ढकेल देती थी। उसने मुझे कार चलाना भी सिखाया। गणतंत्र दिवस पर हम जैसे कुछ बच्चों को वह राष्ट्रपति भवन की रोशनाई दिखाने ले जाती थी। किशमिश, चिलगोजी, मूंगफली, काजू, अखरोट का चबेना साथ होता था।

कभी कभी उसका संगीत मोह फूट पड़ता था। गले में ढोलक व हाथ में चम्मच लिए वह पंजाबी ‘तपास’ और मेरे पिता के रचे कुछ लोकगीत गाया करती थी। वह खिलखिलाकर हंस सकती थी।

मेरी मां को समय ने अब बदहवास कर दिया था। वह कमजोर और कृश हो गई थी। हड्डियों का ढांचा रह गई थी। हमारे सामने सुन्न पड़ी रहती थी। न बोल पाती थी, न सुन सकती थी। आंखें खोलना भी मुश्किल होता था। केवल मॉनिटर से पता चलता था कि वह जीवित है। मनोभ्रंश और अलझाइमर की बीमारी ने उसका यह हाल किया था। बरसों यही हालत रही। उसे पता नहीं था कि उसके पति- मेरे पिता- गुजर चुके हैं। उसे यह भी मालूम नहीं था कि उसके पोते की शादी हो चुकी है और न वह अपनी पतोहू को आशीर्वाद ही दे पाती थी।

निधन पूर्व के दो वर्षों तक वह अस्पताल में ही रही। मैं शूटिंग के लिए जाने के पूर्व हर सुबह अस्पताल जाकर उसे देख आता। वह पड़ी होती दुनिया से बेखबर। मैं उसकी ओर देखते रहता और हनुमान चालीस की पंक्तियां सुनाता-
‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपिश तिहूं लोक उजागर!’

मेरा हर रोज का यह नित्य क्रम बन गया। शाम को मैं फिर उसके पास लौटता। अक्सर चिंताएं सतातीं। एक दिन अचानक रात में फोन की घंटी बज उठी। वह दिन था 21 दिसम्बर 2007 और समय था रात के 3 बजे। मुझे अंदेशा था ही। उसकी निजी परिचारिका ने रुआंसे स्वर में मुझे कहा, ‘सर जल्दी आइये! मां का कुछ ठीक नहीं लगता। उन्हें आईसीयू में रखा गया है!’
आपको पता होता है कि आपको क्या करना है। फिर भी आप कुछ नहीं कर पाते। कठिन परिस्थितियों यह एक सपना लगता है। आप जानते हैं कि आप इस प्रसंग से पार हो जाएंगे; लेकिन होता कठिन है।

मैं भूल ही गया कि करीबी लोगों को सूचित करना है, कार चलाना है, अच्छे कपड़े पहनना है या विशेषज्ञों से सम्पर्क करना है। मेरे मन में मां का सम्पूर्ण जीवन चिलचित्र की भांति उभर रहा था। एक बार और फोन आया। वह अस्पताल से था। फोन पर बताया गया कि जल्दी आइये सर, मां का हृदय रुक गया था, उन्होंने उसे फिर कार्यरत किया, लेकिन….

मैं जया के साथ आईसीयू में पहुंचा। उपकरण, डॉक्टर, नर्सेस चिंतित चेहरे से भागदौड़ कर रहे थे, आपात् सूचनाएं दी जा रही थीं।…मेरी मां लगभग निर्जीव सी पड़ी थी। उसकी हृदय की धड़कन रुक गई, लेकिन फिर उसमें जान आ गई। 90 साल की उम्र में भी वह मजबूत महिला थी। मैं जानता हूं, वह मेरी मां है।

…दुबारा ऐसी स्थिति आई। उसका दुर्बल शरीर जीने की फिर कोशिश करने लगा। डॉक्टरों की भागदौड़ फिर शुरू हुई। वह फिर जीत गई। मॉनिटर पर ग्राफ चलने लगा। श्वेता ने हनुमान चालीसा की किताब निकाली। पढ़ना शुरू किया। नम्रता रोने लगी। मैं स्तंभित खड़ा था। मां फिर जीत गई। हृदय फिर धड़कने लगा। उसका शरीर सीने पर दबाव दिए जाने के कारण बिस्तर पर ही उछल रहा था। … लेकिन कुछ अंतराल के बाद सबकुछ शांत हो गया। मॉनिटर की रेखा सीधी हो गई। मैं बिस्तर के पास ही खड़ा था। उसके माथे पर मैंने हाथ फेरा। वह ठण्डा पड़ चुका था।

दुनिया की सब से प्यारी महिला, मेरी मां, चल बसी।
(अमिताभ ने मां के निधन के बाद अपने ब्लाग पर जो भावनाएं प्रकट की थीं उसीका सम्पादित अंश)
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