मेरी मां की इच्छा

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मनुष्य चाहे जितनी सफलता प्राप्त कर लें या चाहे जितनी उसकी इच्छाएं पूरी हो जाए, लेकिन जीवन के अंत में सदा लगता है कि कोई न कोई छोटी इच्छा रह ही गई है! जब मनुष्य अंतिम सांसें गिनता होता है तब यह इच्छा पूरी करने की शक्ति चुक गई होती है। कोई पूछ ही लें तो दो-एक शब्द मुंह से निकल जाते हैं और इच्छा यदि शब्दों में आ जाए तो वह पूरी होने की कामना रहती है।

आनंदवन की माता

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आनंदवन के सृजन में बाबा आमटे की कर्मनिष्ठा का योगदान तो है ही; लेकिन उनकी पत्नी साधनाताई के मातृत्व का भी बड़ा सहयोग है। कुष्ठ रोगियों, नेत्रहीनों व विकलांगों की सेवा में ताई ने अपना जीवन भी होम कर दिया। आनंदवन की माता के रूप में ही उनकी पहचान है। बाबा-ताई के चले जाने के बाद यह कार्य उनके पुत्र डॉ. प्रकाश आमटे सम्हालते हैं। पेश है उनकी ही कलम से उनकी मां के बारे में.....

वेदों में मातृत्व

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वेदों मेें मां और उसके शिशु के संबंध के विषय में कई पहलुओं से वर्णन किया गया है। केवल जन्म देने के उपरांत ही मातृत्व आता है ऐसा नहीं है।

राजमाता जिजाबाई

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छत्रपति शिवाजी महाराज की मां जिजाबाई महाराज की मां ही नहीं; पिता और गुरु भी थी। जो स्वराज्य महाराज ने निर्माण किया था उसके पीछे प्रेरणा जिजाबाई ही थी।

मातृहृदयी साध्वी ॠतंभरा

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साध्वी ॠतंभरा प्रत्यक्ष में समाज जीवन की ‘दीदी मां’ कहलाती हैं। धार्मिक क्षेत्र के अलावा सामाजिक क्षेत्र में भी उनका अनोखा योगदान है। उनका पूर्व नाम निशा था।

एकमेवाद्वितीय…मेरी मां

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कई सारी असामान्य बातों के वरदहस्त के साथ ही मेरा जन्म हुआ। जबसे समझ आई, तभी से यह भी समझ में आया कि मैं अन्य ल़डकियों से बहुत अलग हूं और शायद इसलिए ही अन्य लोगों के कौतूहल का विषय भी हूं।

हमारी मातृसंकल्पना

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उदात्त, महन्मंगल मातृसंकल्पना का धनी एकमेव देश विश्व में है- वह है अपना भारत। स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने स्वतंत्रता देवी का वर्णन करते हुए लिखा था - जो जो उदात्त, उन्नत, मंगल, महन्मधुर हैं वह सब उसके सहचारी हैं। उसी तरह कह सकते हैं कि जो उदात्त, उन्नत, महन्मंगल, मधुर, स्नेहमय है, वे सब मातृत्वभाव के सहचारी हैं।

किराये की कोख

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भारतीय संस्कृति में दान की संकल्पना अति प्राचीन है। समाज व्यवस्था में इसे आदरणीय दृष्टि से देखा जाता है। दान चाहे धन का हो, वस्तुओं का हो या संतान का हर रूप में सम्माननीय है।

प्रेम और ममता की सागर मां

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लेखक शिवानंद पांडुरंग खेडकर प्रसिद्ध चित्रकार हैं। बचपन से ही चित्रकला उनका प्रिय विषय था। उन्होंने चित्रकला में 5 वर्षीय पाठ्यक्रम किया। उन्हें प्राचार्य वी.के.पाटील, प्रो. हरिहर, प्रो. देव जैसे प्रसिद्ध चित्रगुरुओं का मार्गदर्शन मिला।

माता शबरी

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वनवासी समाज के शक्ति केंद्र के रूप में प्रत्येक वनवासी ग्राम में शबरी धाम मंदिर बनाए जाने की योजना है। वर्तमान में गुजरात के डांग जिले में शबरी धाम स्थल है और वनांचल मित्र मंडल की ओर से इस धाम की यात्रा आयोजित की जाती है। इस सिलसिले में हाल में सिरवेल में एक बैठक का आयोजन किया गया।

विज्ञापनों में मां

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‘क्या हुआ? बच्ची रो रही थी। वुडवर्ड दे दो; वही तो मैं तुम्हें देती थी, जब तुम छोटी थी।’ पढ़कर कुछ याद आया? जी हां; ये उसी विज्ञापन की पंच लाइन है जो दूरदर्शन के जमाने से हम देखते आ रहे हैं।

पूरनपोली की पूर्णता: मेरी मां

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यह बात सन 1969-70 की है। तब मेरी उम्र 12-13 वर्ष रही होगी। मेरी दादी मां का निधन हुआ था। हम सब हमारे गांव देवका (गुजरात) गये थे। हमारे जीवराम चाचाजी विद्वान कथाकार थे। उनके साथ रहने के कारण मुझे भी भागवत कथा और भगवद्गीता की शिक्षा प्राप्त होती थी। सहज ही हममें धर्म और संस्कार का सिंचन होने लगा।

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