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बिछोह के दर्द का एहसास

बिछोह के दर्द का एहसास

by अमोल पेडणेकर
in अगस्त-२०१४, संपादकीय
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जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता,
पंजाब सिंध गुजरात मराठा
द्राविड उत्कल वंग…

हमारे राष्ट्रगीत की पंक्तियों को गौर से पढ़ेंगे तो पाएंगे कि हमारे राष्ट्र की संकल्पना का कुछ हिस्सा हमारे देश की भौगोलिक सीमा में अब नहीं है। स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि क्या यह राष्ट्रगीत गलत है? इसका जवाब है, राष्ट्रगीत बिलकुल गलत नहीं है। 1950 में संविधान सभा ने जब ‘जन गण मन’ को हमारे राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया था तब हमारे नेताओं के मन में यह कल्पना थी कि सिंध भारत का स्वाभाविक हिस्सा होना चाहिए। परंतु, देश के विभाजन के बाद जो लोग सत्ता में आए, उन्होंने सत्ता के नशे में देश की भौगोलिक सीमाओं के साथ समझौता किया।

14 अगस्त, 1947 की उस कहर ढानेवाली अर्धरात्रि को सिंध प्रांत के हिंदुओं की जन्मभूमि ‘सिंध’ को उनसे काट कर, छीन कर पाकिस्तान के सुपुर्द कर दिया। सिंधियों को अपनी मिट्टी, अपनी धरती, अपनी जड़ से उखाड़ दिया गया। विभाजन का इससे बड़ा अभिशाप और कौनसा हो सकता है कि बंगालियों का कम से कम आधा बंगाल प्राप्त हुआ, पंजाबियों को आधा पंजाब; किंतु सिंध के हिंदुओं की झोली मे ‘मातृभूमि से निष्कासन’ का उपहार डाला गया। परिणाम स्वरूप सिंध के हिंदू सोना उगाने वाले हरेभरे खेत-खलियान, पुरखों की उत्कट धरोहर, महान मोहन-जो-दड़ो की गौरवमयी पुण्यभूमि त्याग कर भारत के दूर-दराज प्रांत, नगरों व कस्बों में बिखर गए। अपनी मातृभूमि त्याग कर सिंध के हिंदुओं को भारत की आजादी की कीमत चुकानी पड़ी। यह कटु सत्य है। सिंध प्रांत भारत का एक महत्वपूर्ण और गौरवमय अंग था। एक सियासी बंटवारे से सिंध के हिंदुओं के समुदाय, भाषा, साहित्य और संस्कृति का भी विभाजन हो गया। जो सिंध के हिंदू सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान में) में रहे, उनके पास भूमि तो रही किन्तु उसका अधिकार नहीें रहा। सिंध के जो हिंदू भारत में बस गए उन्हें अधिकार तो मिला किन्तुे भूमि नहीं मिली। भारत का विभाजन विश्व के इतिहास की प्रमुख घटना हो या न हो; पर सिंधी समाज के जीवन में घटित एक अत्यंत अहम और दर्दनाक घटना है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के विभाजन के वक्त हो रहे पलायन में एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि मुसलमानों का भारत से पलायन 1947 में ही रुक गया, परंतु पाकिस्तान में रह रहे सिंधियों का अब भी जारी है। आज भी पाकिस्तान के सिंधी हिंदुओं पर निरंतर अत्याचार, शोषण, हमले किए जा रहे हैं।

