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जिम्मेदार कौन?

जिम्मेदार कौन?

by pallavi anwekar
in जुलाई -२०१४, सामाजिक
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यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्र: तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणं किं करिश्यसि॥

अर्थात जो स्वयं बुद्धिहीन है उसके लिए शास्त्र कुछ नहीं कर सकते, वे उसके किसी काम के नहीं हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह दृष्टिहीन के लिए आईना किसी काम का नहीं होता।

यहां इस सुभाषित का प्रयोग समाज के लिए अर्थात हमारे लिए किया गया है। हम भले ही शारीरिक रूप से दृष्टिहीन नहीं हैं, परंतु कई बार वैचारिक रूप से जरूर बन जाते हैं। कई बार हमें हमारी छोटी-छोटी गलतियां दिखाई नहीं देतीं और उनकी वजह से कोई ब़डा हादसा हो जाता है। अभी कुछ दिन पूर्व ही खाली स़डक पर सिग्नल तो़डने (हमारे समाज की मानसिकतानुसार छोटी सी गलती) के कारण भाजपा के वरिष्ठ नेता गोपीनथ मुंडे का देहांत हो गया। गलती किसी की भी हो, परंतु यह सत्य है कि दुर्घटना में एक जान चली गई। गोपीनाथ मुंडे ब़डी हस्ती थे अत: घटना के बाद हर संभव कारणों की मिमांसा हुई। पुरानी सरकार को चौराहों पर सीसीटीवी कैमरे न लगाने के कारण कोसा गया तो नई सरकार से सख्त कानून बनाने की मांग की गई। परंतु क्या किसी ने सोचा कि असल मुद्दा तो यह है कि सिग्नल तो़डने के पीछे ड्राइवर की मानसिकता क्या थी? जिस समाज में कानूनों को तो़डना ही शान माना जाता है या लोगों की सोच ही यह है कि कानून तो तो़डने के लिए ही बनाए जाते हैं, वहां कोई क्या कर सकता है। कोई भी सरकार आए, कितने भी सख्त कानून बनें कोई फर्क नहीं प़डेगा, क्योंकि उन पर अमल न करना ही हमारा स्वभाव बन चुका है।

इस विषय से संबंधित एक छोटी सी कहानी याद आती है।
ऑपरेशन थियेटर के बाहर एक मजबूर पिता डॉक्टर के इंतजार में चिंतित होकर घूम रहा था। उसका बेटा ऑपरेशन टेबल पर जख्मी अवस्था में लेटा हुआ था। डॉक्टर ने जल्दबाजी में अस्पताल में प्रवेश किया। डॉक्टर को आते देख वह पिता उनकी ओर लपका परंतु डॉक्टर अपने सहयोगियों और नर्सों को निर्देेश देकर ऑपरेशन थियेटर में दाखिल हो गए। कुछ समय बाद जब वे ऑपरेशन पूरा करके बाहर निकले तो उस मजबूर पिता को केवल इतना दिलासा देकर जल्दबाजी में वापस लौट गए कि उनका बेटा खतरे से बाहर है। डॉक्टर का यह रवैया उस मजबूर पिता को नहीं भाया। जूनियर डॉक्टर पर अपनी भ़डास निकालते हुए उसने कहा कि ‘क्या आपके डॉक्टर साहब को इतना भी सऊर नहीं कि वे मुझसे बात करते और मेरे बेटे की हालत की जानकारी देते। जूनियर डॉक्टर ने उससे कहा ‘स़डक दुर्घटना में आपके बेटे ने जिस ल़डके को टक्कर मारी थी, वो डॉक्टर साहब का ही बेटा था। उसकी मृत्यु हो चुकी है और उसकी अंत्येेेष्टि के लिए डॉक्टर साहब का सब इंतजार कर रहे हैं।’

हममें से अधिकांश लोगों ने यह कहानी पढ़ी या सुनी होगी। और अब जब सोशल मीडिया इतना मजबूत हो गया है कि जब भी किसी स़डक दुर्घटना की खबर आती है, यह कहानी हर बार अपने आप संदेशों में घूमने लगती है। समाज में कहानी के डॉक्टर की तरह के लोग भी हैं जो अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हैं, परंतु दुर्भाग्य से इनकी संख्या बहुत कम है। बात केवल स़डक हादसों की नहीं है। बात है हमारे अंदर के सामाजिक कर्तव्यों को जागरूक करने की।

