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मां की किडनी से मिला जीवन

मां की किडनी से मिला जीवन

by डॉ. तात्याराव लहाने
in मई -२०१४, सामाजिक
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किडनी का ऑपरेशन हुए एक ही बरस बीता; कहते-कहते काफी बरस बीत चुके और देखते ही देखते 20 बरस पूरे भी हो गए। अब तो जीने का हौसला काफी ब़ढा है। मां से ही किडनी मिली थी। जीवन में आए इस मो़ड के बारे में विख्यात नेत्र शल्य विशेषज्ञ तथा जे. जे. अस्पताल के डीन डॉ. तात्याराव लहाने की कहानी उनकी ही जुबानी।

एमबीबीएस की परीक्षा उत्तीर्ण हुआ और बीड जिले के अंबाजोगाई में नेत्र विशेषज्ञ की हैसियत से हाजिर हुआ। वहां के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में मन लगाकर काम कर रहा था। काम करने में कोई नाराजगी नहीं थी। उसके लिए कहीं भी जाने के लिए राजी था, मेहनत करने से इनकार नहीं था, लेकिन उसके बदले में मिलने वाली तनख्वाह अपर्याप्त थी, क्योंकि मेरे कंधों पर दो परिवारों की जिम्मेदारी थी। मेरे अपने परिवार की और साथ ही मेरी पत्नी के मायके के परिवार की भी। तभी तो डॉक्टरी पेशा करने पर मिलने वाली 7 हजार रुपयों की तनख्वाह काफी न लगती थी।

फलस्वरूप लगभग 1991 में नौकरी छो़डने का विचार मन में आना आरंभ हुआ। आगे चलकर नौकरी छो़ड देने का निर्णय पक्का हुआ और उसी दौरान 5 मई 1991 को वॉर्ड में राउंड लगाते समय अचानक सिर चकराने लगा। पास ख़डे लोगों ने मुझे संभाला, जिससे मैं नीचे नहीं गिरा, इतना ही; लेकिन जांच करने पर मेरा रक्तचाप बेहद ब़ढा दिखाई दिया। मेरे रक्तचाप को देख बाकी लोगों का रक्तचाप ब़ढ गया! क्योंकि, मेरा रक्तचाप सीधे 240/260 के ऊपर पहुंचा था। उससे मेरी आंखों में खून उतरा था। इसी जांच के दौरान डॉक्टरों को पाया कि मेरी दोनों किडनियां खराब हो चुकी हैं। वे तुरंत मुझे मुंबई ले आए।

मुंबई में लगभग एक महीना इलाज करवाकर फिर मैं अंबाजोगाई लौटा। किडनी प्रत्यारोपण करना अनिवार्य था, लेकिन उसके लिए रक्तचाप नियंत्रित होना जरूरी था। इस तरह ऑपरेशन के पहले डायलिसिस करना जरूरी हो गया। उन दिनों बीड या औरंगाबाद में डायलिसिस की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, इसलिए महीने में एक बार मुंबई जाकर मैं डायलिसिस करवाता। उसके पश्चात डायलिसिस का यह मामला पहले हर पखवा़डे और बाद में हफ्ते पर आया। उसी में मेरा रक्तचाप भी नियंत्रित नहीं हो रहा था। परिणामस्वरूप डॉक्टर ऑपरेशन करने की अनुमति नहीं दे रहे थे। आखिर सन 1995 में रक्तचाप नियंत्रित हुआ और डॉक्टर ने किडनी प्रत्यारोपण करने की अनुमति दी।