विभाजन के समय भारत आए सिंधी अपना सब कुछ लुटा कर आए थे। तन पर कपड़े और मन में विस्थापन की कसक लिए सिंधी समाज ने भारत में अपनी जगह बनानी शुरू की। आज पूरे भारत में सिंधियों को सम्मानित और व्यावहारिक उद्यमियों के रूप में जाना जाता है। विभाजन के बाद सिंधी हिंदू यहां सिर्फ मातृभाषा लेकर आया था, लेकिन आज अपने बलबूते पर आगे बढ़ा है। भारत के सामाजिक, राजनैतिक, उद्यम, साहित्य, संस्कृति और अन्य क्षेत्रों में अपनी पहचान सिंधी समाज ने अत्यंत कठोर मेहनत व ईमानदारी से बनाई है। आज भारत में अस्पताल, शिक्षा, सेवाकार्य जैसे क्षेत्रों में सिंधी समाज के माध्यम से अत्यंत लगन से आत्मीय भाव से कार्य सम्पन्न हो रहा है। परंतु अपनी अस्तित्व की जद्दोजहद में सिंधियों से कुछ छूट रहा था। वह है सिंधी संस्कृति, सिंधी सभ्यता, सिंधी लिपि और उनका सिंधी वैशिष्ट्य। परिवार की आर्थिक हालत को मजबूत करते-करते उनसे उनकी संस्कृति, सभ्यता पीछे छूटती गयी। सिंधी समाज अपने साथ जिस सिंधी भाषा, लिपि लेकर आये थे, लेकिन वह भी भूलने लगे। समाज के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया कि जिस सिंध से हिंदू की उत्पत्ति हुई थी, जो सनातन धर्म के अग्रसर थे वे संस्कृति की रक्षा पंक्ति में पीछे खिसक गये से महसूस हो रहे हैं। सिंधी समाज का क्या होगा? सिंधी भाषा, बोली का क्या होगा? पूरे भारत में अलग-अलग रहने के कारण रोज आनेवाली नई-नई समस्याओं का सामना उन्हें करना पड़ रहा था। विभाजन का झटका इतना जबरदस्त था कि सिंध के हिंदुओं को संभलने में बड़ा समय लगा। पूरा सिंधी समाज विभाजन की विभीषिका में झुलसा है। उसकी चुभन पुरानी पीढ़ी आज भी महसूस करती है। आज की नई पी़ढ़ी को उसका आभास तक नहीं रहा। नई पीढ़ी को अपने संतों, महात्माओं, योद्धाओं, विद्वानों, शहिदों के साथ संस्कृति, भाषा, लिपि का ज्ञान भी नहीं रहा।

हमारे देश भर में फैले लाखों पाठक एवं विभाजन के बाद पैदा होनेवाली सिंधी युवा पीढ़ी को सिंधी समाज की जड़ों से जोड़ने के लिए हिंदी विवेक ने प्रस्तुत ‘सिंधी समाज दर्शन विशेषांक’ प्रकाशित किया है। विभाजन का स्मरण देना, सिंध प्रदेश की चाहत सिंधी हिंदुओं के साथ समाज के अन्य लोगों के मन में जागृत रखना, सिंधु संस्कृति, उसकी महानता का परिचय देना, सिंधी समाज के विविध क्षेत्रों के विशेष मान्य गणों ने भारत के विकास के लिए जो मौलिक योगदान दिया है उन महानुभाओं के कार्यों को हिंदी विवेक के लाखों पाठकों तक पहुंचाना यह इस विशेषांक के प्रकाशन में हमारा मुख्य उद्देश्य है।

‘सिंधी समाज दर्शन विशेषांक’ को पूर्णत्व देने में सिंधी समाज के अनेक महानुभावों का सहयोग प्राप्त हुआ है। इस विशेषांक के अतिथि सम्पादक श्री राधाकृष्ण भागिया और बांद्रा हिंदू एसोसिएशन के कार्यवाह श्री अजित मनियाल के सहयोग के कारण ही हम यह विशेषांक पूर्णत्व तक ले जाने में सफल रहे है, जिसका विशेष उल्लेख जरूरी है।

सिंध प्रांत के हिंदुओं को अपनी मातृभूमि से अलग होकर 67 वर्ष हो गए हैं। सिंधी एक व्यवसायी समुदाय है। व्यवसायी तो हर वर्ष अपना लेखा-जोखा करता है, लाभ-हानि को सामने रखता है। इसी तरह वे जानते हैं कि खंडित भारत की स्वतंत्रता सिंधी हिंदुओं को भारत में विस्थापित बनाकर लाई थी। सिंधियों को ‘शरणार्थी’ शब्द पर घोर अपमान महसूस होता है। वे कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति, अपने ही देश में शरणार्थी कैसे हो सकता है? सिंधियों को ‘शरणार्थी’ के रूप में मानने की समाज की ेविचारधारा को बदलना अत्यंत जरूरी है। 1947 का विभाजन भारत के लिए आजादी हो सकती है; लेकिन सिंध के हिंदुओें को मिला है विभाजित भारत और इसके साथ उनका सब कुछ पाकिस्तान में छूट गया है। एक सिंधी कवि ने सिंधी समाज के दर्द को निम्न पंक्तियों में व्यक्त किया है।

कहते हो क्या हुआ जो सिंध छोड़ आए
अपने मोहल्ले को जरा छोड़ कर तो देखो
बिछोह के दर्द का एहसास अभी-अभी हो जाएगा
अपनी मां से दो पल दूर होकर तो देखो….
———–े

अमोल पेडणेकर

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