हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
थोड़ा सा बादल थोड़ा सा पानी और एक कहानी…

थोड़ा सा बादल थोड़ा सा पानी और एक कहानी…

by pallavi anwekar
in जुलाई -२०१४, साहित्य
0

लगभग 10-12 दिनों के व्यावसायिक दौरे के बाद मिली छुट्टी, तन-मन को जला देने वाली धूप की तपिश के बाद बारिश की फुहारें, मिट्टी की सोंधी खुशबू और आसपास का साफ वातावरण… वाह! क्या बात है। आज शायद ऊपर वाला मुझ पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है। ऐसे मौसम में चाय और पकौ़डे की फरमाइश करना तो बनता था। अपनी ‘परफेक्ट लेडी’ से मैंने अपने मन की बात कही और हमेशा की तरह एक मोहक मुस्कान के साथ वो किचन की ओर चल प़डी। अपनी ‘परफेक्ट लेडी’ को मैंने अपने बचपन की मित्र के बाद प्रेमिका, फिर पत्नी और फिर अपने बेटे की मां बनते देखा। जीवन में बहुत कुछ बदला पर उसके चेहरे की मुस्कान नहीं बदली।

मैंने रेडियो ऑन किया और बालकनी में आकर बारिश के नजारे देखने लगा। सोने पर सुहागा यह कि रेडियो पर जो पहला गाना शुरू हुआ वह था-

लगी आज सावन की फिर वो झ़डी है।
वही आग सीने में फिर जल प़डी है।

इस गाने ने बरबस मेरे अतीत के कई पन्नों को खोल दिए। आंखों के सामने दृश्य ऐसे घूम रहे थे मानो किसी ने सीडी रिवाइंड करके फिर से शुरू कर दी हो। बचपन के बारिश के दिन याद आ गए। आज के बच्चों की तरह घो़डे जैसी चाल हाथी जैसी दुम, ओ सावन राजा कहां से आए तुम गाकर हम भले ही बारिश में न नाचे हों पर खेल के मैदान में जानबूझकर छतरी न ले जाना, बारिश में लंग़डी, पिट्टू जैसे खेल खेलना और कीच़ड से सने हुए कप़डों के साथ घर लौटना। बारिश के तीन-चार महीने तक यह क्रम नहीं टूटता था।

अब मेरी और बारिश की उम्र एक साथ ब़ढने लगी थी। अब खेल के मैदान के बजाय मुझे समंदर का किनारा भाने लगा था। इस किनारे ने मुझे और मेरी पत्नी को करीब लाने में बहुत मदद की। आज भी यह हम दोनों की पसंदीदा जगह है। खासकर तब, जब हल्की बूंदाबांदी हो रही हो। हर बारिश में रिमझिम गिरे सावन सुलग-सुलग जाए मन, भीगे आज इस मौसम में लगी कैसी ये अगन गाने हम यहां जरूर आते हैं। हालांकि अब मन इस तरह से एक हो चुके हैं कि शब्दों की जरूरत नहीं प़डती। इस किनारे पर लगी बैंच पर बैठकर हमने हमारी जिंदगी के कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं।

