सावन के व्रत-त्यौहार

हिंदू काल गणना के अनुसार श्रावण पांचवां महीना है। इस महीने की पूर्णिमा के आस-पास श्रवण नक्षत्र होता है। अत: इस महीने का नाम श्रावण प़डा।
चैत्र, वैशाष आदि नाम भी नक्षत्रों के आधार पर ही प़डे हैं। महाराष्ट्र में ये नाम ‘ब्राह्मण काल’ से जाने गए। इसके पूर्व मराठी महीनों के नाम 1) मधू 2) माधव 3) शुभ 4) शुचि 5) नभ 6) नेभस्य 7) ईश 8) अर्ग 9) सह 10) सहस्य 11) तप 12) तपस्या थे। महाभारत में श्रवण नक्षत्र को पहला माना जाता है। बरसात के मौसम की दो तिहाई बारिश सावन और भादों में होती है।
सावन का वातावरण ही इतना उल्लासजनक होता है कि गृहस्थ जीवन में व्यस्त स्त्री-पुरुष का मन दैनिक कार्यों की चिंताओं और व्यथाओं से दूर होकर शरीर को विश्राम व मन को आनंद देने वाले उपक्रमों में रमने लगता है। इसलिए शायद उत्सव त्यौहारों की प्रथा शुरू हुई होगी। इसके पीछे का उद्देश्य सामाजिक कर्तव्यों की पहचान करना होता है। नियत ऋतुओं के नियत दिनों में परिवार के सभी छोटे-ब़डे लोगों, अपने मित्र तथा सगे-संबंधियों के साथ मिल-जुलकर खुशियां मनाना, प्रकृति और विभिन्न कलाओं के माध्यम से मनोरंजन करना ही इन उत्सवों का प्रमुख उद्देश्य है।

प्रत्येक इंसान के अंदर अलग-अलग गुण होते हैं। इन उत्सवों के माध्यम से उन कलाओं को सामने लाने का मौका मिलता है। दैनिक जीवन की नीरसता को ये उत्सव दूर कर देते हैं। कुछ नया करने, देखने, अनुभव करने की स्फूर्ति का संचार करते हैं। गरीबों को उनकी गरीबी और दुख कुछ समय के लिए भूलने में मदद करते हैं।

हमारे पूर्वजों ने ब़डी ही कल्पनाशीलता से आनंदित होने के कारण ढूंढ़ने वाले उत्सव-त्यौहार बनाए हैं।
प्रकृति खुद में और इंसान में परिवर्तन करती रहती है। जब प्रकृति आनंद और उल्लास के साथ झूमती है तो इसका असर मनुष्यों पर भी जादू की तरह होता है। सभी स्वयं में परिवर्तन करते हैं और उत्सव शुरू होता है। आकाश में घिरने वाले बादल, बरसने वाली अमृत धारा, मोरों द्वारा किया गया नृत्य, धूप और बारिश का खेल इत्यादि को कई कवियों ने अपनी रचनाओं में समाहित किया है।