उस समय मेरी उम्र थी 38 वर्ष। मेरे साथ परिवार में चार बहनें, दो भाई और माता-पिता थे। वे सभी मुझसे इतना प्यार करते थे कि ऑपरेशन करने की अनुमति मिलते ही उनमें से हर कोई अपनी किडनी देने के लिए ख़डा हो गया। डॉक्टर तो सभी से काफी खुश हुए और मैं तो गद्गद् हुआ। सच कहूं तो उस क्षण मेरे शरीर का अंग-अंग कंपित हुआ। इन सभी में से किसी एक का भी जीवन अपने खातिर खतरे में डाल रहा हूं, ऐसा भी विचार क्षण भर के लिए मन में उभरा। परंतु मेरी इन समस्याओं की अपेक्षा परिवार के इन सभी के प्यार का मूल्य ब़डा था। दुनिया क्या कहेगी, इसे सोचने के लिए कोई राजी नहीं था। आखिरकार परिवार में से ही किसी की किडनी लेना तय हुआ और मां की ही लेने की बात पर मुहर लगी, क्योंकि परिवार के सभी लोगों की चिकित्सा जांच करने पर डॉक्टर का कहना था कि मां की किडनी ही मुझे ज्यादा मैच होगी। वैसे मजे की बात यह थी कि मां ने धमकी दे रखी थी कि उसकी किडनी अगर सही न हो तो वह और किसी की भी लेने से मना करेगी। इसका मतलब विज्ञान ने भी मां की ममता को ही सर्वोपरि साबित कराया।

आज जिस अस्पताल का मैं अधिष्ठाता (डीन) हूं, उस जे. जे. अस्पताल में ही 22 फरवरी 1995 को मेरा ऑपरेशन हुआ। डॉक्टर कामत साहब ने ऑपरेशन किया था। ऑपरेशन के पहले डॉक्टर साहब ने मुझे बीमा करवाने की सलाह दी, क्योंकि किडनी प्रत्यारोपण करवाने पर भी एक साल से ज्यादा मेरा जीवित रहना संभव नहीं था, ऐसा उनका मत था। मेरे परिवार की चिंता करते हुए ही उन्होंने मुझे वह सलाह दी थी और मैंने भी उस पर अमल किया। तुरंत बीमा पॉलिसी ली। इस हालत में मेरा ऑपरेशन हुआ। किसी भी प्रकार का जंतु संक्रमण न हो, इसलिए ऑपरेशन के उपरांत तीन दिनों तक मुझे ‘आईसीयू’ में रखा गया था, तब मां और कहीं थी। पूरे तीन दिन वह मुझे देख नहीं पाई, जिससे वह ब़डी ही बेचैन थी। किडनी निकालने की प्रक्रिया में नाभि से लेकर पीछे री़ढ की हड्डी तक उसके शरीर का विच्छेदन किया गया था और पूरे 166 टांके लगे थे, तो भी अपना दर्द सहते हुए, ‘बेटे की हालत आखिर कैसी है’, कहते वह मुझे देखने आई थी। मैंने कांच में से देखकर ही हाथ हिलाकर उसे इशारा किया। मुझे देखकर उसे ब़डी तसल्ली मिली।

फिर मैं तो उसे उसकी पीठ पीछे से निरखता ही रहा। मां जो थी वह मेरी और मेरी खातिर कुछ भी करने के लिए राजी जो थी, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं। लेकिन अपने प्राणों की अपेक्षा दूसरे के प्राण अधिक महत्वपूर्ण मानने की उसकी धारणा मुझे ब़डी ही प्यारी लगी। उसी क्षण कुछ तो मेरे भीतर चमक उठा और मैंने तय किया कि अब सरकारी डॉक्टर की नौकरी हरगिज छोडूंगा नहीं! आज से नौकरी पैसा कमाने के इरादे से नहीं, सेवा करने के लिए करूंगा! मेरे जीने का उद्देश्य ही बदल गया। मानो मां की किडनी ने ही मेरी जिंदगी को ऐसा नया मो़ड दिया था। जैसे उसके हृदय में भरी ममता ही उसकी किडनी के साथ मेरे अंदर आ बसी हो!

