प्रेम और ममता की सागर मां

लेखक शिवानंद पांडुरंग खेडकर प्रसिद्ध चित्रकार हैं। बचपन से ही चित्रकला उनका प्रिय विषय था। उन्होंने चित्रकला में 5 वर्षीय पाठ्यक्रम किया। उन्हें प्राचार्य वी.के.पाटील, प्रो. हरिहर, प्रो. देव जैसे प्रसिद्ध चित्रगुरुओं का मार्गदर्शन मिला। विश्वप्रसिद्ध चित्रकार बेंद्रे, लक्ष्मण पै, व्याख्याता प्रो. आंबेडकर का भी मार्गदर्शन मिला। गोमंतकीय देवालय, पुरातन वास्तु शिल्पों का अध्ययन कर आधुनिक जीवनावश्यक वस्तुओं से कलाकृतियों का निर्माण करने का उन्हें अवसर मिला। उन्होंने इसे मृत्तिका काम, मुखौटे, गुड़िया, कपड़ों का पेहराव, भित्तीचित्र, द्विमिती, चित्रमिती आदि से साकार किया। इसी बीच भारत सरकार के गोवा में कला क्षेत्र में वरिष्ठ पदाधिकारी के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। ‘शिवस्मृति’ उनकी कला की अविस्मरणीय थाती है। वे कहते हैं, ‘मैंने भले ही शिवस्मृति का कलश चढ़ाया, लेकिन शिवस्मृति की नींव रखने वाले पत्थरों के आशीर्वाद को मैं भूल नहीं सकता।’ पेश है लेखक के अपनी मां के बारे में अनुभव-

मेरी मां का वर्णन क्या और किस तरह करूं? जीवनभर जिसे अनुभव किया उस विषय के बारे में लिखते हुए शब्द कम पड़ते हैं… यही बात मेरी मां के बारे में लिखते समय हो रही है। अपनी मां का वर्णन करते समय बड़े-बड़ों को भी कहां से शुरू करें और कहां अंत करें यह प्रश्न हल नहीं हो पाया तो मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति का क्या हो?

मां को मैंने कभी तड़के पांच के बाद और रात में ग्यारह बजे के पहले कभी बिस्तर पर पड़ते नहीं देखा। दिनभर लगातार खटते रहना ही उसका मानो नित्य क्रम ही था। दोपहर में भी वह जरा भी नहीं लेटती। उसका विश्राम काम बदलने में ही होता। लेकिन उसके माथे पर कभी शिकन तक नहीं देखी। सदा मुस्कुराते चेहरे से आने-जाने वालों का स्वागत करने में ही उसे आनंद मिलता था। अतः वे केवल हमारी मां नहीं रह गई, अनेक लोग उसे ‘मां’ कहकर पुकारते थे। मां ने भी उनसे पुत्रवत प्रेम किया। इतने परिश्रम करने पर भी मां के लिए यह कैसे संभव हो पाता है, यह आश्चर्य मुझे सदा रहा है।

भोजन में भी उसे अन्नपूर्णा प्रसन्न थी। मां की बनाई आम की सिल्लियां और आटे के लड्डू इतने स्वादिष्ट हुआ करते थे कि उसके हाथ का पका भोजन पाने वाला कोई व्यक्ति उसका स्वाद नहीं भूल सका। इसका कारण यह कि मां पाककला के साथ उसमें अपनी ममता उंडेलना भी कभी नहीं भूली।

आने जाने वालों का मुस्कुरा कर स्वागत करना, उनका आतिथ्य करना, भोजन बनाना, बच्चों को सम्हालना ये बातें मां को इतनी अच्छी तरह आती थी कि उनके जैसी महिलाएं बहुत कम होंगी। यह सब मां कहां से सीखी, पता नहीं। उसकी मां से कहें तो वह भी संभव नहीं, क्योंकि उसकी मां जब वह चार साल की थी तभी चल बसी थी। मेरी मां मेरे लिए मात्र मां ही नहीं थी अपितु अच्छी दोस्त भी थी। उसके अच्छे संस्कारों के कारण ही हम सही मार्ग पर चल पड़े।