ऐसे स्फूर्त वातावरण में महाराष्ट्र में ‘मंगला गौरी’ की पूजा की जाती है। मुख्य रूप से नव-विवाहित युवतियां इसकी प्रतीक्षा करती हैं। क्योंकि इस पूजा के कारण ससुराल और मायके के सभी परिजन एकत्रित होते हैं। सुंदर कप़डों, गहनों से श्रृंगार करने का अवसर मिलता है। पुराने जमाने में कम उम्र में विवाह होता था। तब तो ‘मंगला गौरी’ का यह व्रत-पूजा उत्सव के समान ही लगता था। इस पूजा में फूलों के साथ-साथ पत्तियां भी अर्पित की जाती हैं। तब युवतियां पूजा के फूल-पत्तियां तो़डने वनों-बगीचों में जाती थीं। इसके पीछे भी महत्वपूर्ण कारण है। फूल-पत्तियों को एकत्रित करने के कारण उन्हें वनौषधियों का ज्ञान प्राप्त होता था। हमारे यहां ‘दादी मां के नुस्खे’ प्रचलित हैं। उनमें छोटी-छोटी बीमारियों के इलाज के लिए ऐसे ही फूलों-पत्तियों का उपयोग किया जाता है। अत: इस क्षेत्र में अधिक जानकारी इकट्ठा करने का यह उत्तम जरिया होता है। नए वैवाहिक जीवन के साथ तालमेल बैठाने में भी इससे आसानी होती थी। नव-वधुएं पूजा के बहाने घरों से बाहर निकलकर एक-दूसरे से मिलती थीं और दिल खोलकर बातें करती थीं। पूजा की रात को जागरण करना होता है। इस समय खेले जाने वाले खेलों से गीतों -भजनों के माध्यम से, हंसी-मजाक, ठिठोली से दैनिक जीवन के तनाव कम होने में मदद मिलती थी। मन अधिक ताजगी से परिपूर्ण हो जाता था। एक साथ खेले जाने वाले खेलों का जतन करने वाले और नई पीढ़ी तक इसे पहुंचाने का काम आज भी कई संस्थाओं, गटों द्वारा किया जाता है।

1) उत्तर भारत में कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। श्रावण शुद्ध दशमी से शुरू होने वाले उत्सव के झूलन यात्रा कहा जाता है। इसमें राधा-कृष्ण को झूले पर बैठाकर झुलाया जाता है। महिलाएं कृष्ण भजन गाती हैं।

2) बंगाल में नाग पंचमी को सर्पराज्ञी मनसा देवी की पूजा की जाती है।

3) राजस्थान में पीपाजी तथा तेजाजी नामक पौराणिक नागों की पूजा की जाती है। बीहार में महिलाएं स्वत: को नाग कन्या मानकर गीत गाती हैं। गुजरात में नाग की मूर्ति के सामने घी का दिया जलाकर जलाभिषेक किया जाता है।

4) पंजाब में श्रावण की सूर्य संक्रांति के ‘सको लडे’ नामक उत्सव मनाया जाता है। महिलाएं व ल़डकियां लाल-पीले धागों के फूल बनाकर उन्हें धाखा करती हैं। इन फूलों को ही ‘सको लडे’ कहा जाता है।

5) पंजाब में ही सावन शुद्ध दशमी को ‘सतण’ मनाया जाता है। मिट्टी के गमले में 7 प्रकार के अनाज बोये जाते हैं। पूर्णिमा तक उनमें अंकुरण होने के बाद छोटे-छोटे पौधे आ जाते हैं। मिट्टी की गु़िडया बनाकर उसे इस गमले में रखा जाता है। कुंवारी ल़डकियां इसकी पूजा करती हैं।

6) राजस्थान में श्रावण शुक्ल तृतीया को ‘तीज’ मनाई जाती है। श्रावण महीने में मायके आई अपनी बेटी को माता-पिता लाल सा़डी भेंट करते हैं।

इन उत्सवोें का संबंध श्रम परिहार से तो है ही, साथ ही यह मानस शास्त्र से भी जु़डा है। हमारे देश में प्राचीन काल से कृषि संस्कृति का अस्तित्व है। खेत जोतना, बीज बोना, उनकी सिंचाई, कटाई आदि में मेहनत अधिक होती है। मेहनत करने से आई थकान को दूर करने के लिए भी उत्सव मनाए जाते हैं। नाग पंचमी उन्हीं में से एक है। बारिश में सांपों के बिल नष्ट हो जाते हैं। और वे खेतो में, गांवों में, घरों में आने लगते हैं। मनुष्य को यह डर सदैव रहता है कि कहीं सांप उसे काट न ले। अत: उसे देवता मानकर पूजा की जाती है।