बचपन को अलविदा कहकर मैं जवानी की दहलीज पर ख़डा था। कॉलेज का आखरी वर्ष था। प्रेम, आकर्षण जैसी भावनाएं मन में हिलोरें ले रही थीं। आसपास सुंदरता बिखरी प़डी थी, कदम-कदम पर कई अन्य आकर्षण थे। परंतु मेरे मन में केवल मेरी सबसे अच्छी दोस्त ही थी। इसके बावजूद मेरी दशा कुछ यूं थी… प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल । अपने मन की बात कहने में न जाने क्यों मुझे झिझक हो रही थी। हर समय उसके सामने अपने दिल को खोल देने वाला मैं, ये बात जुबान पर लाने में डरता था। जब मैं ही असहज था तो वो तो एक ल़डकी थी; वो क्या कहती। ऐसे ही कई अनकहे भावों को समेटकर मुझे अचानक मेरे प्रोजेक्ट के काम से शहर से बाहर जाना प़डा। प्रोजेक्ट का तनाव, उससे दूरी और बारिश। सब कुछ मेरे खिलाफ रची गई किसी साजिश की तरह लग रही थी। मैं मन ही मन उन कवियों के बारे में सोच रहा था, जिन्होंने विरह गीत लिखे। बहुत पुराने कवियों को तो नहीं जानता पर गुलजार साहब की बारिश की रचनाओं ने कई बार दिल को छू लिया था। ऐसा लगता था कि वे मेरे मन का हाल जानते हैं और बस मेरे लिए ही उन्होंने यह लिख रखा है। उदास मन से मैं सामने के पे़ड की ओर देख रहा था नजरों के सामने का जो नजारा था, उसे निहारते हुए मेरे कानों में जो गीत घुल रहे थे, वे मानों उन नजारों से ही आहिस्त-आहिस्ता फिसल रहे थे, तभी तो उसमें एक नमी सी थी… शाखों पे पत्ते थे, पत्तों पे बूंदें थीं, बूंदों में पानी था, पानी में आंसू थे। सच, मुझे भी लग रहा था कि मेरी विरह वेदना में यह पे़ड भी रो रहा है, पर नहीं। जिस नमी का अहसास मैं कर रहा था, वह केवल पे़ड की शाखाओं, उसके पत्तों तक ही नहीं थी, सहसा मुझे आभास हुआ कि वो नमी मेरी पलकोंपर भी थी।

कई दिनों बाद उसने भी बातों-बातों में मुझे बताया कि उसका भी यही हाल था। मेघा छाये आधी रात बैरन बन गई निंदिया… यह गाना उसने जाने कितनी ही बार सुना होगा, क्योंकि इस गाने की पंक्तियां सबके आंगन दिया जले रे मोरे आंगन जिया, हवा लागे शूल जैसी ताना मारे चुनरिया, उसे अपना सा लगता था। मेरा उससे दूर, दूसरे शहर में होना उससे ये कहने को मजबूर कर रहा था कि पलकों पर इक बूंद सजाए, बैठी हूं सावन ले जाए, जाए पी के देश में बरसे, इक मन प्यासा इक मन तरसे…

खैर! अपने प्रोजेक्ट का काम खतम कर मैं वापस घर पहुंचा। अपने आने की खबर उसे दी और शाम को अपनी पसंदीदा जगह पर उसे मिलने के लिए बुलाया। मैंने आज निश्चय कर लिया था चाहे जो हो, आज उसे अपने मन की बताना ही है। तय वक्त पर जोरदार बारिश हो रही थी। शायद हर बार की तरह इस बार भी वह हमारे नए रिश्ते की गवाह बनना चाहती थी। हमारा मन भी कितना अजीब होता है। इसके मन में जो भाव होते हैं वह उसी रूप में दुनिया को भी देखता है। जब मैं विरह वेदना के कारण उदास था तो मुझे लग रहा था कि पे़ड भी रो रहा है और आज जब मैं आनंद व उत्साह के हिंडोले पर झूल रहा हूं तो मुझे लग रहा है कि पे़ड भी खुश है। मुझे फिर एक बार गुलजार साहब याद आ गए। पत्ते पत्ते पर बूंदें बरसेंगी, डाली डाली पर झूमेगा सावन, प्यासे होठों को चूमेगी बारिश, आज आंखों में फूलेगा सावन। आज बारिश ने फिर से पे़ड को भिगो दिया था। हम दोनों की आंखों से आज सावन बरस रहा था। ये खुशी के आंसू थे।

मिलने की बेकरारी इतनी थी कि न हमें बारिश की फिक्र थी न लोगों की। जो कोई भी हमें देख रहा था उसके मन में यही आ रहा होगा- सावन बरसे तरसे दिल, क्यों ना निकले घर से दिल, देखो कैसा बेकरार है भरे बाजार में, यार एक यार के इंतजार में।
हम दोनों मिले। हालांकि कुछ कहने की जरूरत नहीं थी। हमारी आंखों में सब कुछ पढ़ा जा सकता था पर फिर भी पहली बार हमने अपने मन की बात कही। बारिश के साथ ही एक और चीज है जो हमारी जीवन कथा का अहम हिस्सा है और वह है हिंदी फिल्मी संगीत। बारिश जब ज्यादा ही तेज हो गई तो हम एक दुकान की आ़ड में ख़डे हो गए। वहां ओ सजना बरखा बहार आई रस की फुहार लाई अखियों में प्यार लाई गाना बज रहा था। हम दोनों भी एक-दूसरे की आंखों में वही प्यार देख रहे थे।
अब समय आ गया था कि हम विवाह के पवित्र बंधन में बंध जाएं। हमने सर्वानुमति से विवाह किया। नया जीवन, नई शुरुवात, नया संसार। अगर कुछ नहीं बदला था तो हम दोनों, बारिश और समंदर का किनारा।