….और तब से रोगियों की सेवा ही मेरे जीवन का ध्येय बन गया। उस समय मेरी उम्र थी 38 बरस तथा किडनी प्रत्यारोपण होने पर भी डॉक्टरों ने मुझे एक ही बरस दिया था। उससे बचे हुए उस एक वर्ष की अवधि में ही मैंने आगामी 40 वर्षों की जिंदगी जीने का निर्णय किया। जुट गया काम करने में! मामूली से नेत्र विकारों से जिनकी जिंदगी दांव पर लगती है, ऐसे मरीजों का इलाज करना आरंभ किया। अंबाजोगाई से ही नेत्र विशेषज्ञ के रूप में मेरी ख्याति फैल चुकी थी। उसी के बल पर मुंबई के जे. जे. अस्पताल के नेत्र विभाग में मेरी नियुक्ति की गई। यह मेरे लिए ब़डा लाभप्रद रहा। जे. जे. में ब़डी तेजी से मैं काम करने लगा। मैं जे.जे. में पहुंचा, तब वहां के नेत्र विभाग में साल भर में गिनी चुनी 600 शल्य क्रियाएं हुआ करती थीं। अब तो यहां साल भर में 19 हजार शल्य क्रियाएं होती हैं। आरंभ में इस विभाग में मेरे साथ केवल डॉ. रागिनी पारेख थीं। अब यहां के डॉक्टर तथा अन्य सहयोगियों की संख्या 67 पर पहुंची है। यहां का नेत्र विभाग भी अब बिल्कुल अत्याधुनिक बना हुआ है। शल्यक्रिया में भी काफी प्रगति हुई है। पहले ऑपरेशन के पश्चात मरीज को 40 दिनों तक आराम करना जरूरी होता था। आज की आधुनिक मशीनों के फलस्वरूप मरीज सातवें दिन अपने काम पर जा सकता है।

मेरा किडनी का ऑपरेशन होने के उपरान्त एक वर्ष पूरा हो रहा था, तब सच कहूं, मन में बेचैनी ब़ढती जा रही थी। अपना आखिर क्या होने जा रहा है, ऐसा सवाल बार-बार सामने उभरता; पर बाद में उस विचार को भी मन से हटा दिया। जिंदगी जितनी भी मिली है, वह सारी मरीजों की सेवा करने में ही बिताना तय किया। तब जाकर जे. जे. का अहाता भी मुझे अधूरा दिखाई देने लगा। यहां आने वाले मरीजों को जो सेवा उपलब्ध होती है, वही गांव-देहातों के मरीजों को भी मिलनी चाहिए, ऐसा मैंने सोचा और नेत्र शिविरों का आयोजन करना शुरू किया। पहला शिविर परभणी में संपन्न हुआ, उसके पश्चात महान समाजसेवी बाबा आमटे के आनंदवन में किया। वहां आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्र के लोगों से मिला, प्रतिसाद अपूर्व ही था। तब से पिछले 14 वर्ष लगातार वहां नेत्र शिविर आयोजित कर रहा हूं। महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में आज तक पूरे 173 नेत्र शिविर आयोजित किए। हमारी टीम हर रोज 18 घंटे मेहनत कर रही थी। छह दिनों में 15 हजार मरीजों का इलाज किया तो मोतियाबिंद के 180 ऑपरेशन किए। उन्हें लेकर आज तक पूरी 65 हजार से अधिक नेत्र शल्य क्रियाएं की हैं और उनमें से सभी सफल रही हैं।

मरीज कहां-कहां से आते हैं और लौटते हुए आंखों में हंसी लिए जाते हैं। सच कहूं तो ऑपरेशन के उपरांत आंखों में दृष्टि की ज्योति फिर से लौट आने पर उनकी आंखों में संतोष के जो भाव उभरते हैं उन्हें देखने में ब़डा सुख होता है। मां की किडनी से जीवनदान मिलने पर आंखों की बीमारी से त्रस्त मरीजों को नेत्रदान करने का व्रत अपनाया। उसे आज तक जिस निष्ठा से निभा रहा हूं, उसी निष्ठा से उसे आगे भी निभा सकूं, इतनी ही इच्छा है।
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