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शास्त्रीय एवं लोक संगीत

शास्त्रीय एवं लोक संगीत

by डॉ. प्रज्ञा शिधोरे
in जून -२०१४, साहित्य
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भारतीय संगीत के प्राचीन ग्रंथों में शास्त्रीय संगीत के लिए और उसके विभिन्न रूपों के लिए नामों का उल्लेख अवश्य मिलता है। वैदिक काल में शास्त्रीय संगीत गांधर्व के नाम से ख्यात था और अन्य प्रकार का संगीत गान के नाम से जाना जाता था। गांधर्व के सम्बंध में अभिनव गुप्त, शारंगदेव, नान्यभूपत आदि संगीतज्ञों ने इसे अदृष्ट मोक्षदायक कहा है। आचार्य भरत ने ‘अत्यर्थमिष्टं देवानां तथा प्रीतिकरम्’ अर्थात देवताओं को अत्यंत ईष्ट तथा प्रीतिकर है। इसका तात्पर्य यह है कि जो कर्म, कार्य या वस्तु देवताओं को प्रिय है उन्हें समर्पित करने से स्वर्गफल या मोक्षफल प्राप्त होता है। इसलिए ‘गांधर्व’ को अपरिवर्तनीय माना गया है।

वही दूसरी ओर आचार्य भरत ने स्वर, जाति, ग्राम, रागों का प्रयोग विभिन्न रसों के अनुसार नाट्य में किए जाने का उल्लेख किया है, वहां पर आपने गान शब्द का प्रयोग किया है। तात्पर्य यह कि गांधर्व के विषयों का विनियोग गान कहलाता है। जिन विषयों का विनियोग गान में नहीं किया जा सकता वह गांधर्व है अर्थात जिसका स्वरूप स्वर-ताल प्रधान, प्रवृत्ति-निवृत्ति प्रधान, दृष्ट-अदृष्ट फलदायक, अनादिकाल से परम्परागत रूप में चला आ रहा हो, जो अन्य उपरंजकत्व गुण से विहीन अर्थात किसी से प्रभावित न हो एकदम शुद्ध व पवित्र हो गांधर्व कहलाता है।

वही दूसरी ओर जहा स्वरों, श्रुतियों के प्रयोग कि विचित्रता, रसों के अनुरूप परिवर्तन, लोकरंजन की दृष्टि से प्रवृत्त, पद की प्रधानता, अन्य उपरंजकत्व गुण से परिपूर्ण हो वह गान कहलाता था।

कालांतर में यही गांधर्व और गान मुनि मतंग के काल में मार्गी और देशी नाम से प्रचलित हुआ। मतंग के ग्रंथ बृहद्देशी में मार्गी एवं देशी नाम प्रधान रूप से मिलता है। भरत के काल में यह नाम स्वतंत्र रूप से नहीं मिलते; परंतु मतंग के काल में यह नाम बहुतया मात्रा में मिलता है। जो स्वरूप एवं वर्णन गांधर्व के लिए उपयोग में लाया गया है वही मार्गी हेतु प्रयुक्त हुआ है। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में गांधर्व के साथ मार्ग शब्द का प्रयोग मिलता है। लव-कुश द्वारा रामायण का गान करना गांधर्व कहलाता है एवं वह जिस विधि से गाया गया है वह ‘मार्ग विधान’ है। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि गांधर्व के नियमों को ही मार्ग विधान कहा गया हो। इस प्रकार हम यह मान सकते हैं कि रामायण काल में गांधर्व के साथ मार्ग शब्द का प्रयोग भी प्रचलित हो गया होगा।

गान का स्वरूप और वर्णन जो भरत काल में रहा उसके अनुरूप ही मतंग के बृहद्देशी ग्रंथ में देशी का उल्लेख मिलता है। मतंग ने रागों को दो भागों में विभक्त किया, जो मार्गी और देशी कहलाये। बृहद्देशी में उल्लेखित देशी का परिचय निम्न श्लोक से और भी स्पष्ट हो जाता है-

नाना विशेषु देशेषु, जंतूनां सुखदो भवेत्।
तत: प्रभूति लोकानां नरेद्राणां यदृच्छया।्।
देशे-देशे प्रवृत्तोऽ सौ ध्वनिर्देशीति संज्ञित: ।
(बृहद्देशी- श्लोक 197 से आगे)
(संदर्भः भारतीय संगीत शास्त्र, तुलसीराम देवांगन)

तात्पर्य यह की विभिन्न देशों में बसने वाले प्राणियों को सुखद एवं विभिन्न देशों के राजाओं की इच्छा से तथा भिन्न-भिन्न देशों की प्रवृत्ति, यथा आचार, विचार, मानसिक झुकाव से जो ध्वनि (धुन) प्रचलित होती है, उसे देशी कहते हैं। एक अन्य श्लोक में देशी का उल्लेख मिलता है कि-

अबलाबाल गोपालै: क्षिति पालै: निजेच्छ्या ।
गीयते सानुरागेण स्वदेशे देशिरुच्यते ॥
बृहद्देशी-श्लोक 13
(संदर्भ- भारतीय संगीत शास्त्र- तुलसीरम देवांगन)

उपरोक्त श्लोकों के आधार पर देशी के तीन विशेष अर्थ परिलक्षित होते हैं। पहला- देशी यह लोकईच्छा पर आधारित है एवं उसका लक्ष्य मनोरंजन है। दूसरा- देश की सीमा में स्त्रियों, बाल गोपालों द्वारा गाये गीतों का समावेश भी हो जाता है और तीसरा- राजा की सभा में मनोरंजनार्थ गाये जाने वाले नियमबद्ध गीत हैं।