आज दिल्ली, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्य बिजली की कमी से जूझ रहे हैं। केंद्र सरकार दिल्ली में रात को 10 बजे के बाद मॉल बंद करने का विचार कर रही है, जिससे खपत कम की जा सके। बिजली उत्पादन बढ़ाना, उसके लिए नए प्रोजेक्ट लगाना इत्यादि भले ही सरकार के काम हों, परंतु प्राप्त बिजली को बचाना तो हमारा ही कर्तव्य है। हमारे घर के जिस कमरे में कोई सदस्य नहीं बैठा है वहां के लाइट और पंखे आदि बंद करने सरकार का कोई मंत्री या अधिकारी नहीं आएगा। वह तो हमें ही बंद करने होंगे। यहां एक और विचार सामने आता है कि जब हम बिजली का बिल भरने में सक्षम हैं तो हम क्यों इस ओर ध्यान दें? क्या यह सोच सही है? अगर हम यह सोचें कि हम जितनी अनावश्यक बिजली का गंवा रहें हैं वह किसी और को मिल सकती है। किसी और के घर में भी उजाला हो सकता है। नियमों को तो़डना, कानून का उल्लंघन करना ऐसा क्षेत्र है जहां जाति-पति, अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं है। खासकर स़डक हादसों में तो यह अकसर देखा जाता है कि गलती भले ही पैदल चलने वालों की हो परंतु दोषारोपण ब़डी गा़डी वालों पर ही होता है। बिजली के मामले में भी यही हाल है। मध्य प्रदेश में कुछ वर्षों पूर्व तत्कालीन सरकार के द्वारा एक बत्ती कनेक्शन की योजना चलाई गई थी। योजना का मूल उद्देश्य ऐसे लोगों के घरों में उजाला करना था जो बिजली के बिलों का भुगतान करने में असमर्थ थे। लेकिन लोगों ने इस एक बत्ती कनेक्शन के बूते आटा चक्की तक लगा ली थी। बिजली की चोरी भी बिजली की कमी का महत्वपूर्ण कारण है। घर के सामने या ऊपर से जाने वाले बिजली के तारों पर कांटे डालकर बिजली चुराना लोग अपना हक समझने लगे हैं। और तो और वे इस कार्य का बखान भी कुछ इस तरह से करते हैं जैसे कोई मैदान मारकर आए हों। जिस काम पर शर्म आनी चाहिए उसका बखान करना ही हमारी ओछी सोच का प्रतीक है।

हमारे यहां के तथाकथित ‘फॉरेन रिटर्न’ लोग वहां की सफाई की ब़डी डींगें हांकते हैं। परंतु भारत में आने के बाद उन्हें जाने क्या हो जाता है। शायद यहां की हवा में ही कुछ बात है जो लोगों को कचरा स़डकों पर डालने के लिए मजबूर कर देती है। भले ही प्रशासन ने जगह-जगहकचरा पेटियां रखी हों, पर मजाल है कि कोई वहां तक जाने की जहमत उठाए। हमें तो केवल हमारा घर साफ रखने से मतलब है, बाकी की चिंता हम क्यों करें? रेल, बस, पार्क, मॉल इत्यादि जैसे सार्वजनिक स्थानों पर हम ब़डी शान से मूंगफ लियां या अन्य नाश्ता खाते हैं और कागज को मरो़ड कर वहीं फेंक देते हैं।

महानायक अमिताभ बच्चन ने इस संदर्भ में एक किस्सा सुनाया था। उनकी कार एक सिग्नल पर रुकी थी। उनकी कार के आगे वाली कार में बैठी एक महिला ने कुछ खाया और कागज कांच के बाहर फेंक दिया। अमिताभ बच्चन से रहा नहीं गया, वे उतरकर उस महिला के पास पहुंचे और ऐसा न करने की सलाह देने लगे। वह महिला उनकी सारी बातों को अनसुना कर उनसे ऑटोग्राफ की मांग कर बैठी। अमिताभ बच्चन ने बताया कि उस वक्त उन्हें इतना गुस्सा आया कि अपनी जिम्मेदारी समझने के स्थान पर वह महिला मेरे व्यक्तित्व से अभिभूत हो रही थी। अभिनेताओं द्वारा फिल्मों में किए गए कामों का हम तुरंत अनुसरण करते हैं, परंतु अगर वह वास्तविक जिंदगी में कुछ अच्छा कहें या करें तो बजाय उसकी बात सुनने के हम उसके ही आभामंडल में खो जाते हैं।