पुराने जमाने में सावन में महिलाएं अपने मायके जाती थीं। नाग पंचमी के दिन पूजा के बहाने मायके आई युवतियां, बहुएं गांव के बाहर जाकर नागों की बिल ढूं़ढती थीं और उनकी पूजा करती थीं। पे़डों पर झूले बांधकर खूब झूला झूलती थीं। बचपन का फिर एक बार अनुभव लेने के लिए इन्हे 15-15 दिनों तक निकाला नहीं जाता था।

इसके बाद आती है पूर्णिमा। श्रावण पूर्णिमा अर्थात रक्षा बंधन। पहले चावल, सोना और सफेद राई को बांधकर राखी तैयार की जाती थी। यह राखी मंत्री राजा को बांधते थे। राजा जनहित के कार्य करने के लिए बाध्य हो, इसी उद्देश्य से यह रक्षा सूत्र बांधा जाता था। बहिनें भी इस दिन भाइयों को राखी बांधती हैं। इससे भाई उसकी रक्षा की जिम्मेदारी उठाने के लिए बाध्य होता है। आज के युग में महिलाओं को पिता और पति को छो़डकर सभी को राखी बांधनी चाहिए।

महाराष्ट्र में कोली समाज अर्थात मछुआरों का यह महत्वपूर्ण उत्सव है। सागर में नारियल विसर्जित करने हर परिवार का कम से कम एक पुरुष जाता ही है। उन्मत्त मानव जाति को सागर न्रमता सिखाता है। अपनी मर्यादा न भूलने की सीख देता है। सुंदर पालकी तैयार करके उसमें सोने का एक नारियल रखा जाता है। ढोल-नगा़डों के साथ शोभा यात्रा निकालकर इसे समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण का अवतार अर्थात दैवी संस्कृति का नि:स्पृह, निरहंकारी, नम्र, निरपेक्ष तथा पूर्णावतारी पुरुष। आध्यात्मिक सामाजिक, नैतिक आदि सभी दृष्टिकोण से परिपूर्ण। उनके जैसा समाज का उद्धार करने वाला दूसरा कोई नहीं हुआ। अहंकारी, झूठे, स्वार्थी, भोगी लोग हमारे स्वजन नहीं हो सकते। भले वे हमसे चाचा, मामा, मौसी आदि रिश्तों से जु़डे हों। अपने सामाजिक विकास के कार्यों के बीच आने वाले लोगों को दूर कर देना चाहिए। राष्ट्रकार्य करते समय व्यक्तिगत निष्ठा व प्रतिष्ठा को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए। ये सारी सीख श्रीकृष्ण ने पांडवों को दी। ऐसी निष्ठा व प्रतिष्ठा किस काम की? ऐसे अवतरी पुरुष का स्मरण करने वाला उत्सव है कृष्ण जन्माष्टमी।

गोपाल काला- यह त्यौहार ऊंच-नीच की भावना नष्ट कर सभी को एक स्तर पर लाने वाला त्यौहार है। त्यौहार का विशेष आकर्षण है दही हंडी। यह खेल सभी की समान भागीदारी, पूर्ण तैयारी, योजनाबद्ध कार्य, तथा अभ्यास का नमूना है। परंतु आजकल जब से धनी वर्ग ने इसमें भाग लेना शुरू किया है, तब से इसमें जोखिम बढ़ गया है। जितनी अधिक कीमत उतनी ऊंची हंडी, उतने ही अधिक स्तर और उतनी ही अधिक जोखिम। हर साल हम ऊंचाई से गिरने के कारण घायल हुए तथा मृत्यु को प्राप्त हुए लोगों का समाचार पढ़ते हैं। इस ओर ध्यान देना आवश्यक है॥

लोगों के आचा-विचार सात्विक हों। नियमों का पालन हो। अच्छी परंपराओं का जतन हो। मनुष्य का जीवन आनंदित हो। शरीर को विश्राम और मन को उल्लास प्रदान करने वाले हैं हमारे त्यौहार। इन सभी का संबंध कृषि और ऋतुओं से जो़डा गया है, जिससे मानव प्रकृति प्रेमी बने और उसका जतन करने की कोशिश करे।

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