उपरोक्त कथनों के आधार पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भरत काल में जो गांधर्वगान कहलाया जाता था उसके स्थान पर मतंग ने मार्गी-देशी का प्रयोग किया है। इसके पश्चातवर्ती आचार्य शारंगदेव ने अपने ग्रंथ ‘संगीत रत्नाकार’ के प्रथम अध्याय में मार्गी-देशी को उल्लेखित कर लिखा है-

मार्गो देशीति तद् द्वेधा तत्र मार्ग: स उच्यते ।
यो मार्गितों विरिशाच्याद्यै: प्रयुक्तों भरतादिभि:॥2॥
देवस्य पुरत: शंभोर्नियताभ्युदय प्रद: ।
देशे देशे जनानां यदुच्या हृदयरंजकम् ॥23॥
गीतं च वादनं नृत्यं तद्देशीत्यभिधियते ।
संगीत रत्नाकर- अध्याय 1 पं.शारंगदेव
(संदर्भः भारतीय संगीत शास्त्र-तुलसीराम देवांगन)

अर्थात संगीत के दो प्रकार मार्ग और देशी हैं। मार्ग वह है जिसकी खोज ब्रह्मादि देवों ने की है और जिसका प्रयोग भरत आदि आचार्यो ने भगवान शंकर के सामने किया तथा जो निश्चय ही अभ्युदय देने वाला है। देश-देश के भिन्न जनों की रुचि के अनुकूल हृदयरंजक, मनोरंजक गीत, वादन और नृत्य को देशी कहा गया।

कालांतर में मार्गी एवं देशी यह शास्त्रीय संगीत एवं सुगम संगीत के नाम से जाना जाने लगा। शास्त्रीय संगीत यह गांधर्व तथा मार्ग संगीत के अनुरूप पारलौकिक अभ्युदय अर्थात स्वर्गफल, मोक्षफल प्रदान करने वाला संगीत माना जाता है। सुगम संगीत यह गान तथा देशी संगीत अनुरूप जनरंजन, लोकरंजन, मनोरंजन को साकार करता है। पारलौकिक अभ्युदय प्रदान करने वाला संगीत अर्थात आधुनिक कालीन शास्त्रीय संगीत है, जिसके अंतर्गत ध्रुपद,धमार, ख्याल, आदि शैली का गायन होता है एवं जनरंजन, मनोरंजन, लोकरंजन करने वाला संगीत आधुनिक काल में सुगम संगीत कहलाता है, जिसके अंतर्गत लोकगीत, क्षेत्रीय गीत, फिल्मी गीत, भजन, गजल आदि प्रकार की शैलियां समाहित हैं, जो देशी संगीत को चरितार्थ करती हैं।
यदि हम आधुनिक काल के परिपे्रक्ष्य में शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत (सुगम संगीत), जो कि प्राचीन काल में गंधर्व-गान, मार्गी-देशी कहलाए जाते थे इनके परस्पर सम्बंध पर दृष्टिपात करें तो हम यह पाते हैं कि रंजकता का गुणधर्म यह दोनों ही विधाओं के लिए अति आवश्यक है। रंजक स्वर संदर्भ को गीत कहा गया है, जिसका प्रयोग दोनों ही विधाओं में होता है। गांधर्व, मार्गी संगीत यह पारलौकिक, मोक्षदायक एवं परम्परागत है। यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शास्त्रीय संगीत की तुलना करें तो अति प्राचीन और प्राचीन परम्पराओं का पूर्ण रूपेण पालन तो नहीं करता है फिर भी काफी सीमा तक पालन कर रहा है। जैसे कुछ राग 50-100 वर्षों पुराने हैं जिनका गायन या वादन संगीतज्ञ आज भी कर रहे हैं। कुछ संगीतज्ञों द्वारा इनमें परिवर्तन, नए प्रयोग करने के पश्चात परिवर्तित स्वरूप में रहते तो हैं परंतु अपने मूल स्वरूप में स्थिर रहते हैं।

इसका दूसरा पक्ष गान, देशी और सुगम संगीत की आपस में तुलना करें तो हम पाते हैं कि इसका प्रयोग प्राचीन काल से आधुनिक काल तक परिवर्तनशील रहा है। अर्थात यह क्षेत्रीय, जातिगत, भाषागत, देशगत आदि बातों पर निर्भर करता है। इसका उद्देश्य लोकरंजन, मनोरंजन, जनरंजन है। इसकी रचना अनेक आचार्य, विद्वान विभिन्न क्षेत्र मेेें रहने वाले लोग करते हैं। इसलिए सुगम संगीत की विभिन्न शैलियां जैसे लोकसंगीत, भजन, गजल, कव्वाली, फिल्मीगीत आदि प्रकार के गीतों में हमें विविधता दिखाई देती है।

उपरोक्त दृष्टांतों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि लोक संगीत यह सुगम संगीत का ही रूप है जो प्राचीन काल में गान या देशी कहलाया जाता था। शास्त्रीय संगीत यह गांधर्व एवं मार्गी के रूप को साकार करता है। गायन की इन दोनोें ही विधाओं में रंजकता गुण विद्यमान होने के कारण ही यह संगीत को चरितार्थ करता है।
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