मां ने कभी अपना दुख दुनिया को बताकर सांत्वन पाने की कोशिश नहीं की। क्योंकि यह उसका स्वभाव ही नहीं था। ईश्वर ने भी उसे सुदृढ़ रख कर उस पर एक तरह से उपकार ही किया था। फिर उसके जीवन का अंत इस तरह क्यों हो? क्या नियति को उसका और हमारा सुख रास नहीं आया? मां ने आज तक कोई बात मुझ से छिपाई नहीं थी। लेकिन इस बीमारी के बारे में कभी बोलने वाली होगी, लेकिन रह गया। शायद मां ने विचार किया होगा कि बच्चों को यह बात बताकर परेशान क्यों किया जाए! आज न कल ठीक हो ही जाएंगी। लेकिन जब उनकी बीमारी के बारे में पता चला तब देर हो चुकी थी। इस असाध्य बीमारी ने अंत में मां का बलि ले ही लिया।

आज भी उसका घर में हमारे मन में अस्तित्व इतना पक्का है कि इतने दिनों बाद भी मां हमारे बीच में नहीं है यह मानने के लिए मन तैयार नहीं होता। उसने हम पर जो संस्कार किए उनमें मां आज भी अस्तित्व में है।

मेरी मां का नाम था श्रीमती लीलावती पांडुरंग भट खेडेकर। उसने अपना सारा जीवन हरवले स्थित तीर्थक्षेत्र श्री रुद्रेश्वर के चरणों में धर्मशाला में बिताया। इस क्षेत्र में आने वाले भक्तों-भाविकों की अन्नपूर्णा बनकर उम्र के 15वें वर्ष से 80 वर्ष की आयु तक अन्नदान में ही जुटी रही।

उनका जन्म 23 दिसम्बर 1932 को शिलवाडा सावई वेरे गांव में काशीनाथ चाफाडकर घराने में हुआ। पहाड़ी पर रवामीणदेवी का छोटा सा मंदिर था। इसी घाटी में अनानस, नारियल, केले के बीच एक छोटा सा कवेलू से बना मकान था। इसी मकान में मेरी मां का बचपन बीता।

मां उम्र के तीसरे वर्ष में ही मातृविहीन हो गईं। जेष्ठ बंधु श्रीपाद (दादा) ने पिता के समान इस शिशु भगिनी को मां की ममता की कमी महसूस नहीं होने दी। गांव के सत्यनारायण के मंदिर की प्राथमिक स्कूल में उनकी आरंभिक शिक्षा हुई। यहीं से गोमंतक के स्वातंत्र्य संग्राम की चिंगारी उठी थी। यह प्रेरणा का उगम स्थान था।

उन दिनों गांव में विभिन्न संगीत नाटक खेले जाते थे। बचपन में ही अभिनय का दान मिली इस कन्या को गुरुवर्य श्री सखारामबुवा (सखामामा) अभिषेकी के मार्गदर्शन में इन नाटकों में अभिनय का अवसर मिला। इन कलाकारों के साथ काम करते हुए एक कलाकार से मन का धागा जुड़ गया। निकटवर्ती देहात के श्री केशव विनायक भट खेडेकर घराने के जेष्ठ पुत्र पांडुरंग (आबा) से उम्र के 13हवें वर्ष में वे विवाहबद्ध हुई।

श्री क्षेत्र हरवले में रुद्रेश्वर के देवालय में अर्चक के रूप में पति को बुलाया गया और इसीके साथ वे यहां आ गईं। 1952 से 2012 तक का उसका जीवन प्रवास यहीं हुआ। इस अवधि में पांच कन्याओं व एक पुत्र का जन्म यहीं हुआ। कन्याएं थीं- उत्तरा, कुमुदिनी, ललिता, गीता, लता व आशा। पुत्र था मैं। बहनों में से लता का निधन बचपन में ही हो गया। मेरे पिता पांडुरंग उर्फ आबा का निधन 56वें वर्ष की उम्र में हुआ। मां ने ममता के साथ पिता की छाया भी अपनी संतानों को दी।

मेरे पिता के कार्यों, सेवा व श्रद्धा की फलश्रुति अनुभव हो रही थी। भक्तों का आना-जाना बढ़ रहा था। पिता की इस आराधना में खंड न हो इसलिए मां ने 23 दिसम्बर 1984 को मेरे पिता के निर्वाण के दिन ही इच्छा प्रकट की कि मैं शिवसेवा करूं। मैंने उनकी इच्छा को स्वीकार कर लिया। उनकी जीवन गाथा 80वें वर्ष में शनिवार श्रावण शुक्ल अर्थात दि. 21 जुलाई 2012 को शाम 4 बजकर 21 मिनट पर ‘शिवस्मृति’ नामक अपने संकुल में अनंत में विलीन हो गई।
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