दिन गुजर रहे थे। परिवार की और नौकरी की जिम्मेदारियां बढ़ रही थीं। मुझे अकसर नौकरी के सिलसिले में बाहर जाना प़डता था। मेरी अनुपस्थिति में भी उसने घर को हर तरह से संभाल रखा था। उसे हक था कि आधा महीना घर से बाहर रहने वाले को वह तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए कहकर ताना मारे। परंतु शायद ऐसा कुछ उसके स्वभाव में ही नहीं था।

कुछ महीनों बाद पिता बनने की खुशखबरी सुनकर मन प्रसन्न हो उठा। उसमें हो रहे परिवर्तनों के साथ जीने की हम दोनों ने आदत डाल ली थी। कभी खुद संभलकर कभी एक-दूसरे को सहारा देकर हम भविष्य के सपने बुन रहे थे। फिर एक समय ऐसा आया कि मेरी यात्राओं के दौरान उसका घर पर अकेला रहना मुश्किल हो गया। हम दोनों ने सबकी अनुमति लेकर उसे मायके पहुंचाने का निर्णय लिया। फिर एक बार अलग रहने का समय आ गया था। यह दुख तो था ही, पर इससे भी ज्यादा दुख यह था कि फिर बारिश का मौसम आने वाला था। आजकल की तरह उस जमाने में मोबाइल नहीं होते थे। सफर से आने के बाद मुझे उसका खत मिला। उसने खत की शुरुवात में ही लिखा था, मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास प़डा है, पानी में कुछ भीगे-भीगे दिन रखे हैं, और मेरे एक खत में लिपटी रात प़डी है…। उसने आगे कुछ नहीं लिखा था पर गीत के आगे के बोल मैं जानता था। इसलिए मेरे मन में विचारों का तूफान उठने लगा। मेरा मन बार-बार कांप रहा था। मन में एक साथ कई तूफान उठ रहे थे।

अपने सारे विश्वास को समेटे मैं उसका खत आगे पढ़ना शुरू किया। ब़डे सहज भाव से उसने लिखा था कि ‘मैं ये गीत सुन रही थी और मेरे मन में हम दोनों ने जो पल एक साथ बिताए थे उनकी याद ताजा हो गई। पर मैं कभी नहीं चाहूंगी कि कभी हमारे जीवन में ऐसा मौका आए कि हमें ये एक-दूसरे से वापस मांगना प़डे।’ खत की इन पंक्तियों को मैंने जाने कितनी बार पढ़ा होगा। एक तरह ये मेरा संबल बन चुकी थी। हमारा घर साहबजादे की किलकारियों से गूंज उठा था। एक-दूसरे के साथ पर एक-दूसरे के अलावा अब हमने किसी के लिए जीना शुरू कर दिया था। नई उमंग, नई मौज-मस्ती और फिर नई बारिश। जो मैं अपने बचपन में नहीं कर सका वो सब कुछ अपने बेटे के साथ करने लगा। घो़डे जैसी चाल हाथी जैसी दुम पर नाचा, तो कभी बारिश आई छम छम छम, पैर फिसल गया गिर गए हम, ऊपर छाता नीचे हम गाते हुए उसके सामने गिरने का नाटक किया।
अब साहबजादे ब़डे हो चुके हैं। मेरे भी व्यावसायिक दौरे कम हो गए हैं। फिर एक बार हम दोनों को एक-दूसरे के लिए वक्त मिलने लगा है। समंदर किनारे की उसी बैंच पर बैठे हुए हम इंद्र धनुष देख रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब बेटे की सतरंगी दुनिया की कल्पना कर रहे हैं। लेकिन हर बार की तरह ही इस बार भी शब्दों की जरूरत न उसे है न मुझे है।

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp

pallavi anwekar

Next Post
तस्मै श्री गुरवे नमः

तस्मै श्री गुरवे नमः

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0