विदेशों और भारत की तुलना करने वाला और विषय है स़डकें। जो कभी भारत के बाहर नहीं गया है, वह भी विदेशों की स़डकों की तारीफ करता है। मक्खन की तरह चिकनी स़डक की कल्पना सभी के दिमाग में होती है। लालू प्रसाद यादव ने जब बिहार की स़डकों को हेमा मलिनी के गालों जैसी चिकनी बनाने की बात कही तो वह चर्चा का विषय बन गया था। चलिए ये मान लें की लालू ऐसा कर भी देते तो क्या हम अंदाजा लगा सकते हैं कि यह कितने दिनों तक अच्छी रहती या उनमें कोई गड्ढे नहीं होते? 2 दिन, 3 दिन या ज्यादा से ज्यादा से एक हफ्ता। जी नहीं! इसका कारण स़डक निर्माण की खराब गुणवत्ता नहीं है, बल्की हमारे यहां के शादी-ब्याह और अन्य पारिवारिक कारण हैं। अब भई घर के सामने स़डक है तो किराए से हॉल लेने की क्या जरूरत है। ठोको तंबू स़डक पर और कर लो अपने कार्यक्रम। और कार्यक्रम होने के बाद किसे फर्क प़डता है कि उन गड्ढों का क्या हुआ। उन्हें फिर से भरना तो दूर, उनके ब़डा होने पर हम फिर तैयार हो जाते हैं प्रशासन को खरी-खोटी सुनाने के लिए। बारिश का मौसम आ गया है। जब-जब यह मौसम आता है तब-तब मुंबई वासियों को 26 जुलाई की बाढ़ याद आ जाती है। फिर शुरू हो जाती है बहस, बाढ़ का कारण रही मीठी नदी की सफाई पर। जिसके लिए फिर प्रशासन को दोष देने का सिलसिला शुरू हो जाता है, जैसे कि उन दस-बारह लोगों ने ही पूरे साल में इसे खराब किया हो। मानव का यह स्वभाव है कि वह ब़डी आसानी से दूसरों की गलतियों पर उंगलियां उठाता है। अपनी कमियां उसे कभी दिखाई नहीं देतीं या वह उन्हें अनदेखा कर देता है। आज हमारे देश में परिवर्तन की बयार है। हमने सत्ता में परिवर्तन किया है। अब आवश्यकता है हम अपनी सोच में भी बदलाव करें। नई सरकार जनता को सभी सुविधाएं प्रदान करने के लिए कटिबद्ध दिखाई देती है। अब हमें यह तय करना है कि हमें उन सुविधाओं का उपयोग करना है या दुरुपयोग कैसे करना है। दुबई जैसे मरुस्थल पर अगर नंदन वन बन सकता है, हिरोशिमा-नागासाकी जैसे शहर अगर और अधिक सुंदरता के साथ बसाये जा सकते हैं तो सर्वसुविधायुक्त भारत सुंदर और संपन्न क्यों नही बन सकता? विदेशों से भारत की तुलना करते रहने की बजाय हम ये सोचें कि वे देश कैसे विकसित हुए। वे इसलिए ऐसा कर पाए क्योंकि उन देशों की जनता ने भी सरकार के साथ मिलकर देश को आगे बढ़ाने का जिम्मा उठाया। आज अब भारत में भी ऐसा ही करने का समय आ गया है। भारी मतदान करने के बाद अगर हम कर्तव्यपूर्ति की भावना लिए हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो हम कभी विकास नहीं कर पाएंगे।

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥

कार्य करने से ही सिद्ध होते हैं, केवल मनोरथ से नहीं। जंगल के राजा सिंह को भी भोजन के लिए शिकार करना ही प़डता है। सोते सिंह के मुंह में कोई हिरण अपने आप नहीं जाता।

कोई भी सरकार विकास थाली में परोसकर हमें नहीं दे सकती। हमें भी उसके लिए कार्यरत रहना होगा।

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